Mukhauta

बे-चेहरा 

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हलाँकि,
उसे यही लगता है,
उसने मुझे,
ऐसो आराम का हर सामान दिया है,
मुझे महफूज रखने की सारी व्यवस्था की है,
और लोगों से,
मुझे समझने का दावा करता है,
ए लिबास और दीवार,
मेरे लिए तो है,
देखो कितनी खूबसूरत है,
ए जंजीर सोने की है,
इसमें हसीन पत्थर जड़े हैं,
सब कुछ बहुत कीमती है,
मुझको सर से पाँव तक,
हर तरह की रंगीन बेडियों से जकड़ा है,
जिसे कभी कोई लिबास, जेवर,
या कुछ और कह देता है,
उसका दावा अब भी यही है,
वह,
मेरे सहूलियत,
मेरे हक की बात करता है,
ए और है कि उसने कभी,
मेरी आवाज नहीं सुनी,
मुझे सिर्फ बुत समझते रहे,
और मै, 
बिना किसी पहचान के,
हरदम बेचेहरा रही,
rajhansraju
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(२)

मेरे ख्याल से

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बहुत कुछ कहने,
सुनने कि ख़्वाइश़, 
सभी को है,
पर कहाँ?
किससे और क्यों कहें?
यह सोचकर अक्सर,
चुप रह जाते हैं,
जबकि अंदर,
रह रहकर कुछ गूँजता है,
जबकि बाहर न जाने,
कब से?
मौन पसरा है,
सबको सब,
नजर कहाँ आता है?
कभी गौर से सुनना,
चुप रहकर कोई,
क्या कह जाता है?
फिर ए लफ़्ज़ जो बिखरे हैं,
वो खा़मोशी की निशानी,
तो बिलकुल भी नहीं है,
चलो कुछ,
"यूँ"
बात करते हैं,
सिर्फ़,
बिखरे हुए,
अल्फा़जों की हुनर देखते हैं,
©️rajhansraju
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(३)

मूखौटा

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सुना है 
बिकने को तूँ भी 
तैयार था,
इल्जाम लगाऊँ,
या फिर यकीं कर लूँ,
पर! चर्चा यही है,
मनमाफिक कीमत नहीं मिली,
तब खा़मियाँ गिनाने लगे खरीदार में।
सच मानिए!
अब भरोसा नहीं होता,
कुछ भी देख, सुनकर,
पता नहीं क्या मकसद है,
यहाँ सब अइयार हैं।
कोई तश्वीर देखकर,
हमें लगा यह सुबह है,
शायद! दिन की शुरुआत है,
कुछ देर में ही यकीं जाता रहा,
ए तो बिना चाँद वाली रात थी।
उसने भी थककर,
रुख़सत का फैसला किया,
वैसे दोनों को,
एक दूसरे से शिकायत नहीं थी,
क्योंकि सच ?
कुछ और भी था,
जिसकी कभी चर्चा नहीं हुई।
किसी वादे पर यकीं,
कैसे कर लेंं?
जब "मै" न जाने कहाँ?
खुद को छोड़ आया हूँ, 
सामने चेहरा नहीं मुखौटा है,
हद तो ए है कि उसे भी ,
यह बात पता नहीं है,
वह अब सिर्फ मुखौटा है।
#rajhansraju
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(४)

।। रहने दो।। 

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अब जो लोग बातें कर रहे,
या कुछ और कर रहे हैं,
उनमें ज्यादातर,
अंदर से एकदम खाली हैं।
उनके पास देने के लिए,
कुछ भी नहीं है।
ऐसे में नफरत और गाली,
के जवाब में,
वही वापस लौट आती हैं,
सब गंदा नजर आने लगता है।
चलो कुछ बात करते हैं,
अरे! तुम खाली हो,
ए बताने की जरूरत क्या है?
तुम्हें कुछ ठीक करने की,
जरूरत भी नहीं है।
बस चुप हो जाओ,
ए गंदगी,
अपने आप,
कम हो जाएगी।
rajhansraju
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(५) 

मैं ए नहीं हूँ

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मैने भी सुना है,
ए कहते हुए,
मै ए नहीं,
मै वो नहीं,
ऐसा करते हैं,
एक छोटे से,
सफर के बाद
हम खुद को देखते हैं,
किसको पता चलता है,
वो क्या नहीं है?
पर शर्त ए है कि
उसे देखना आता हो,
वह क्या है,
क्या नहीं है।
खैर कुछ मसक्कत की,
और खुद को थोड़ा,
गौर से देखा,
तो जो हम थे,
वो.. अब ..
शायद!
हम नहीं हैं।
©️Rajhans Raju
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(६)

रिश्ता 

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बहुत कुछ,
कहना सुननाा था,
खामोशिया हमारे दरमिया,
वैसे ही कायम रही,
रोज मिलना,
कोई बात न होना,
यूँ ही चलता रहा,
हमारे बीच जरूर,
कोई रिश्ता रहा है,
जो हम अब तलक,
मिलते रहे।
©️rajhansraju 
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(7)

