दरवाज़ा | The Door : किवाड़
"मैं हूँ न"
********** ******
दरवाज़ा दीवार पर,
इस तरह अटका है,
जैसे बेमन अनमने से,
कोई कहीं पर,
न जाने कब से,
ठहरा हुआ है,
अब वह इतने सलीके से,
खुलता-बंद होता है,
उसके होने का,
किसी को,
पता नहीं चलता है,
एकदम बेजुबान लगता है,
जबकि वह तो,
बहुत आवाज करता था,
कौन यहाँ से आया गया,
पूरे घर से कहता था।
इस बात की हर तरफ चर्चा हैं,
फलाने के घर का,
दरवाजा बदल गया है,
वह भी औरों की तरह हो गया है,
दरवाजा दीवार में खोता जा रहा है,
अब किसी को,
दस्तक देने की जरूरत नहीं होती,
आने जाने वालों की,
कोई पैमाइश नहीं होती,
जिसकी मर्जी,
जब हो आए-जाए,
उसका होना,
होने जैसा नहीं है,
आहिस्ता-आहिस्ता दरवाजा,
कुछ और बन गया है।
तमाम दीवारों से एक मकान,
बन तो जाता है,
पर घर बनाने के लिए,
उसमें दरवाजा,
और कुंडी लगाना पड़ता है,
जब कभी कोई आहट,
या दस्तक होती है,
तभी कुंडी चटखने की,
आवाज आती है,
वहीं चौखट से कोई देख लेता है,
आसपास क्या, कैसा है?
समझ लेता है,
इत्मीनान होते ही,
दरवाजे की कुंडी चढ़ा देता है,
यह कुंडी और दरवाजा,
किसी सुकून का नाम है,
ऐसा लगता है,
कोई बड़ी जिम्मेदारी से,
पूरे घर की,
पहरेदारी कर रहा है,
फिक्र मत करो,
आराम से सो जाओ
मैं तुम्हारी चौखट पर
निगहबानी के लिए ही खड़ा हूँ
©️Rajhansraju
*********************
(2)
दरवाज़ा बारिश में भीगा
फूल गया है
कभी पेड़ था, हम समझे थे
भूल गया है
अब न चौखटे में अपने
फ़िट बैठ रहा है
कितनी कीलें ठुकी हुईं
पर ऐंठ रहा है
बारिश छूने ज्यों कुछ बाहर
झूल गया है
कभी पेड़ था, हम समझे थे
भूल गया है
~ नरेश सक्सेना
*********
(3)
एक दृष्टिकोण यह भी
(रचनाकार का नाम तो नहीं मालूम है
जिसके लिये क्षमा चाहता हूँ,
इस लेखन में किवाड़ को लेकर
जिस दर्शन का विमर्श है वह बेहतरीन है)
"किवाड़"
क्या आपको पता है ?
कि किवाड़ की
जो जोड़ी होती है,
उसका
एक पल्ला पुरुष
और,
दूसरा पल्ला
स्त्री होती है।
ये घर की चौखट से
जुड़े - जड़े रहते हैं।
हर आगत के स्वागत में
खड़े रहते हैं।।
खुद को ये घर का
सदस्य मानते हैं।
भीतर बाहर के हर
रहस्य जानते हैं।।
एक रात
उनके बीच था संवाद।
चोरों को
लाख - लाख धन्यवाद।।
वर्ना घर के लोग हमारी ,
एक भी चलने नहीं देते।
हम रात को आपस में
मिल तो जाते हैं,
हमें ये मिलने भी नहीं देते।।
घर की चौखट से साथ
हम जुड़े हैं,
अगर जुड़े जड़े नहीं होते।
तो किसी दिन
तेज आंधी -तूफान आता,
तो तुम कहीं पड़ी होतीं,
हम कहीं और पड़े होते।।
चौखट से जो भी
एक बार उखड़ा है।
वो वापस कभी भी
नहीं जुड़ा है।।
इस घर में यह
जो झरोखे ,
और खिड़कियाँ हैं।
यह सब हमारे लड़के,
और लड़कियाँ हैं।।
तब ही तो, इन्हें बिल्कुल
खुला छोड़ देते हैं।
पूरे घर में जीवन
रचा बसा रहे,
इसलिये ये आती जाती
हवा को,
खेल ही खेल में ,
घर की तरफ मोड़ देते हैं।।
हम घर की
सच्चाई छिपाते हैं।
घर की शोभा को बढ़ाते हैं।।
रहे भले
कुछ भी खास नहीं ,
पर उससे
