Rishte-Naate। Relation। the condition of being related

सख़्त बाप 

********
 जैसा कि हर माँ-बाप, 
अपने बच्चों के लिए परेशान रहते हैं, 
वैसे ही वह बुजुर्ग भी, 
उम्र के न जाने कितने पड़ाव, 
पार करने के बाद भी, 
यह फिक्र करने की आदत, 
जाती नहीं। 
दुनिया के लिए, 
बच्चा कैसा भी लायक-नालायक हो, 
बाप की बेबसी कुछ अजीब सी होती है, 
हमारे यहाँ, 
वह आमतौर पर, 
रोता नहीं, 
न रोने वाला बाप, 
जिसकी इमेज, 
एकदम, 
"ही मैन" कि तरह होती है, 
जो सबसे लड़ सकता है, 
जिसका, 
कोई मुकाबला नहीं कर सकता, 
बच्चों को उनका हीरो खूब भाता है, 
इस हीरोगीरी में, 
धीरे-धीरे वह रोना भूल जाता है, 
हरदम कड़क बना रहता है, 
धीरे-धीरे ऐसा होना, 
एक जरूरत बन जाती है। 
जैसा कि लोग समझते हैं, 
एक सख्त बाप, 
परिवार की भलाई के लिए, 
कितना जरूरी है, 
इस भलाई की खातिर, 
वह अपनी स्वाभाविक 
हँसी-मुस्कराहट, 
न जाने कब? 
कहाँ छोड़ आता है। 
पर वक्त लम्हों में, 
अनंत की यात्रा धीरे-धीरे, 
अहर्निश करता रहता है। 
ऐसे ही, 
बेमन.. अपने आप, 
बच्चे कब बड़े हो जाते हैं, 
दुनिया के किसी बाप, 
पता नहीं चलता,
और... 
वह वक्त से लड़ते-लड़ते, 
कब बूढ़ा हो जाता है, 
उसको.. 
पता ही नहीं चलता। 
अब वह जिद्दी, सनकी, 
और न जाने कितनी उपाधियां, 
ले चुका होता हैं, 
तो इसका कारण 
यही है कि, 
उसे अब भी, 
वही बच्चे और घर चाहिए, 
जो उसके हैं, 
जिसे उसने बनाया है। 
पर! बच्चों ने तो, 
अपना.. 
एकदम नया आलीशान घर, 
बना लिया है, 
कमबख्त.. 
बाप अब भी परेशान है, 
नये घर में कोई कमी, 
न रह जाये, 
बेवजह बेमागी राय, 
देता रहता है। 
आजकल की बेहतरीन, 
तकनीक के बेशुमार फायदे हैं, 
अच्छी कनेक्टिविटी, 
के साथ, 
थोड़ी रोशनी हो तो, 
सब कितना साफ नजर आता है। 
पर! अब  वह कहाँ देख पाता है, 
आँख का आपरेशन काफ़ी, 
समय से टाल रहा है, 
बेटे ने बहुत खूबसूरत घर बनाया है, 
बड़े शान से बच्चों का बखान करता है, 
हाँ .... 
अब भी न रोने की आदत, 
उसने कायम रखी है, 
कोई देख तो नहीं रहा है, 
उसने चुपचाप आँसू पोछ लिए, 
हलांकि वह जितना चाहता, 
रो सकता है, 
वैसे भी उसके, 
आसपास, 
देखने-सुनने, 
वाला, 
कोई नहीं है
©️rajhansraju
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(२)

