an atheist। Hindi Poem on Atheism। Kafir
इच्छाधारी
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इच्छाधारी नाग-नागिन की कहानियाँ,
तो हम सबने सुनी है,
जिसमें वो कोई भी रूप धारण कर लेते,
बचपन!
अगर गाँव में बीता हो तो,
सिनेमा वाला दृश्य,
हर जगह मौजूद होता है,
बस कल्पना को,
डर वाली कहानियों के रंग से भरना है,
ऐसे ही साँप से डरने पूजने,
और मौका मिलते ही,
मार देने का,
अजब व्यवहार करते रहे,
इसमें किसी के लिए कुछ भी गलत नहीं,
हर आदमी,
अपनी आस्था और कहानी गढ़ता है,
अपनी आस्था और कहानी गढ़ता है,
पर साँप का जहर?
बड़ा अजीब है,
जो उसकी पहचान है
इंसान उसी से डरता है,
इसी डर से,
तमाम विषहीन साँपो,
की जान खतरे में पड़ जाती है,
क्यों कि हमको पता नहीं चलता,
किसमे जहर नहीं है,
अक्सर इस अफरा तफरी में,
बिना जहर वालों की जान चली जाती है,
उनका सांप होना,
उनके लिए सजा बन जाती है।
खैर! अब तो शहर का जमाना है
पर साँप के होने पर संदेह नहीं करना,
आस-पास हमारे,
अब सिर्फ,
इच्छाधारी रहते हैं,
जो हर वक्त रंग बदलते हैं,
हमारे ही आस्तीनों में रहते हैं,
जो खुद बीन बजाता है,
दूध पूरा पी जाता है।
उन सीधे साधे साँपो को,
नाहक बदनाम करता है,
जो बिना कान का,
जिसमें विष भी नहीं है,
सारा इल्जाम उस पर लग जाता है,
जबकी उस तक बीन की आवाज,
जाती नहीं है,
ऐसे में वो किसी धुन पर नाच रहा,
पूरा सच नहीं है,
जरा गौर से देखो?
बीन से कैसे?
डर-डर कर फन हिलाता हैं।
इच्छाधारी वहीं बैठा,
अपनी धुन बजवाता है
मदारी, बीन, साँप और दर्शक,
सबको नाच, नचाता है।
उसका जहर धीरे-धीरे
सब में भर जाता है।
किसमे, किसका, कितना है नशा,
पता नहीं चलता,
कौन कितना जिंदा, मुर्दा है?
अब ए दावा भी,
झूँठा है,
सब उसकी बीन पर चलते,
सम्मोहित हैं इतना,
आँख खुले तो कुछ देखें,
बस?
हाँ! हाँ! कहते रहना,
खुश होने का दावा करते,
जबकि उससे डरते हैं,
जहर की ताकत मालुम है,
मरने से सब डरते है।
यूँ ही नहीं,
जाने अनजाने ही,
हाथ में,
अब भी,सबके
दूध का प्याला रखा हैं।
©️rajhansraju
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काफिर
(33) (38) (44) (50)
©️rajhansraju
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काफिर
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अगर वह सिर्फ तेरा है,
तो मुझको ए बता,
मेरा वाला कौन है,
तुम्हीं तो कहते हो,
सब उसकी मर्ज़ी है,
पत्तों के हिलने में भी,
उसकी रजा रहती है,
पत्तों के हिलने में भी,
उसकी रजा रहती है,
फिर मेरा होना,
तुमको क्यों खटकता है,
हाँ मैं काफिर हूँ,
तुम्हारे सजदे नहीं करता,
पर दोस्त तुम्हें पता है,
मैं कागज पर,
लकीरें खींचता हूँ,
उनमें खूबसूरत रंग भरता हूँ,
मैं कागज पर,
लकीरें खींचता हूँ,
उनमें खूबसूरत रंग भरता हूँ,
जानते हो मेरी कोई तस्वीर,
बंदूक से नहीं बनती,
उसका रंग लाल नहीं है..
