Patang। kite fly without feathers
पतंग
पतंग डोर से कट के,
दूर चली जाती है,
दूर चली जाती है,
उसे लगता है,
वह आसमान की ऊँचाइयाँ,
छू लेगी.
छू लेगी.
हवा के झोंके,
दूर-दूर ले जाते हैं,
दूर-दूर ले जाते हैं,
कहाँ फसेगी,
कहाँ गिरेगी,
कहाँ गिरेगी,
कोई भरोसा नहीं होता.
हवाओं का रुख,
हमेशा एक सा नहीं होता,
बिना डोर पतंग,
कहीं भी गिर सकती है.
कहीं भी गिर सकती है.
जब तक डोर ने थामा है,
हवा के सामने डटी,
खूब ऊपर उठी है.
खूब ऊपर उठी है.
डोर ने उसे आसमान की,
छत पर बिठाया,
छत पर बिठाया,
पतंग ने ऊपर से दुनिया देखी,
सब छोटा और खोटा नज़र आया,
डोर की पकड़ का एहसास,
कम हो गया,
कम हो गया,
और ऊपर उठने,
दूर जाने कि कोशिश में,
दूर जाने कि कोशिश में,
डोर छूट गयी.
पतंग अकेली,
आसमान की हो गयी.
आसमान की हो गयी.
हवाओं के साथ खेलती,
उड़ती रही,
उड़ती रही,
कुछ देर में ही,
हवाओं ने रुख बदल लिया,
हवाओं ने रुख बदल लिया,
पतंग को डोर कि याद,
आने लगी,
आने लगी,
अब वापसी का,
कोई तरीका नहीं था.
कोई तरीका नहीं था.
काफी देर तन्हा भटकती रही,
आखिर थक गयी,
किसी अनजानी जगह,
बैठ गयी,
बैठ गयी,
डोर का इंतजार करने लगी ..
#rajhansraju
#rajhansraju
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(2)
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(2)
बेटियाँ
जब एक आता है ,
दूसरा चला जाता है .
यादें ही बची रह जाती है ,
एक मौसम में दूसरे की .
बेटियाँ कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं ,
बीते मौसम की तरह यादों में रह जाती है ,
वक्त के साथ चल देती हैं ,
सब कुछ स्वीकार कर लेती हैं .
वह भी इतनी सहज ,
जैसे कुछ बदला ही नहीं .
ऐसे ही हरदम ,
किसी अनजाने घर में ,
प्यार से ,
एक परिवार बनाती है,
RAJHANS RAJU
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(3)
©️rajhansraju
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(4)
स्त्रीमैं वसुधा,
RAJHANS RAJU
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(3)
पता?
वक्त ही जाने
कहाँ, कैसे, कब,
क्या हो जाता है,
ए भी हुआ कि
अब उन्हें,
यहाँ का पता याद नहीं,
विदा हो चुकी बेटी ने,
जब पिता से उसका पता पूँछा,
उसे किसी कार्यक्रम की पाती भेजनी थी,
सवाल तो सही था
पर! क्या जवाब देता,
जहाँ जन्म लिया,
वो उसका नहीं था,
फिर वह कैसे याद रखती,
उन बेगानी चीजों को,
पिता ने खुद को समझाया,
अब बिटिया सयानी हो गयी,
अपने घर में रच बस गयी है,
अपनी जिम्मेदारियाँ समझने लगी,
तभी तो यहाँ का पता...
भूल गयी...©️rajhansraju
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(4)
स्त्रीमैं वसुधा,
मैं ही नारी,
रचना मैं करती हूँ,
सबको सींचा करती हूँ,
सृजन मेरी पहचान,
नवीनता का मैं आधार,
धर्म-जाति से हीन,
परंपरा, धर्म,
मुझ तक ही सीमित,
मुझ तक ही सीमित,
कैसे रहना,
कैसे दिखना ही संस्कृति,
कैसे दिखना ही संस्कृति,
हर धर्म ने मुझको मारा है,
हर जाति ने मुझको तोड़ा है,
कुछ भी नाम दिया हो,
कोई भी काल रहा हो,
कोई भी काल रहा हो,
तब भी मैं ऐसे ही रही,
सबसे यूँ ही जुड़ती रही,
सबसे यूँ ही जुड़ती रही,
ममता लिए खड़ी रही,
बच्चों के बनाए नियम से बंधती रही,
नारी जागरण का ज़माना आया,
कदम से कदम मिलाकर चलना है,
ऐसे नहीं ऐसे रहना है,
आगे बढ़ाना,
आगे रहना,
आगे रहना,
यही आज का कदम ताल है,
भला कोई कब तक आगे रह सकता है,
जब पाने को पूरा आसमान है,
फिर भी,
नए नियम का बोझ,
नए नियम का बोझ,
मुझे ही सहना है,
मैंने भी सोचा !
मैं भी बदलूंगी,
दुनिया के साथ चलुंगी.
दुनिया के साथ चलुंगी.
मेरा भी आकाश है,
मेरे पंख बेक़रार हैं,
धरती मुझे बुला रही,
धरती मुझे बुला रही,
समुन्दर में बहना है,
रेत पर चलना है,
मुझे भी उड़ना है,
मुझे भी उड़ना है,
लोगों ने कहा
"अभी दुनिया देखी कहाँ ?"
मैंने कहा..
"यह तो बस शुरुआत है "
Rajhans Raju
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(5)
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➡️(2)Thakan
तक जिंदा है तभी तक जिंदगी है
थकन की तुझको इजाजत नहीं है
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(3)
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(33) (38) (44) (50)
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Rajhans Raju
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(5)
नाम
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पुरोहित ने कहा-
माताजी से गऊदान करादें जजमान,
इस उम्र में गंगा स्नान के बाद यह जरूरी है,
हो सकता है अब आना न हो पाए,
माताजी की उम्र काफी हो गई है,
पुत्र ने सोचा-विचारा,
पत्नी की तरफ देखा,
सहमति ही थी,
माताजी को कुश की पाँती थमाई,
पुरोहित ने न समझ आने वाले मन्त्र पढ़े,
माताजी से खुद का नाम लेने को कहा,
वह सोचने लगी!
विवाह के बाद तो किसी ने,
नाम से बुलाया ही नहीं,
नाम से बुलाया ही नहीं,
अचानक नाम की जरूरत कहाँ से आ पड़ी?
बड़ी मुश्किल से अपना नाम लिया,
जैसे किसी भूली चीज़ को याद किया।
पुरोहित फिर बुदबुदाया,
गोत्र का नाम लेने को कहा,
यह याद करना तो और कठिन था,
जिस घर में जन्म लिया,
जहाँ बेटी बहन थी,
वहां से तो अब सम्बन्ध ही न रहा,
फिर पत्नी, माँ बनी,
सारे पहचान रिश्तों से ही थे,
खुद तो कुछ थी ही नहीं,
वह सोचती रही,
स्त्री का नाम, गोत्र ?
होता है क्या ?
©️rajhansraju
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ऐसे ही खुद को कहने का नाम साहित्य है
ReplyDeleteकहते हैं कब्र में सुकून की नींद आती है
ReplyDeleteअब मजे की बात ए है की ए बात भी
जिंदा लोगों ने काही है
औरत ने जनम दिया मर्दों को,
ReplyDeleteमर्दों ने उसे बाजार दिया ,
जब जी चाहा मचला कुचला ,
जब जी चाहा दुत्कार दिया,
©️साहिर लुधियानवी