माँ और बेटा

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यह एक प्यारे से बच्चे की कहानी है
शायद उसे डाट कम पड़ी
या प्यार बहुत मिला
जिसकी वजह से उसमें
एक ऐब आ गया।
वह पानी किसी और चीज को
समझने लग गया।
माँ जिसे वह बुढ़िया कहता है
वह भी बेटे पर हद से
ज्यादा यकीन करती है।
बेटे को भी अपना रोग मालूम है,
ऐसे में वह भी न जाने खुद को
कहाँ-कहाँ ढूँढता रहता है।
जब फुर्सत से किसी आइने में
खुद को देखता है
तो हर बार उसका अक्श
यही जवाब देता है- 
तूँ पूरा है इसका यकीन कर,
खुद की तलाश में,
कुछ और हो जाना,
क्या ठीक है?
कौन किसको पी रहा,
ए कहाँ पता चलता है?
सच कहूँ तेरा हारना
एक जाम से
अच्छा नहीं लगता।
तेरे पास तो वो
चाँद वाली बुढ़िया भी है,
जो अब भी तेरे पास रहती है
तुझमे भी तो जिंदगी का
भरपूर नशा है,
फिर तुझे
इन मामुली चीजों की जरूरत
क्यों पड़ती है?
अच्छा है!
तुझे मालूम है
तूँ जिंदा है
जानते हो क्यों?
किसी की उम्मीद हो,
नाज  हो तुम,
अरे! लगता है ..
अपनी बुढ़िया के
आसपास
हो तुम।
बस उसकी सूरत देखकर
खुद से पूँछो
कौन किसको देखकर
जिंदा है अब?
क्या कहूँ देखकर इनको,
अब भी यही लगता है
सबसे मुश्किल काम है,
माँ-बाप होना।
rajhansraju
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(३)

इंतजार

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खाली नाव किनारे पर, 
बैठी, रूठी,लगती है, 
दूर किनारा उस पार का, 
उदासी से तकता है,
इंतजाम कुछ भी कर लो, 
एक दूर किनारा होता है, 
सुबह-शाम की लम्बी दूरी,
सूरज रोज़ तय करता है, 
तब भी दोनों मिल न पाते, 
रात वहीं हो जाती है, 
सुबह अकेला ही मिलता है, 
लाख जतन करने पर,
खाली नाव मांझी का, 
इंतजार करती है,
एक किनारे से मिलके, 
दूजे को तकती है, 
इंतजार किसी का, 
कहाँ ख़त्म होता है,
एक तिनका मिलते ही, 
नए ख़ाब बुनता है,
ऐसे ही हर वक़्त,
इंतजार रहता है..
©️rajhansraju 
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(४)

कौन किसको पी गया 

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मैंने देखा है, 
दोस्त को फ़ना होते,
उसको जाते,
घर वालों को विदा करते,
कौन किसको पी गया,
किससे क्या कहूँ?
आज भी,
उसके जैसा,
जब किसी को देखता हूँ,
बेब़स, उदास हो जाता हूँ,
उसको याद करके।
मेरे सामने होता है,
वो चेहरा आज भी,
हाँ! नाराज था,
पर ए नहीं सोचा था,
इसके बाद,
अब मिलना नहीं होगा कभी।
उसके जाने का वक्त था,
हमारी नजरें मिली,
एक दूसरे से,
कुछ छुपाया हमने,
आँसू थे,
आँख में हमारे,
अब नस़ीहत नहीं थी कोई,
बस यही कहना था,
यूँ  मत जाओ,
सबको छोड़कर।
वह मुस्करया,
जैसे कहना चाहता हो,
कहीं नहीं जाऊँगा,
किसी को छोड़कर।
हाथ थामे बैठे रहे बहुत देर तक,
जो बहुत बोलता था,
आज कुछ कह न सका,
खामोश ऐसे हुआ,
जैसे कुछ जानता नहीं,
कंधे पर बैठकर हमारे,
न जाने क्यों रुखसत हुआ?
अब भी यही सोचता हूँ,
किससे क्या कहूँ?
कौन किसको पी गया?
अब तक समझ पाया नहीं ..
©️rajhansraju
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अस्तित्व : हम खुद की तलाश में सफर करते हैं भीड़ में अपनी पहचान ढूँढ़ते हैं
🤔🤔🤔
********

(५)