ज्यादा बतलाते हैं।
इसीलिये घर में जब भी,
कोई शुभ काम होता है।
सब से पहले हमीं को,
रँगवाते पुतवाते हैं।।
पहले नहीं थी,
डोर बेल बजाने की प्रवृति।
हमने जीवित रखा था
जीवन मूल्य, संस्कार
और
अपनी संस्कृति।।
बड़े बाबू जी
जब भी आते थे,
कुछ अलग सी
साँकल बजाते थे।
आ गये हैं बाबूजी,
सब के सब घर के
जान जाते थे ।।
बहुयें अपने हाथ का,
हर काम छोड़ देती थी।
उनके आने की आहट पा,
आदर में
घूँघट ओढ़ लेती थी।।
अब तो कॉलोनी के
किसी भी घर में,
किवाड़ रहे ही नहीं
दो पल्ले के।
घर नहीं अब फ्लैट हैं ,
गेट हैं इक पल्ले के।।
खुलते हैं सिर्फ
एक झटके से।
पूरा घर दिखता
बेखटके से।।
दो पल्ले के किवाड़ में,
एक पल्ले की आड़ में ,
घर की बेटी या नव वधु,
किसी भी आगन्तुक को ,
जो वो पूछता
बता देती थीं।
अपना चेहरा व शरीर
छिपा लेती थीं।।
अब तो धड़ल्ले से
खुलता है ,
एक पल्ले का किवाड़।
न कोई पर्दा न कोई आड़।।
गंदी नजर ,बुरी नीयत,
बुरे संस्कार,
सब एक साथ
भीतर आते हैं ।
फिर कभी
बाहर नहीं जाते हैं।।
कितना बड़ा
आ गया है बदलाव?
अच्छे भाव का अभाव।
स्पष्ट दिखता है कुप्रभाव।।
सब हुआ चुपचाप,
बिन किसी हल्ले गुल्ले के।
बदल लिये किवाड़,
हर घर के मुहल्ले के।।
अब घरों में
दो पल्ले के , किवाड़
कोई नहीं लगवाता।
एक पल्ली ही अब,
हर घर की
शोभा है बढ़ाता।।
अपनों में ही नहीं
रहा वो अपनापन।
एकाकी सोच
हर एक की है ,
एकाकी मन है
व स्वार्थी जन।।
अपने आप में हर कोई ,
रहना चाहता है मस्त,
बिल्कुल ही इकलल्ला।
इसलिये ही हर घर के
किवाड़ में,
दिखता है सिर्फ़
एक ही पल्ला!!
*************
(4)
*****
फ़ैज़ की एक भारत विरोधी नज़्म भी पढ़ ही लें।
इस नज़्म पर एक और मुक़दमा बनता है
जिस देस से माओं बहनों को
अग़यार उठाकर ले जाएं
जिस देस के क़ातिल ग़ुंडों को
अशराफ़ छुड़ाकर ले जाएं
जिस देस की कोर्ट कचहरी में
इंसाफ़ टकों में बिकता हो
जिस देस का मुंशी, क़ाज़ी भी
मुजरिम से पूछ के लिखता हो
जिस देस के चप्पे चप्पे पर
पुलिस के नाके होते हों
जिस देस के मंदिर मस्जिद में
हर रोज़ धमाके होते हों
जिस देस में जान के रखवाले
ख़ुद जानें लें मासूमों की
जिस देस में हाकिम ज़ालिम हों
सिस्की ना सुनें मजबूरों की
जिस देस के आदिल बहरे हों
आहें न सुनें मासूमों की
जिस देस के गलियों कूचों में
हर सिम्त फ़हाशी फैली हो
जिस देस में बिन्ते हव्वा की
चादर भी दाग़ से मैली हो
जिस देस में आटा चीनी का
बोहरान फ़लक तक जा पहुंचे
जिस देस में बिजली पानी का
फ़ुक़दान हलक़ तक जा पहुंचे
जिस देस में हर चौराहे पर
दो चार भिकारी फिरते हों
जिस देस में रोज़ जहाज़ों से
इमदादी थैले गिरते हों
जिस देस में ग़ुरबत माओं से
बच्चे नीलाम कराती हो
जिस देस में दौलत शुरफ़ा से
नाजायज़ काम कराती हो
जिस देस में औहदे दारों से
औहदे ना संभाले जाते हों
जिस देस में सादालोह इंसान
वादों पे ही टाले जाते हों
उस देस के हर इक लीडर पर
सवाल उठाना वाजिब है
उस देस के हर इक हाकिम को
सूली पर चढ़ाना वाजिब है!
