post mortem

 धरोहर
*********
(1)
मेरा पता
***********
आज मैंने, 
अपने घर का नंबर मिटाया है, 
और गली के माथे पर लगा, 
गली का नंबर हटाया, 
और हर सड़क की, 
दिशा का नाम पोंछ दिया है, 
पर! अगर आपको, 
मुझे जरूर पाना है, 
तो हर देश के, 
हर शहर की, 
हर गली का द्वार, 
खटखटाओ, 
यह शाप है, 
एक वर है, 
और जहां भी, 
आजाद रूह की झलक पड़े, 
समझना वह मेरा घर है, 
।। अमृता प्रीतम।। 
***************************
(2)
Postmortem 
गोली खाकर 
एक के मुंह से निकला-
"राम"
दूसरे के मुंह से निकला- 
"माओ"
लेकिन तीसरे के मुंह से निकला - 
"आलू"
पोस्टमार्टम कि रिपोर्ट है 
कि पहले दो के पेट 
भरे हुए थे. 
(सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)
*******************************

(3)
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए .........

।। दुष्यंत कुमार।। 
*********************************

(4))
।। काशी में शव।। 
"" श्रीकांत वर्मा"" 
तुमने देखी है काशी?
जहाँ, जिस रास्ते
जाता है शव -
उसी रास्ते
आता है शव!
शवों का क्या
शव आएँगे,
शव जाएँगे -
पूछो तो, किसका है यह शव?
रोहिताश्व का?
नहीं, नहीं,
हर शव रोहिताश्व नहीं हो सकता
जो होगा
दूर से पहचाना जाएगा
दूर से नहीं, तो
पास से -
और अगर पास से भी नहीं,
तो वह
रोहिताश्व नहीं हो सकता
और अगर हो भी तो
क्या फर्क पड़ेगा?
मित्रो,
तुमने तो देखी है काशी,
जहाँ, जिस रास्ते
जाता है शव
उसी रास्ते
आता है शव!
तुमने सिर्फ यही तो किया
रास्ता दिया
और पूछा -
किसका है यह शव?
जिस किसी का था,
और किसका नहीं था,
कोई फर्क पड़ा ?
*****************************

(5)

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़ 
🌷🌷🌷🌺🌺🌺🌼🌼🌼🌷🌷

चंद रोज़ और मेरी जान,
फ़क़त चंद ही रोज़
और कुछ देर सितम सह लें,
तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है,
माज़ूर हैं हम, 
जिस्म पर क़ैद है
जज़्बात पे ज़ंजीरें है
फ़िक्र महबूस है
गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि,
हम फिर भी जिए जाते हैं, 
ज़िंदगी क्या किसी,
मुफ़लिस की क़बा है
जिसमें हर घड़ी,
दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की,
मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि,
फ़रियाद के दिन थोड़े हैं
अर्सा-ए-दहर की,
झुलसी हुई वीरानी में, 
हमको रहना है,
पर यूँ ही तो नहीं रहना है, 
अजनबी हाथों के,
बे-नाम गराँबार सितम, 
आज सहना है,
हमेशा तो नहीं सहना है, 
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई,
आलाम की गर्द, 
अपनी दो रोज़ा जवानी की,
शिकस्तों का शुमार, 
चाँदनी रातों का,
बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प,
जिस्म की मायूस पुकार, 
चंद रोज़ और मेरी जान,
फ़क़त चंद ही रोज़, 
।। फैज़ अहमद फैज़।। 
***************************
(6)
हम देखेंगे,
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे,
वो दिन कि जिस का वादा है,
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है,
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ,
रूई की तरह उड़ जाएँगे,
हम महकूमों के पाँव-तले,
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी,
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर,
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी,
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से,
सब बुत उठवाए जाएँगे,
हम अहल-ए-सफ़ा,
मरदूद-ए-हरम,
मसनद पे बिठाए जाएँगे,
सब ताज उछाले जाएँगे,
सब तख़्त गिराए जाएँगे,
बस नाम रहेगा अल्लाह का,
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी,
जो मंज़र भी है नाज़िर भी,
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा,
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो,
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा,
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो,
।। फैज़ अहमद फैज़।।
******************************
(7)
   साल मुबारक
*****'**********
।। अमृता प्रीतम।।
##########

जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुछ ऐसे आया...
जैसे दिल के फिकरे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के कागज पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंठों से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमजात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...
जैसे इश्क की जबान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अँगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास-सा खत पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया...
***************************
(8)
।। अदम गोंडवी।।

वो जिसके हाथ में छाले हैं 
पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक,
 आपके बँगले में आई है
इधर एक दिन की,
 आमदनी का औसत है,
 चवन्‍नी का,
उधर लाखों में ,
गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के,
 जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्‍क इस माने में,
 बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है,
 ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के,
ये क़ीमत चुकाई है। 
**************************
(9)
रोटी
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है,
 न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
**********'
।।सुदामा पांडेय 'धूमिल"।।
*******************************
(१०)
काफ़िला तो चले

ख़ारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले

चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले

हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले

इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत बचा तो चले

बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी.

ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने,
इन मकानों को ख़बर है न, मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने.

हाथ ढलते गए साँचों में तो थकते कैसे,
नक़्श के बाद नए नक़्श निखारे हमने,
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द,
बाम-ओ-दर और ज़रा और निखारे हमने.

आँधियाँ तोड़ लिया करतीं थीं शामों की लौएँ,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए.