पिता-पुत्र 

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मुझमें जो गूँजता है,
वह तुम्ही हो,
मै अपना अक्श जब आइने में देखता हूँ,
तुम्हारे जैसा ही नज़र आता है,
जब तुम्हारी उँगली पकड़कर चलता था,
भरोसे की ड़ोर हर तरफ होती थी,
दौड़कर तुम्हारे सीने से लग जाना,
खुद को हिफाज़त की, 
सबसे सुरक्षित जगह पाना,
मेरे लड़खड़ाते कदमों को थाम लेना,
बाँह थामकर आसमान में उठाना,
मेरा सपना है, 
तूँ इतना ऊपर उठे,
तेरा पिता तुझे ,
सर उठा कर देखे,
हर बार गोद लेकर यही बताना, 
कुछ समझदार हुआ,
जब तुम्हारा हाथ थामा, 
वह खुरदरे, कठोर थे,
मैंने अपने हाथ कि तरफ देखा…..
तुम्हारा देर रात आना,
अच्छा नहीं लगता था,
हमारे पास तो सब कुछ है,
फिर तुम साथ क्यों नहीं होते?
कभी-कभी महीनों बीत जाता है, 
तुम नहीं मिलते..
अब मैं समझ पाता हूँ,
मेरे पास क्यों सबकुछ था,
कैसे स्कूल जा पाता था,
तुम क्यों मुझसे दूर थे,
रात-दिन के परिश्रम से,
ए हाथ पत्थर हो गए थे,
मेरे लिए ही तुम घर नहीं आते थे,
तुम्हारी झुर्रियों, 
आँखों में खुद को देखता हूँ,
शायद! 
पिता-पुत्र का रिश्ता समझ पाता हूँ?
तुम्हारे लिए मैं, 
अब भी उतना ही छोटा हूँ,
अनजाने में, 
जब नाराज़ हो जाता हूँ,
तुम्हारे अंदर के पिता को, 
नहीं समझ पाता हूँ,
अपने बच्चे के लिए, 
वही अनजाना डर,
दुनिया से बचाने की कोशिश.
तुम अपने बूढ़े कमज़ोर शरीर को,
अब भी मेरे लिए, 
खफा देना चाहते हो,
यह बात,
मैं अपने बड़े होते, 
बच्चों कि नाराज़गी,
देखकर समझ पाता हूँ,
एक पिता कि दुविधा,
दूसरा पिता, 
आसानी से समझ लेता है,
आज़ कि दुपहरी,
उगते और ढ़लते सूरज के बीच, 
खड़े होकर सोचा,
थोड़ा मौन हो लूँ,
बाहें फैलाकर, 
दोनो को खुद में भर लूँ,
मेरे पिता, 
आपकी यात्रा का मै साक्षी हूँ,
जो कभी खत्म नहीं होगी,
मुझमें तुम सदा मौजूद रहोगे,
यह यात्रा आगे यूँ ही करते रहोगे...
#rajhansraju 
🥀🥀🌹🌹🥀🥀🥀
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(६)

