Likhawat।writing is creating symbols
लिखावट
इनको कौन गढ़ता है,
कोई किस्मत,
कोई कुछ और कहता है,
हाथ पर क्या,
कोई कहानी लिखी है,
जिसके हिसाब से,
जिंदगी चलती है,
शायद! ए सिर्फ किस्से हैं,
कहीं कुछ लिखा नहीं है,
ऐसे ही चर्चा चलती रहती है
क्या लिखा है
पढ़ने के दावे करते रहे,
सबने लकीरों के,
अपने अर्थ दिये,
जो जितना जानकर था,
उतनी ही बातें बताता रहा,
हर लकीर की कहानी कहता रहा,
रेत में भी वैसी ही लकीरें थी
एकदम हथेली जैसी,
उसने इनके मतलब बताने शुरू किए,
तभी एक लहर आयी,
अपने साथ लकीरों को वापस,
अपने पास ले गई,
एकदम सपाट
दरिया किनारे लकीरें
कहाँ ठहरती हैं
तभी कुछ मासूम बच्चे,
बदमाशियों करने लगे,
रेत पर लकीरें,
बनने लगी..
rajhansraju
(२)
बेज़ान हूँ,
जिसने रंग बदल दिया,
आग में तप कर पक्का हो गया,
मुझमें कुछ भर सके इसलिए
खुद को सदा खाली रखा,
दुनिया की ठोकरों से,
जैसे कभी था ही नहीं,
कुछ इस तरह,
कुम्हार की चाक पर,
मै फिर वही रिक्तता लिए,
(3)
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मिट्टी ने पत्थर की मूरत देखी,
उसे खुद के होने पर,
बड़ा रंज हुआ,
और खुदा से,
पत्थर न बनाए जाने की,
शिकायत करने लगी,
अपने रंग-रूप से नाराज,
पत्थर बनने की ख्वाहिश में,
जीने लगी,
पर उसका सफर,
बड़ा अजीब था,
वह तो किसी के भी साथ हो लेती,
और चल पड़ती,
किसान के खेत में,
फसल की जड़ को थाम लेती,
तो कुम्हार की चाक पर,
नाचने लग जाती,
किसी भी रंग में,
रंग जाने का,
टूट कर जुड़ जाने का,
उसमें एक हुनर है,
हर बार पहले से ज्यादा,
निखर जाना,
नये आकार में ढल जाना,
जैसे वह मिट्टी है ही नहीं,
फिर बिखर कर,
जमीन की आगोशी में खो जाना,
हर बार ऐसे ही,
एक नए सफर पर निकल जाना,
फिर एक दिन ऐसा हुआ,
उसी पत्थर की मूरत से,
मिलना हुआ,
जो कई जगह से चटक गई थी,
उसके फिर से जुड़ने की,
संभावना नहीं थी,
टूटने के निशान मिटा पाना,
मुमकिन नहीं था,
मिट्टी को पत्थर की खूबसूरती पर,
अफसोस होने लगा,
उसे हमेशा कोई गढ़ने वाला चाहिए,
एक बार किसी आकार में,
ढल गया तो,
वह पहले जैसा दोबारा,
कभी नहीं हो सकता,
यह देखकर मिट्टी का,
सारा अफसोस जाता रहा,
कुछ भी बन सकने की,
अनंत यात्रा,
उसके बाद,
फिर वही मिट्टी बन जाना,
हर बार अपने को,
पा लेने का सफर,
मिट्टी का मिट्टी में,
मिलकर मिट्टी बन जाना
©️rajhansraju
वह रिहाई रिहाई चिल्लाता है
मगर आसपास
कोई दिखाई नहीं देता है
एकदम अकेला
किसी मैदान में खड़ा है
दूर तक कोई
छायादार पेड़ भी नहीं है
दूर से गुजरने वालों ने
एक आदमी को
हाथ ऊपर किए देखा
उसकी आवाज
उन तक पहुँचती नहीं है
वह कह क्या रहा है
किसी को समझ में आता नहीं है
जैसा कि आमतौर पर होता है
ऐसे लोगों को
पागल समझा जाता है
न जाने कब से
यूं ही चलता रहा है
किससे रिहा होना है
यह भी पता नहीं है
तलाश जिस चीज की है
उसे मिला नहीं है
आखिर मिलता भी कैसे
वह जहाँ है उसके सिवा
कुछ नहीं है
ऐसे ही वह आदमी
रिहाई रिहाई चीखता है
वह भीड़ में है कि तन्हा है
इससे फर्क नहीं पड़ता
बस रिहाई-रिहाई
कहता रहता है।
शहर धीरे-धीरे
उससे वाकिफ हो गया है
हर शख़्स
उसमें अपनी सूरत देखता है
जो अक्सर उसके
आसपास से गुजरते हैं
उसे पागल नहीं कहते हैं
उन्हें उसमें
अपनी शक्ल नजर आती है
जो वह कह रहा है
सच में
वह भी तो यही चाहते हैं
ऐसे ही जिसे पागल समझ रहे थे
उसे फकीर कहने लगे हैं
जो किसी बंधन में नजर नहीं आता
रिहाई कि बात करता है
एकदम तन्हा है
अब शक्ल भी ऐसी हो गई है
उदास दिखता नहीं है
तो किस बात से रिहाई चाहता है
उसके यह शब्द
सवाल है कि जवाब
जब कोई कहीं ठहर कर सोचता है
हर आदमी खुद को
पागल समझने लगता है
बस फर्क सिर्फ इतना है
मुझमें उसके जितनी
हिम्मत नहीं है
हम रिहाई-रिहाई
कह भी नहीं सकते
अपनी जंजीर को
बड़ी अइयारी से
शोहरत, बुलंदी का
नाम दे देते हैं
और उसका रंग
सुनहरा कर देते हैं
©️Rajhansraju
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➡️(7) Dharohar
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(8)
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maja aa gaya
ReplyDeleteमैं
ReplyDeleteअतीत और भविष्य
की पगडंडी पर
यूँ ही हमेशा
बरकरार रहता