Saudagar

सौदागर 

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पूरी उम्र गुजर गयी, 
कुछ भी समझने में, 
खामोश हो गए परिंदे, 
बोलते-बोलते, 
बहुत है, 
शाम को घरौंदे में, 
लौट कर आना, 
आखिर कब तक रहेगा 
आसमान में, 
जहाँ किसी का, 
कोई ठिकाना नहीं है  
वह तो सफर के लिए, 
सिर्फ़ राह देता है, 
वह भी अनंत, 
जहाँ ठहरने की गुंजाइश नहीं है, 
और तभी तक है, 
जब तक सफर है, 
उसकी ऊँचाई और दूरी का, 
कोई पैमाना नहीं है, 
इतनी भीड़ है, 
बहुत तेज चल रहे हैं,
इसके बाद भी, 
सबको शिकायत है, 
जैसे आज ही, 
हर शख्स, 
एक साथ, 
सफर पर निकले है, 
इस आपाधापी में, 
खो जाने का डर, 
इस कदर बैठा है, 
कहता कुछ नहीं, 
पर चेहरा कहाँ चुप रहता है, 
किसी का भी रुक पाना, 
मुमकिन नहीं लगता, 
चलने की आदत, 
इस कदर हो गई है, 
वैसे भी लौटना, 
कौन चाहता है, 
शहर पूरी रफ्तार में है, 
न जाने कहाँ, 
पहुँचने की जल्दी है, 
कहीं कोई ठहर कर, 
कुछ देखता नहीं, 
किस मुकाम पर है, 
इसका अंदाजा लगता नहीं, 
मगर जल्दी बहुत है, 
यही कहता फिरता है, 
कमबख्त कोई सुकून से, 
कहीं ठहरता नहीं है 
हर जगह रुखसती, 
लिखी हो जैसे, 
हाँ! ए सबको मालूम है, 
सदा के लिए, 
कुछ भी किसी का नहीं है, 
मगर क्या करें, 
जिंदगी तो इसी के, 
दरमियाँ है, 
शिकायत भी करनी है, 
और खफ़ा होना है, 
पर इसके लिये, 
एक छोटी सी, 
शर्त है, 
तुझे, 
मेरे पास, 
अपने चंद पल रखना है, 
पर तूँ तो, 
शहर का आदमी, 
ठहरा, 
हिसाब का पक्का, 
घाटे का सौदा 
कहाँ करता है 
©️rajhansraju
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तमाशाई