धागों का इन्द्रधनुष 

*********
धागों का,
टूटना और छूटना,
कभी चटक जाना
कभी छटक जाना
फिर उन्हें समेट लेना
पूरा धागा बना लेना
उसका एक सिरा,
कभी कसके पकड़ लेना,
किसी गाँठ का पड़ जाना,
किसी वजह से कुछ उलझ जाना,
ऐसे में एक दूसरे को,
थोड़ा वक्त देना,
बस! किसी उंगली से थाम लेना,
ए उम्मीद की डोर,
जो अब भी बंधी है,
उसके किसी उंगली में, 
हो सकता है,
सिर्फ फॅसी हो, 
जबकि दूसरा सिरा,
अब भी मेरी तरफ है,
तो इसकी वजह यही है,
ए डोर अब भी कायम है।
वैसे भी जो कच्ची मिट्टी,
कच्चे धागे से बना हैं,
उनके कुछ भी बनने का सिलसिला,
कभी खत्म नहीं होता,
उसे तो सिर्फ वो कुम्हार, 
वो जुलाहा चाहिए, 
जो उसे गढ़ दे,
और रंगो से ऐसे रंग दे,
बस यूँ ही,
हर बार नया हो जाए,
शायद! इसी इंतजार में,
वह एक सिरे पर,
बिना रंग, बिना धागे के,
खाली हाथ बैठा रहा।
जबकि दूसरे सिरे पर,
आज उसके हाथ में,
इंद्रधनुष है,
हालाँकि, 
उसे इस बात की उम्मीद नहीं थी,
कोई रंग आकर उसे छू लेगा,
वह आज सतरंगी हो जाएगा,
पर ए भी सच है!
सुबह अपनी कलाई पर,
उसने "छः रंग"
खुद ही बाँधे थे,
बस एक की
कमी थी।
©️rajhansraju
🥀🥀🥀
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(8)

खोटे सिक्के 

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(प्लास्टिक के फूल) 

मेरी जरूरत का हर सामान,
बाजार में मिलता है,
दुकानों में क्या कुछ नहीं है,
इंसानी शक्लों की पूरी तह लगी है,
खरीदने, बेचने और बिकने वाले,
हर जगह,
जैसे एक ही आदमी हो,
कौन, किस तरफ, क्या है?
कुछ भी समझना,
बहुत मुश्किल है।
तभी अलग शक्ल लिए,
कुछ लोग,
दुकान की चौखट पर आए,
अपने खास होने का,
एक अजीब सा उलझा हुआ,
कुछ? 
यकीन जैसा लगा?
जैसे खुद को
थोड़ा बहुत पहचानते हों,
पर यह क्या?
दुकान का दरवाजा खुलते ही,
उसकी चमक ने सबको,
अपनी आगोश में ले लिया,
ऐसे ही, जो भी यहाँ आया,
अपनी सूरत खोता रहा,
जिसकी पहली शर्त यह है,
इसकी कीमत,
उसे खुद ही चुकाना है,
असली काम? 
जिनके जेब में सिक्के है,
उन्हें दुकान तक लाना है।
जबकि,
अब भी उसे अपनी जरूरत का,
ठीक से अंदाजा नही है,
बस वह खरीद सकता है,
इसलिए खरीदता रहता है।
ऐसे में कभी-कभी लगता है,
शायद! 
वो ज्यादा खुश नसीब हैं,
जो बाजार से,
अक्सर?
खाली हाथ लौट आते हैं,
या तो उनको ए बाजार
समझ नहीं आता,
या फिर एकदम कड़के हैं,
मतलब इनकी जेबें खाली हैं,
जिसमें शायद!
इनकी पूरी मर्जी नहीं है,
पर ऐसे ही,
कुछ अपनी सूरत के साथ,
बचे रह जाते हैं।
शायद! थोड़े जिद्दी हैं, 
या फिर एकदम खोटे,
जो ना तो बिकते हैं,
और ना ही कुछ, खरीद पाते हैं।
ए भी सच है, 
दुनिया बड़ी अजीब है,
इन सब के बाद भी,
ए रहते हैं, बीच बाजार में,
कोई मोल नहीं है इनका,
पर! जाने क्या है इनमें?
जो भरपूर खनकते रहते है,
एक जैसे, बेचेहरों को,
देखकर! बस!
ए हँसी ठिठोली, 
करते रहते हैं।
©️rajhansraju
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Comments

  1. वह,
    मेरे सहूलियत,
    मेरे हक की बात करता है,
    ए और है कि उसने कभी,
    मेरी आवाज नहीं सुनी,
    मुझे सिर्फ बुत समझते रहे,
    और मै,
    बिना किसी पहचान के,
    हरदम बेचेहरा रही,
    rajhansraju

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