अंतराल

*******
पूरे बीस साल बीत गए,
कोई खबर नहीं ली,
पता नहीं वो लोग कैसे होंगे?
सब कुछ कैसे चल रहा होगा?
इच्छा तो कई बार हुई, 
जाऊँ मिल आऊँ,
अपनी जिद थोडा‌ परे रख दूँ,
थोडी‌ देर के लिए, 
मै ही गलत हो जाऊँ,
हर वक़्त सही होने की आदत,
आखिर क्या मिला? 
एकदम अकेला ही तो हूँ,
कोई आगे-पीछे नहीं
न कोई कहने सुनने वाला,
तभी खाना बनाने वाला, 
एक कार्ड़ लेकर आता है,
कमरे की खमोशी टूटती है,
वह बताता है- 
एक महिला, 
अपनी लड़की के साथ आयी है,
बाहर बरांदे मे चुपचाप बैठी है,
वह खमोशी से कार्ड‌ पढ़ता है,
लड़की का पिता... 
अपना नाम पढ़ता है!
अरे ए तो मीनू है 
इतनी बडी‌ हो गयी?
जी चाहता था.. 
खूब रोए, उससे ए क्या हो गया?
पर उसने कुछ नहीं किया,
बाहर आया! 
पत्नी के सफेद बालों की तरफ देखा,
बेटी भी कुछ बोल नहीं रही थी,
सिर्फ आँसू गिरे जा रहे थे,
बाप आँसू के बूंदों में चुभते सवाल.
समझ रहा था,
पापा “हमे क्यों? 
खुद से दूर रखा”?
हमारी क्या गलती थी?
शायद यह सवाल पूँछना चहती थी,
पर सवाल जवाब के सारे मायने! 
खत्म होते जा रहे थे,
उसने खुद पर थोडा‌‌ काबू पाया,
पूँछा-कुछ खाया कि नहीं, 
चलो अंदर, 
बता नहीं सकती थी? 
आ रही हो,
वैसी ही नारज़गी?
लड़का क्या करता है? 
क्या-क्या रह गया?
पत्नी पहले कि तरह चुप थी,
काश वह उसी दिन लौट आती,
या फिर न जाती, 
घर छोड़कर
लड़ती, थोडा‌ हक़ जताती,
खैर! बीस साल बीत गए,
एक छोटी सी दूरी, 
तय करने में,
क्यों और कैसे खत्म होने में,
कभी-कभी जवाब न देना,
जवाब न ढूँढ़ना भी अच्छा होता है...
©️rajhansraju 
******************************
(७)

माँ पुरानी है 

*************
उसने हर किसी से, 
अपने बेटे को पूछा, 
 कोई तो उसे जानता होगा, 
वह इतना बड़ा आदमी है, 
बड़े मकान में रहता है,
बेटे का रंग-रूप,
घर के पास कि निशानियाँ भी बताई,
जिसमे एक पुराना पेड़, छोटी दुकान थी, 
वह जिन चीज़ों को जानती थी, 
सबका जिक्र किया, 
कुछ पता नहीं चला, 
क्योंकि ऐसा तो हर शहर में होता है, 
कोई किसी को नहीं जानता, 
वह पढ़ना-लिखना नहीं जानती, 
दुनिया कि चालाकी नहीं समझती, 
बेटे के प्यार में शहर आई थी,
लाडले ने खूब फुसलाया था,
गाँव में जो भी बचा था,
उसे बेचना था, 
जल्द ही बोझ बन गयी,
बुढ़ापे का भार उठाना मुश्किल हो गया,
बेटे को पढ़ाने लिखाने में क्या-क्या सहा था,
कितने दिन भूखे रहकर, 
उसे खिलाया था, 
आज मुन्ना बड़ा आदमी बन गया,
वह सब कुछ देखता है,
बस माँ नज़र नहीं आती, 
शायद! 
कमज़ोर बूढी
 "माँ"
अच्छी नहीं लगती, 
ऊंची सोसाइटी के फैशन में, 
नहीं जँचती, 
आखिर उसकी भी तो कोई इज्ज़त है,
लोग क्या कहेंगे?
अरे! यही साहब की माँ है?
बेटे को इज्ज़त प्यारी है,
उसे माँ की ज़रुरत ही कहाँ है?
वह तो सबसे बेकार,
पड़े फर्नीचर से भी पुरानी है,
बेटे ने एक अच्छी तरकीब निकाली,
माँ को थोडा सा फुसलाया,
कहीं घूमने के लिए मनाया,
थोड़ी देर में आ रहा हूँ ,
ऐसा कह कर बैठाया,
लेकिन यह शहर दूसरा था, 
वह अब भी बेटे के इंतज़ार में बैठी है, 
थोडा आस पास रोज़ भटक लेती है,
पर! दूर नहीं जाती, 
बेटे को परेशानी न हो,
यह सोचकर, 
वापस वहीं आ जाती है, 
जहाँ बेटे ने बैठाया था, 
वहीं बैठ जाती है।
जिस तरफ गया था, 
अपलक उसी को निहारती है,
उसका बेटा आएगा,
इसी .......
उम्मीद में बैठी है ..    
©️rajhansraju
****************************
***********************