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कभी-कभी, 
आसपास देखना, 
कितना जरूरी है, 
नजर बहुत कुछ आता है
पर नजरिए के बिना, 
कहा-अनकहा, 
एक जैसा रह जाता है,
बड़ी-बड़ी बातें, 
नारे और शोर बन जाते हैं, 
एक छोटी सी बात, 
क्यों पूरी नहीं हो पाती, 
जिसे पूरी करने की जिम्मेदारी, 
हर किसी को निभानी है, 
बस दो कदम चलना है, 
हाथ बढ़ाकर थाम लेना है, 
बस इतना सा नहीं हो पाता, 
और वह बहुत दूर से, 
देखता रह जाता है, 
इस निगहबानी का, 
उसको सिला नहीं मिलता, 
उसने करने जैसा कुछ किया हो, 
ए भी पता नहीं चलता, 
हलांकि वह चर्चे, 
कैसे क्या हुआ, 
इसी का, 
हर वक्त करता है, 
अपने चश्मे की तारीफ, 
कुछ इस तरह करता है, 
जैसे किसी और ने, 
कुछ नहीं देखा हो, 
जबकि उसके सामने, 
हर शख्स चश्मा नशीं है, 
उसी की तरह, 
वह भी, 
नजर और नजरिया रखते हैं, 
वह भी हाथ नहीं बढ़ाते, 
अपनी जगह सिमट कर बैठे हैं, 
ऐसे ही शहर जलने लगा, 
हर आदमी के पास, 
अब भी अपना नजरिया है, 
आग बुझाने की तरकीब, 
इनमें से किसी को मालूम नहीं है, 
पानी के हुनर से, 
ए वाकिफ नहीं हैं, 
क्या और कैसे की बहस, 
अब भी जारी है, 
चिंगारी इनके घरों तक पहुँच गयी है, 
मशविरे का सिलसिला, 
बदस्तूर चल रहा है, 
आग की लपटें, 
नये मकानों से उठने लगे हैं, 
दूसरी तरफ राख का ढ़ेर, 
बढ़ता जा रहा है, 
हवाओं का रुख 
चिंगारियों के अनुकूल है, 
और पानी का, 
अब भी पता नहीं है, 
शहर में हर तरफ, 
तमाशबीन, 
नये-नये फलसफे गढ़ रहे हैं, 
चिंगारी के आग बनने की, 
व्यवस्था को अंजाम दे रहे हैं, 
ईदगाह-रामलीला मैदान में, 
हलचल बढ़ रही है, 
बुद्धिजीवी, 
अपनी रोजी-रोटी में, 
लग गया है, 
उसने समाजवाद पर, 
बहुत लम्बा भाषण दिया है, 
पुराना खद्दर का कुर्ता पहन रखा है, 
अरे उसके हाथ में संविधान भी है, 
खैर नेता जी ने, 
नयी पार्टी ज्वाइन कर ली है, 
बुद्धिजीवी की किताब, 
सभी सरकारी लाइब्रेरी के लिए, 
एकदम अनिवार्य हो गई है, 
कुल मिलाकर मुश्किल से, 
सौ पन्ने में पूरा समाजवाद है, 
कीमत पूरे हजार है, 
मिल बांटकर समाजवाद लाने की, 
ए एक तकनीक है, 
खतरे का जिक्र लगातार हो रहा है, 
सभी चिंतित हैं, 
पर कोई दुश्मन नजर नहीं आता, 
बस इल्ज़ाम का दौर चल रहा है, 
जबकि चिंगारी, 
हर तमाशाई ने खुद में छुपा रखी है, 
उसके सामने नदी बह रही है, 
और खारा समुंदर भी, 
पानी से भरा है, 
तूँ बेवजह, 
जल रहा है, 
एक कतरा, 
बहुत है, 
तेरे, 
वजूद के लिए, 
वैसे भी तूँ क्या है? 
तमाशबीन है 
या
तमाशाई,
यह भी तुझे,
तय करना है.. 
©️rajhansraju
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पत्थरबाज

*******

अपनी बेगुनाही का इंतजाम, 
कुछ इस तरह करता है, 
पत्थर पर नाम, 
किसी और का लिखता है, 
अब वह दूर से, 
सौदे करता है, 
बारूद-चिंगारी, 
दोनों बेचता है, 
खरीदारों की कमी नहीं है, 
यह तो हिस्से की लड़ाई है, 
देखते हैं, 
कौन कितने में बिकता है, 
घरों के जलने से,
उसको वास्ता नहीं है, 
वह चुपचाप धंधा करता है, 
उसे अपनी शक्ल देखे, 
एक अर्सा हो गया, 
पत्थरों की आदत,
हो गई है, 
घर में उसके अब, 
कोई आइना,
सलामत नहीं रहता है, 
वह रोता बड़ी खूबी से है, 
सुना है मातम भी, 
बाजार में बिकता है, 
उसकी कद्रदानों में, 
खूब चर्चा है, 
ऐसे ही कारोबार, 
कयी गुना बढ़ गया है, 
पत्थर की मांग बढ़ रही है, 
हर रंग और आकार के, 
पत्थर चाहिए, 
हुनरमंद कारीगर की कमी, 
अखरती है, 
इन पर नाम लिखने वाले, 
बड़ी मुश्किल से, 
मिलते हैं...
©️rajhansraju
***********************