जिसे तुम अपना रंग,
कहते फिरते हो,
जो सड़कों पर,
बहता-रिसता नजर आता है,
और तमाम तश्वीरों पर,
तुम इस रंग के छीटें,
बिखेरते रहते हो,
लाल आँखें, लाल तश्वीरें देखकर,
और लाल हो जाती हैं,
तुम अपनी जीत का,
जश्न मनाने लग जाते हो,
पर यह हंसी
बहुत देर तक ठहरती नहीं,
तुम्हारा ए लाल रंग,
जिससे बना है,
वह जब तक रगों में बहता है,
तभी तक वह सड़ता नहीं है,
कैनवास पर यह रंग
सूखकर अपने रंग में,
रहता नहीं है,
किसी को भी ए दाग वाले छीटें,
भाते नहीं है,
तुम रंगों की लड़ाई,
इस लाल रंग से जीत नहीं सकते,
तुम्हारे पास,
कागज-कलम भी नहीं है,
जबकि यह जंग,
जेहन की है,
उसे देखो वह अब भी,
हाथ में ब्रश लिए,
कैनवास को बेहतरीन,
रंगों से भर रहा है,
जिसे तुम अपना रंग,
कहते फिरते हो,
जो सड़कों पर,
बहता-रिसता नजर आता है,
और तमाम तश्वीरों पर,
तुम इस रंग के छीटें,
बिखेरते रहते हो,
लाल आँखें, लाल तश्वीरें देखकर,
और लाल हो जाती हैं,
तुम अपनी जीत का,
जश्न मनाने लग जाते हो,
पर यह हंसी
बहुत देर तक ठहरती नहीं,
तुम्हारा ए लाल रंग,
जिससे बना है,
वह जब तक रगों में बहता है,
तभी तक वह सड़ता नहीं है,
कैनवास पर यह रंग
सूखकर अपने रंग में,
रहता नहीं है,
किसी को भी ए दाग वाले छीटें,
भाते नहीं है,
तुम रंगों की लड़ाई,
इस लाल रंग से जीत नहीं सकते,
तुम्हारे पास,
कागज-कलम भी नहीं है,
जबकि यह जंग,
जेहन की है,
उसे देखो वह अब भी,
हाथ में ब्रश लिए,
कैनवास को बेहतरीन,
रंगों से भर रहा है,
©️rajhansraju
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वो कौन है?
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वो कौन है?
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उसके मरने से पहले,
ए तसल्ली जरूरी थी,
मरने वाले का मजहब क्या है?
क्यों कि तमाम लोग आज भी,
इंसानियत पर भरोसा करते हैं,
कभी-कभी ऐसे लोगों की,
शक्ल, पोशाक और नाम,
मजहबी खाँचो से मैच नहीं करती।
ऐसे में हत्यारों को बड़ी दिक्कत होती है,
मरने वाला कहीं,
अपनी मजहब का न हो?
फिर जो इनसे पिट रहा,
वह भी,
बड़ा ही जिद्दी है,
वह किस जाति का है,
इसके बारे में कुछ नहीं कह रहा।
इस दरमियान भी,
वह लोगों पर हँस रहा,
वैसे कहता भी क्या?
राम, बुद्ध, ईसा और मूसा,
जब सब वही है,
तब अपना मजहब,
किसको क्या बताए?
ऐसे में यूँ ही चुपचाप,
मर जाना ही सही है।
वैसे भी बंदो को ए पता नहीं है,
उनके हाथों किसका कत्ल हो रहा?
खंजर पर जो लहू लगा है,
किसके बदन से रिस रहा?
जबकि,
सामने कोई और नहीं है,
शक्ल से धोखा खा गया,
गौर से देख तड़प तेरी है,
आँसू और आह में क्या फर्क है?
अब तेरी आँख बंद क्यों है?
खुद को देखना अच्छा नहीं लगता?
क्या अब भी तुझको पता नहीं है,
धीरे-धीरे जो मर रहा है,
वो तूँ है,
कोई और नहीं है।
©️rajhansraju
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मैं और तूँ
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ए जिंदगी बड़ी अजीब है,
जैसे हादसों के सिवा,
कुछ है ही नहीं,
मैं क्या हूँ?
अब तक,
खुद को साबित नहीं कर पाया हूँ,
जो गलतियां मैंने की,
उसकी तो छोड़,
जो नहीं की,
उसकी भी सजा पायी है
अब तुझ पर भी,
यकीन करने का मन नहीं करता,
तूँ भी न जाने कैसे कैसों,
कि सुन लेता है,
न जाने मेरी आवाज
क्यों तुझ तक,
पहुँच नहीं पाती है,
काश कोई तरीका होता
जिससे कि पता चल जाता,
कौन-सी मंजिल,
किस रास्ते किसे जाना है?
बेवजह दिन-रात के सफर,
का फायदा क्या है?
और मैं यूँ ही भटकता रहूँ,
तो फिर तेरे होने का
मेरे लिए मतलब क्या है?
तूँ अपनी जिद से,
पत्थर का बन गया है,
शायद इसलिए,
मेरी मिन्नतें सुनता नहीं है,
खैर बहुत हो चुका,
मुझे भी तो,
तूने ही गढ़ा है,
और वो जिद वाली बात,
मुझमें भी कम नहीं है,
बस एक और ठोकर लगी है,
और तूँ भी जानता है,
मैने चलना छोड़ा नहीं है,
बस थोड़ी सी धूल झाडनी है,
और चल पड़ना है
उस अनजाने सफर पर
जहाँ न जाने कौन सा रास्ता
किस मंजिल तक ले जाएगा।
©️Rajhansraju
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मैं और तूँ
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ए जिंदगी बड़ी अजीब है,
जैसे हादसों के सिवा,
कुछ है ही नहीं,
मैं क्या हूँ?