(८)

नियम

                      *********
बेगाने बन जायेंगे अपने,
अपनों से मिलाना कम होगा, 
याद तो आएगी अक्सर,
आँखों में आंसू भी आयेंगे,
पर ! नियम है ऐसा ही,

बच्चे उड़ जाते पंख जमते ही,
सूनी आँखे रह जाती, 

उसके वापस न आने पर,
उसकी मंजिल, उसकी राह,

चल दिया छोड़ घर बार,
बेटी तो चल देती ससुराल, 

बेटा भी कहाँ रहता साथ,
खाने कमाने के चक्कर में,

वह भी जाता है परदेश,
माँ रह जाती घर पर तन्हा, 

बेटी-बेटों की यादों में,
कैसे डाटा था मुन्ने को, 

कैसे प्यार किया था
बेगानों के बीच गया वो, 

कैसे लड़ता होगा उनसे,
जो रोते-रोते आँचल में, 

छुप जाता था मेरे,
पापा की जब भी पड़ती, 

थोड़ी सी डाट उसे,
बेटी भी कैसे होगी ससुराल में, 
पापा की बेटू थी जो,
लाडली पोती थी वो,
भाइयों से दिन रात  लड़ती,

बात-बात पर रोती थी वो,
कैसे नियम में बांध पाएगी? 

कैसे उठाना है? 
कैसे बैठना है?
धीरे से बात करना है,

अब उसे अच्छी बहू बनाना है,
इस नियम को बनाया हमने,

इस नियम को माना मैंने,
बेटी-बेटों ने ही माँ कहा मुझको, 

पूर्ण किया मुझको,
वह वक्त भी आ गया,

जब बच्चे दूर उड़ने लग गए,
अब मुझे छोड़ ,

 एक नया घर बनाएँगे, 
मुझसे मिलने, 
कभी-कभी आएँगे, 
तब मैं भी अपना पुराना घर, 
छोड़ चली जाउंगी, 
ऐसे ही एक दिन जब,
मेरे बच्चे,
मम्मी-पापा बन जाएँगे,
तब नई शक्ल लेकर मै,
फिर इस घर में आऊँगी, 
 अपने मम्मी -पापा,
का चस्मा लेकर, 

बिस्तर के नीचे छिप जाउंगी,
©️rajhansraju 
***********************

(9)

