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Munadi

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मुनादी  ******* सुनता तो यही आया हूँ,  तुम हर जगह हो, और अब मै भी,  सबसे यही कहने लगा हूँ, पर! न जाने क्यों ? तुम पर यकीं करने का, मन नहीं करता,  क्योंकि जब भी?  कोई फिक्र की बात थी, तब सच में वहाँ नहीं थे, लोग आते रहे,  तुम्हारे होने का भरोसा दिलाते रहे, मै चुपचाप तुम्हारी बात सुनता रहा, हलांकि मै साक्षी हूँ, हर उस लम्हे का,  जब तुम बहुत दूर थे, और मेरे लिए नहीं थे, फिर वही आवाज,  रह-रहकर गूँज उठती है, तुम हो यहीं पर हो, हर बार की तरह इस बर भी, मै तुम्हारा वजूद,  ढूंढता रह जाता हूँ, सिर्फ शोर है, जहाँ एक दूसरे की आवाज,  ठीक से सुनाई नहीं देती, जबकि दावा यही है कि सिर्फ़ उसने, उसकी आवाज सुनी है, बाकी सब बहरे हैं, जैसा मैं कहता हूँ, वही सही है, खैर! इसकी भी मुनादी जरूरी है, उसको अपनी बात सबसे कहनी है, इस मुश्किल घड़ी में, एक राह सूझी, उसे पता चला इन, बहरों के बीच एक गूँगा रहता है, मुनादी का काम इसे मिल गया, वह पूरे दिन मुनादी करता रहा, बहरों को सब कुछ,  पहले जैसा ही लगा, उन्हें कुछ सुनयी नहीं दिया,