[अग़्यार - अजनबी, अशराफ़ - ख़ानदानी लोग,
आदिल - न्यायप्रिय, फ़हाशी - अश्लीलता,
बिन्त ए हव्वा - हव्वा की बेटी, बोहरान - संकट,
फ़ुक़दान - अभाव, इमदाद - राहत,
शुरफ़ा - शरीफ़, सादालोह - सरल]
********
(5)
वो किसी को याद कर के मुस्कुराया था उधर
और मैं नादान ये समझा कि वो मेरा हुआ
~ इक़बाल अशहर
मुद्दतों बा'द उठाए थे पुराने काग
साथ तेरे मिरी तस्वीर निकल आई है
~ साबिर दत्त
आज मुझी पर खुल गया,
मेरे दिल का राज़,
आई है हँसते समय,
रोने की आवाज़
~ भगवान दास एजाज़
*********' '******
(6)
।। अदम गोंडवी।।
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है।
**********
(7)
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलाएँगे।
-अज्ञेय
************
(9)
**********
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
*मिर्ज़ा ग़ालिब*
************
(10)
******
भिकमंगे के लड़कों ने
अपने बाप से नाराज़ होकर
एक दिन कहा ,
हमें हमारा हक़ दो , लाओ !
भिकमंगे ने
अपना कासा थमा दिया , कहा ,
जाओ , माँगो , खाओ !!
~ हरिवंश राय बच्चन
*****************
(11)
*******
रोज़ के सहर ...में एक हुक्म, नया होता है
कुछ समझ में नहीं आता है, की क्या होता है ||
#मिर्ज़ा_ग़ालिब
कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर,
तोहमत तराशते हैं ....हवा के दबाव पर।
~एहसान दानिश
आप ने औरों से ...कहा सब कुछ,
हम से भी कुछ कभी कहीं कहते।
~गुलज़ार
******************
(12)
********
आज सवेरा लेकर आया,
भरा पूरा एक नया वर्ष,
दे दिया खामोशी से,
झोली भरके,
न जाने क्या उसने आज?
अपनी-अपनी गठरी,
सब धीरे-धीरे खोलेंगे,
किसके हाथ क्या आएगा?
ए आने वाला पल बतलाएगा,
कभी खुशियाँ हाथ लगेंगी,
या फिर आँख छलक जाएगी,
खूब अँधेरा होगा जब,
हम जुगनू बन जाएंगे,
ऐसे ही हम सब,
हाथ थाम कर एक दूजे का,
आगे बढ़ते जाएंगे
©️Rajhansraju
****************
🌹🌹🌹❤️❤️❤️❤️🙏🙏🙏🌹❤️❤️🌹🌹
**********************************************************
*********************************
my You Tube channels
**********************
👇👇👇
**************************
my Bloggs
************************
👇👇👇👇👇
*******************************************
**********************
➡️ (1) (2) (3) (4) (5) (6) (7) (8) (9)
🌹🌹🌹❤️❤️❤️❤️🙏🙏🙏🌹❤️❤️🌹🌹
वो जो कभी मिलता नहीं,
बस तलाश रहती है,
नाम उसका कुछ भी नहीं,
जिसकी आशा रहती है,
सफर दर सफर,
लोग कम होते रहे,
कुछ ने,
कुछ तो पाया,
चलो अच्छा हुआ,
कश्ती में सफर करने वाले,
अपने-अपने किनारे उतरते रहे,
वो भी क्या करते ?
जितना समझना था,
समझ लिया..
थक कर,
नदी को समुंदर
कहने लगे,
जबकि वो कुछ ही दूर था,
बेसब्र लहरें आवाज दे रही थी,
फासला चंद कदमों का था,
शायद!
वह नाव और नदी से,
थक गया था,
तभी किनारे पर,
नर्म घास दिखी,
बहुत दिनों से,
सोया नहीं था,
उसके सामने हरी वादियां थी,
अब नदी बेकार लगने लगी,
उसके होने का मतलब नहीं था,
अब यही हरे घास का मैदान
उसके लिए सारा जहाँ था।
सफर ऐसा ही है,
जिंदगी का,
सबने थककर,
कहीं न कहीं लंगर डाल दिया है,
जबकि नदी अब भी,
समुंदर को मीठा करने का,
खाब देखती है,
ए नाव भी बड़ी अजीब है,
जो पानी से बनी है,
जिसे बहने के सिवा,
कुछ आता ही नहीं है
©️Rajhansraju
वाह।
ReplyDeleteशुक्रिया
Deleteसच से तो हम सब वाकिफ हैं
ReplyDeleteमनमाफिक को चुन लेगा
बाकी का जाने क्या होगा