बंटवारा 

********
एक-एक ईंट जोड़कर, 
उसने बड़ी मेहनत से, 
घर बनाना शुरू किया, 
मकान की अंतिम ईंट, 
रखना बाकी ही था, 
कि बेटे को लगने लगा, 
उसको वह तमाम सहूलियतें, 
सबके साथ रहकर, 
नहीं मिल पाएंगी, 
ऐसा सोचकर, 
उसने अपने लिए, 
एक नए घर की योजना बनाई, 
वह नया घर, 
कहीं और नहीं बनना था, 
उसे तो पुराने घर में ही, 
एक लकीर खींच देनी थी, 
बस एक तरफ उसका, 
हक मान लिया जाता, 
जिसे वह अपना घर कहता, 
ऐसे घर में ही, 
एक दूसरा घर बन जाना था,
रोज-रोज के झगड़ों से तंग आकर, 
आखिर में बुजुर्गों ने तय किया, 
घर बंट जाना चाहिए, 
इस बंटवारे ने, 
एक घर में दो घर बना दिए, 
एक का नाम, 
कुछ दोस्तों की सलाह पर, 
उसने अपने हिसाब से रख लिया, 
ऐसे ही घर का मालिक होने का, 
ढिंढोरा पीटने लगा, 
इस बंटवारे में एक शर्त थी, 
जिम्मेदारियां उठाने की, 
बेटे को भी,
अपना यह काम करना था, 
उसके साथ जो लोग रह रहे हैं, 
उनका ख्याल रखना था, 
बेटे ने हामी भी भरी थी।
 घर के बीच,
जो लकीर खींची गई है, 
उसे बंटवारा कहते हैं, 
यह बात समझने में, 
काफी लोग नाकाम रहे, 
और इस बंटवारे से, 
कुछ लोग बेखबर ही रहे, 
लकीर के इस पार, 
उस पार का फर्क नहीं समझ सके, 
तो कुछ लोग जो चालाक थे, 
लोगों कि इस नासमझी का, 
खूब फायदा भी उठाया, 
आखिर यह लकीर तो, 
इन्होंने ही खींची थी।
वक्त बीतता रहा, 
बेटे की संगत बिगड़ती रही, 
वह मकान के, 
आधे हिस्से को पूरा हड़पने की, 
कोशिश करने लगा, 
जो लोग पहले से वहाँ मौजूद थे, 
उन पर जुल्मों सितम बढ़ता रहा, 
इस खींचतान में, 
बेटे का घर, 
उसकी आदतों के कारण, 
दो हिस्सों में बंट गया, 
इंसानी फितरत बड़ी अजीब है, 
कोई भी आदत कहाँ छूटती है? 
उसको वैसी भी.. 
अपने लिए...
सब कुछ अलग चाहिए.. 
वक्त अभी कुछ और आगे, 
थोड़ी रफ्तार से चलने ही लगा था, 
ए आदत... 
वैसा ही सबकुछ,
दूहराए जाने का,
सिलसिला चल पड़ा।
आखिर जिम्मेदार बाप कैसे चुप रहे, 
लोगों कीं तकलीफ देखता रहे, 
उसने तय किया, 
चलो जो हुआ, अच्छा तो नहीं है, 
पर नालायक बेटे के हाथ, 
अपने लोगों की जिन्दगी, 
सौंपना ठीक तो नहीं है, 
जो बगैर किसी गलती के, 
उस लकीर के पार, 
सजा भुगत रहे हैं।
बाप ने फैसला किया, 
जो जुल्म से भाग कर आए हैं, 
उनको उनके पुराने घर में, 
वही हक, 
सम्मान दिया जाएगा, 
इस खबर से कुछ घर वाले, 
नाराज हो गए, 
उन्हें लग रहा था, 
उनका हिस्सा मारा जाएगा, 
जबकि यहाँ सिर्फ़, 
जो हक है 
वह तो जिंदगी के लिए 
जरूरी सुरक्षा और सम्मान है, 
बाकी सबकी तरह, 
रोटी... 
मेहनत से कमानी है।
 
ऐसे ही तमाम कहानियां, 
गढ़ी जाने लगी, 
इसको, उसको, 
कैसे का जिक्र होने लगा, 
और ए भी कहा जा रहा हैं कि, 
उस तरफ रहने वाले बच्चे भी, 
अपने घर से परेशान, 
बहुत दुखी हैं, 
ऐसे में, 
उन्हें भी इस तरफ, 
अपनी मनमर्जी आने देना चाहिए, 
इस तरफ के घरवालों को, 
उस तरफ जो अपना ही खून है, 
उनसे बहुत हमदर्दी है, 
आखिर रिश्तों की कशक, 
क्या कभी खत्म होती है?
और यह कशक, 
एक अनजानी डोर सी होती है, 
जो कहीं कुछ बचाए रखती है, 
अब तो घर वालों की, 
बेपनाह फिक्र देखकर, 
ऐसा लगता है कि, 
इस तरफ और उस तरफ, 
की चर्चा बेमानी है, 
और दोनों तरफ के लोगों को, 
एक छोटा सा काम करना है 
बस एक लकीर, 
ही तो मिटानी है..
©️rajhansraju
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⬅️(43) Saudagar
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➡️(41) Samundar 
उसके पास पानी बहुत है, 
मगर पी नहीं सकता "समुंदर"बहुत खारा है
 किसी से कह नहीं सकता
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(42)
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Comments

  1. इस तरफ और उस तरफ,
    की चर्चा बेमानी है,
    और दोनों तरफ के लोगों को,
    एक छोटा सा काम करना है
    बस एक लकीर,
    ही तो मिटानी है..

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