अब तक,
खुद को साबित नहीं कर पाया हूँ,
जो गलतियां मैंने की,
उसकी तो छोड़,
जो नहीं की,
उसकी भी सजा पायी है
अब तुझ पर भी,
यकीन करने का मन नहीं करता,
तूँ भी न जाने कैसे कैसों,
कि सुन लेता है,
न जाने मेरी आवाज
क्यों तुझ तक,
पहुँच नहीं पाती है,
काश कोई तरीका होता
जिससे कि पता चल जाता,
कौन-सी मंजिल,
किस रास्ते किसे जाना है?
बेवजह दिन-रात के सफर,
का फायदा क्या है?
और मैं यूँ ही भटकता रहूँ,
तो फिर तेरे होने का
मेरे लिए मतलब क्या है?
तूँ अपनी जिद से,
पत्थर का बन गया है,
शायद इसलिए,
मेरी मिन्नतें सुनता नहीं है,
खैर बहुत हो चुका,
मुझे भी तो,
तूने ही गढ़ा है,
और वो जिद वाली बात,
मुझमें भी कम नहीं है,
बस एक और ठोकर लगी है,
और तूँ भी जानता है,
मैने चलना छोड़ा नहीं है,
बस थोड़ी सी धूल झाडनी है,
और चल पड़ना है
उस अनजाने सफर पर
जहाँ न जाने कौन सा रास्ता
किस मंजिल तक ले जाएगा।
©️Rajhansraju
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वो टूटता, गिरता, दरकता,
जमींदोज होता रहता है,
सच कहूँ...??
ए बात अपनी ही है,
इन्सान को पत्थर बनते देखा है,
जो न औरों की सुनता है,
न देखता, समझता है,
आँख पर मोटी सी पट्टी है,
वह खुद से आगे,
नहीं कुछ देखता है।
खैर,..!!
फर्क क्या पड़ता है
मेरे मानने या न मानने से,
मेरे लिए काफी है,
वजूद..
जब तक
मेरा, मेरे लिए है।
तूँ कौन है?
इसकी फिक्र भला
मै क्यों करूँ?
मै ढूंढ लूँ खुद को,
काफी है मेरे लिए।
वो तुझको कैसे,
मानते हैं,
उनकी मर्जी है,
पत्थरों और प्रतीकों को,
अपना आराध्य समझते रहें,
उनको खुदा मिलता है,
तो मिल जाए,
मै ऐसे ही बे-खुदा,
इस जहान में फिरता रहूँ,
और खुदा वालों को
अपने होने का
यकीन दिलाता रहूँ,
ए काफिर...
इसी बस्ती में रहता है
वो शख्स जो सच कहता है,
तेरे आइने में भी,
वही रहता है।
मैं वक्त हूँ,
अपनी चाल चलता हूँ
हर पल की एक दास्तां है,
जो उस पल ही मुझे बांधता है,
पर फितरत ही कुछ ऐसी ही,
क्या करूँ वक्त हूँ,
किसी एक जगह कहाँ ठहरता हूँ,
उस लम्हे को वहीं छोड़कर,
आगे और आगे बढ़ जाता हूँ
©️Rajhansraju
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पत्थर ही पत्थर
तेरे मेरे का फर्क कैसे करूँ,वो टूटता, गिरता, दरकता,
जमींदोज होता रहता है,
सच कहूँ...??
ए बात अपनी ही है,
इन्सान को पत्थर बनते देखा है,
जो न औरों की सुनता है,
न देखता, समझता है,
आँख पर मोटी सी पट्टी है,
वह खुद से आगे,
नहीं कुछ देखता है।
खैर,..!!
फर्क क्या पड़ता है
मेरे मानने या न मानने से,
मेरे लिए काफी है,
वजूद..
जब तक
मेरा, मेरे लिए है।
तूँ कौन है?
इसकी फिक्र भला
मै क्यों करूँ?
मै ढूंढ लूँ खुद को,
काफी है मेरे लिए।
वो तुझको कैसे,
मानते हैं,
उनकी मर्जी है,
पत्थरों और प्रतीकों को,
अपना आराध्य समझते रहें,
उनको खुदा मिलता है,
तो मिल जाए,
मै ऐसे ही बे-खुदा,
इस जहान में फिरता रहूँ,
और खुदा वालों को
अपने होने का
यकीन दिलाता रहूँ,
ए काफिर...
इसी बस्ती में रहता है
वो शख्स जो सच कहता है,
तेरे आइने में भी,
वही रहता है।
मैं वक्त हूँ,
अपनी चाल चलता हूँ
हर पल की एक दास्तां है,
जो उस पल ही मुझे बांधता है,
पर फितरत ही कुछ ऐसी ही,
क्या करूँ वक्त हूँ,
किसी एक जगह कहाँ ठहरता हूँ,
उस लम्हे को वहीं छोड़कर,
आगे और आगे बढ़ जाता हूँ
©️Rajhansraju
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Jeewan ka yatgarth
ReplyDeleteSahi hai
ReplyDeleteसावल अब भी है कि तूँ है कि नहीं है
ReplyDeleteमैं जितना कहता हूँ तूँ नहीं है
तेरे होने पर उतना ही
यकीन होता जाता है