Child Soldiers 

*************'
लड़ रहा हूँ मै यहाँ, 
न जाने किसके लिए,
किससे बदला लूँ? 
किसका कत्ल करूँ? 
मेरे गाँव से शहर तक, 
एक ही मंजर है,
मेरे लिए कोई जगह नहीं है,
वो कहते हैं, 
तुझे लड़ना होगा,
 तेरे लोग खतरे में हैं,
तूँ हमारा है, 
हमारे साथ चल, 
तुझे सब मिलेगा,
बस ए वाला हथियार, 
अपने साथ रख,
मैंने पूँछा? 
मेरा घर कहाँ है?
उसने आँखे लाल की,
एक झंडा‌ दिया
फिर नारा दिया,
क्या ए काफी नहीं है?
तेरे लिए,
घर की बात, 
कायर करते हैं,
हम तो आग हैं,
जलते हैं, जलाते हैं,
 अब मैं समझा,
मेरा घर क्यों जला,
वहाँ पहले से ही कोई मौजूद था,
जिसमें यही आग भरी थी,
न जाने कब से, 
वह जल रहा था,
जिसकी चिंगारी से, 
मेरा घर राख हुआ,
सारी बात ड़र कर सुनता रहा,
वह खतरों की चर्चा करता रहा,
उसकी शक्ल, 
उसकी बात,
मुझे डराती रही,
फिर ज़ोर-ज़ोर नारे लगे,
और मै खो गया,
मेरा घर, मेरे लोग, 
अब न जाने कहाँ हैं? 
मैं.. 
अब खुद से डरता हूँ,
ज़ोर-ज़ोर चिल्लाता हूँ, 
पर! क्या करूँ? 
अब रो नहीं सकता,
जो मारती, डाटती, नाराज़ होती,
वह पता नहीं कैसी होगी?
मैं नहीं कहूँगा,
"माँ" 
तुम्हारी याद आती है,
और "मैं" 
अब भी उतना ही डरता हूँ,
सच में मुझे पता नहीं,
किससे?  
क्यों लड़ रहा हूँ?
सामने खून बहता है, 
धमाके होते हैं,
न कुछ देखता हूँ, 
न सुनता हूँ,
चीखता हूँ.... 
न जाने किस पर?
ढूँ‌ढता हूँ, 
न जाने किसको?
मैं कौन हूँ, क्या हूँ, 
क्या कहूँ?
मै खुद से दूर, 
अज़नबी हो गया हूँ,
कौन सी गली, 
किस सड़क पर हूँ, 
फर्क नहीं पड़ता,
मुड़ के इन रास्तों को, 
हाँ देखता हूँ? 
मुझे मालूम है, 
मेरी कोई वापसी नहीं है,
कोई घर नहीं है, 
जहाँ लौट कर,
जाना हो? 
अब कोई पता नहीं है,
वह नाम?? 
जो घर वालों ने दिया था,
 उसे भूले एक अरसा हो गया। 
हाँ! 
मै ड़रता हूँ, 
जीने की न जाने क्यों?
चाहत अब भी रखता हूँ,
कोई उम्मीद, 
शायद! अब भी बची है,
तभी धमाका होता है,
कई दिनों से हम साथ थे,
नाम की जरूरत नहीं पडी,
मै इस बार बच गया,
मै चीखता हुआ.. 
आगे बढ़ा‌,
सबने समझा.. 
 मै बहुत बहादुर हूँ,
जबकि.. 
उस धमाके के बाद जो हुआ,
उसे देखने की हिम्मत नहीं थी,
मैं बिना आँसू रो रहा था,
मेरे मुँह से नारे निकल रहे थे,
जिसके सिवा.. 
बहुत दिनों से,
और कुछ बोला नहीं था,
मै लड़ता रहा, 
न जाने किसके लिए?
हाथ में बंदूक थामे बढ़ रहा हूँ,
छोड़के सबकुछ,
 न जाने कहाँ,चल रहा हूँ,
खून बहता है मेरा, 
रोज़ मरता हूँ, 
यहाँ,
न जाने किसके लिए?
आज़ रहनुमाओं ने फैसला किया है,
 बागियों की अब, 
उन्हें, 
जरूरत नहीं है,
नयी फौज़ बनेगी,
नए हथियार आएंगे,
अब नारा दूसरा है, 
यही तो खेल है,
प्यादों को तो मरना है,
यूँ  ही सत्ता, 
ताकत का व्यापार होगा,
जो सबसे कमज़ोर है,
पहला शिकार वही होगा...
©️rajhansraju 
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Comments

  1. कहते हैं कब्र में सुकून की नींद आती है
    अब मजे की बात ए है की ए बात भी
    जिंदा लोगों ने काही है

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