Mera asaman

मेरा आसमान 

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सोचता हूँ क्या कहूँ?
लड़खड़ाते कदम अच्छे हैं,
या फिर लड़खड़ाती आवाज,
कुछ भी हो?
अच्छा नहीं लगता,
नींद का यूँ खो जाना।
शायद! कभी-कभी,
किसी को अलविदा कहना,
बड़ा मुश्किल होता है,
वो भी जिसके साथ इतना वक्त गुजारा,
उसने भी तो भरपूर साथ निभाया,
फिर उसके लिए,
चंद रातें जाग लेना,
बुरा तो नहीं है,
हो सकता है,
उसको आखरी बार,
जी भर कर देखने की चाहत हो,
अब एक दूसरे को,
आखरी अलविदा कहना है।
वो दुःख जो उसका अपना है,
जिसकी चादर ओढ़े है,
उसी से एक सुकून है,
जिसको कसके थामा है,
कम से कम वो उसका अपना है,
हलाँकि साँस उसकी चलती नहीं,
धड़कन सुनाई देती नहीं,
पर गरदन जिसने पकड़ा है,
वह कहता उसको अपना है,
छोड़कर उसको चल न दे,
यूँ ही जिंदा छोड़ दे,
ए भी उसके लिए,
अच्छा नहीं है,
जिंदगी से डरता है,
खुद का सामना,
कहाँ करता है?
कहीं आँख पूरी खुल गयी,
या नींद उसको आ गयी,
कुछ और सपने आ गए,
या सच थोड़ा सा दिख गया,
तब पुराना दुःख कहाँ रह पाएगा,
बिना उसके,
पास क्या रह जाएगा?
जबकि,
एक कच्ची डोर ही काफी है,
जिसे थामकर,
दरिया नहीं,
समंदर,
पार कर जाएगा,
फिर पार बैठा
उस दुःख पर,
मुस्कराएगा,
जो अब भी वहीं ठहरा है,
जो न तो चलता है,
और न कोई डोर थामता है,
करे भी क्या,
उसके न तो अपने हाथ है,
और न पाँव,
पूरा लूला-लंगडा है,
सारे लोग उसे पकड़ के बैठे हैं,
उसको अपना कहते रहते हैं,
पर सच ए है कि,
वो है ही नहीं,
जिसको मुट्ठी में,
कसके बाँधा है,
हाथ खोल के देख,
एकदम खाली है,
जिसमें पूरा,
आसमान,
आ जाता है।
rajhansraju
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(२)

मुठ्ठी में आकाश 

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आसमान खुला पड़ा था, 
अपना हिस्सा बांध रहा था, 
एक-एक लम्हा गुज़र रहा था, 
खुद को समेटे बढ़ रहा था, 
डर से मुठ्ठी बांध लिया था, 
कुछ अपना लिए, 
लड़खड़ा  रहा था,
ठोकर से गिरा तभी, 
बंद मुठ्ठी खुली वहीं, 
चारों तरफ आसमान था, 
मुठ्ठी में कुछ नहीं था, 
बेवज़ह बांधे परेशान था।
©️rajhansraju 
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(३)

प्रभातरात की चादर ओढ़ के ,

जब दुनिया सो जाती है .
 कुछ आँखे अलसाई सी ,
किसी की याद में खोई सी .
तन्हाइयों में रोई सी ,
तलाश में अपनों के, 
निकल पड़ती हैं ,
दूर अँधेरे में,
दीवारों से टकराती हैं .
थक कर, 
कमरे की दीवारों तक जाती हैं ,
 कदम वहीँ रुक जाते हैं,
सपनों को, खिडकियों में ढूँढता है ,
 बंद दरवाजे को बार -बार देखता है .
शायद कोई दस्तक, 
बिछड़े यादों से मिला दे .
आसमान भी, 
कितना छोटा है उसका,
अँधेरे में काला ही नज़र आता है ,
कोई चाँद सितारें नहीं इसमें .
सूरज भी,
लगता है, 
किसी कोने में, 
चादर ओढ़के सो गया .
वह तन्हाइयों से बातें करता है ,
उदास,
कमरे को देखता है .
पता नहीं कब, 
आँख लग जाती है, 
लगता है, 
सबेरा होने वाला है,
खिड़की से, 
सुनहरी धूप झाँक रही है,
सूरज ने दरवाजा खटखटाया है,
साथ चलने को बुलाया है.. 
©️rajhansraju 
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(4)

कुछ मीठा हो जाये 

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उसके पास, 
खाने और पकाने,
दोनों का सामान नहीं था,
कई दिनों से,
कुछ नहीं खाया था,
जैसे तैसे सब जिंदा हैं,
आज चेहरों पर,
कुछ चमक दिखी,
काफी दिनों बाद,
कुछ बनाने की तैयारी हो रही थी,
उसने कैसे करके, 
कुछ रोटियां बनायी,
हाँ! कहीं से थोड़ा सा,
कुछ मिल गया था,
शायद कुछ खराब था,
खैर! ताजा तो नहीं था,
मगर उससे रोटी बन सकती थी,
सबने थोड़ा-थोड़ा खाया,
कुछ पेट की, 
और कुछ मन की,
भूख मिटाई।
जो थोड़ी अच्छी बन पड़ी थी,
उन्हें बच्चों ने खायी,
जो सबसे खराब,
ज्यादातर कच्ची थी,
जिसने बनाया,
उसने चुपचाप खाया,
और किसी ने,
न कुछ देखा,
न कुछ पूँछा?
उसके हिस्से में,
सच में रोटी थी?
शायद कुछ बचा था,
या फिर पूरा बरतन खाली था,
और सबका मन रखने को,
मैंने खाया जी भरके,
उसका यह,
झूठ-मूठ का कहना था,
खैर! किसी और ने,
यह बात नहीं जानी।
अक्सर ऐसा होता है,
खुद के खाने की जल्दी में,
भूल जाते हैं हम,
वो खाना जो परस रहा,
या फिर जिसकी
उंगली में थोड़ी सी भी, 
आँच लगी होगी,
उसकी खातिर,
थोड़ा ठहरें, देखें,पूँछे,
मै जो खा रहा,
क्या वो,
सबके हिस्से आ रहा,
अगर कुछ कम है तो आओ,
सब में कूछ कम करते हैं,
ऐसे हर थाली सज जाएगी,
जो भी होगा,
थोड़ा-थोड़ा
सबको,
मिल जाएगा,
और अपनेपन के जादू से,
सब मीठा-मीठा हो जाएगा।
©️rajhansraju
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Comments

  1. कहते हैं कब्र में सुकून की नींद आती है
    अब मजे की बात ए है की ए बात भी
    जिंदा लोगों ने काही है

    ReplyDelete

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