अपनी नस-नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन,
बन्द आँखों में इसी कस्र की तस्वीर लिए,
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है सियाह तीर लिए.

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी.

(कैफी आजमी) 

मकीनों - मकानों में रहने वाले | बाम-ओ-दर - छत और दरवाज़े | कस्र - महल |  शोरिश - हंगामा |

तामीर - रचना/ सृजन  | मेहनत-ए-पैहम - लगातार मेहनत | सियाह  - काला, अंधेरा
******************************
(११)
इब्ने-मरियम

तुम ख़ुदा हो
ख़ुदा के बेटे हो
या फ़क़त अम्न के पयंबर हो
या किसी का हसीं तख़य्युल हो
जो भी हो मुझ को अच्छे लगते हो
जो भी हो मुझ को सच्चे लगते हो.

इस सितारे में जिस में सदियों से
झूठ और किज़्ब का अंधेरा है
इस सितारे में जिस को हर रुख़ से
रंगती सरहदों ने घेरा है.

इस सितारे में, न जिस की आबादी
अम्न बोती है जंग काटती है.

रात पीती है नूर मुखड़ों का
सुबह सीनों का ख़ून चाटती है.

तुम न होते तो जाने क्या होता

तुम न होते तो इस सितारे में
देवता राक्षस ग़ुलाम इमाम
पारसा रिंद रहबर रहज़न
बिरहमन शैख़ पादरी भिक्षु
सभी होते मगर हमारे लिये
कौन चढ़ता ख़ुशी से सूली पर.

झोंपड़ों में घिरा ये वीराना
मछलियाँ दिन में सूखती हैं जहाँ
बिल्लियाँ दूर बैठी रहती हैं
और ख़ारिशज़दा से कुछ कुत्ते
लेटे रहते हैं बे-नियाज़ाना
दम मरोड़े के कोई सर कुचले
काटना क्या ये भौंकते भी नहीं.

और जब वो दहकता अंगारा
छन से सागर में डूब जाता है
तीरगी ओढ़ लेती है दुनिया
कश्तियाँ कुछ किनारे आती हैं
भांग गांजा चरस शराब अफ़ीम
जो भी लायें जहाँ से भी लायें
दौड़ते हैं इधर से कुछ साये
और सब कुछ उतार लाते हैं.

गाड़ी जाती है अदल की मीज़ान
जिस का हिस्सा उसी को मिलता है.

तुम यहाँ क्यों खड़े हो मुद्दत से

ये तुम्हारी थकी-थकी भेड़ें
रात जिन को ज़मीं के सीने पर
सुबह होते उँडेल देती
है
मंडियों दफ़्तरों मिलों की तरफ़

हाँक देती ढकेल देती है
रास्ते में ये रुक नहीं सकतीं
तोड़ के घुटने झुक नहीं सकतीं.
इन से तुम क्या तवक़्क़ो रखते हो
भेड़िया इन के साथ चलता है.

तकते रहते हो उस सड़क की तरफ़
दफ़्न जिस में कई कहानियाँ हैं
दफ़्न जिस में कई जवानियाँ हैं
जिस पे इक साथ भागी फिरती हैं
ख़ाली जेबें भी और तिजोरियाँ भी.

जाने किस का है इंतज़ार तुम्हें

मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूँ
जिस को कोड़ों की छाँव में दुनिया
बेचती भी ख़रीदती भी थी.

मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूँ
जिस को खेतों में ऐसे बाँधा था
जैसे मैं उन का एक हिस्सा था
खेत बिकते तो मैं भी बिकता था.

मुझ को देखो के मैं वही तो हूँ
कुछ मशीनें बनाई जब मैंने
उन मशीनों के मालिकों ने मुझे
बे-झिझक उनमें ऐसे झौंक दिया
जैसे मैं कुछ नहीं हूँ ईंधन हूँ.

मुझ को देखो के मैं थका हारा
फिर रहा हूँ युगों से आवारा.

तुम यहाँ से हटो तो आज की रात
सो रहूँ मैं इसी चबूतरे पर

तुम यहाँ से हटो ख़ुदा के लिये

जाओ वो विएतनाम के जंगल
उस के मस्लूब शहर जख़्मी गाँव
जिन को इंजील पढ़ने वालों ने
रौंद डाला है फूँक डाला है
जाने कब से पुकारते हैं तुम्हें.

जाओ इक बार फिर हमारे लिये
तुम को चढ़ना पड़ेगा सूली पर.
(कैफी आजमी) 

 इब्न - बेटा, मरियम का बेटा यानी ईसा मसीह | फ़क़त - सिर्फ़ | अम्न - शांति | पयंबर - अवतार |  तख़य्युल - सुंदर कल्पना | किज़्ब -  झूठ/ झूठा पारसा | पवित्र  | रिंद- शराबी| रहबर - रास्ता दिखाने वाला | रहज़न - लुटेरा | बे-नियाज़ाना - निस्पृह/ निश्चिंत | अदल -  न्याय | तवक़्क़ो -  उम्मीद  मस्लूब -  जिसे सूली पर चढ़ाया गया हो |
इंजील - बाइबिल 
*******************************


(12)

दुश्यंत कुमार

"साये में धूप"

***********

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,

वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ,

एक जंगल है तेरी आँखों में,

मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ,

तू किसी रेल-सी गुज़रती है,

मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ,

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,

मैं अगर रौशनी में आता हूँ,

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे,

और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ,

मैं तुझे भूलने की कोशिश में

आज कितने क़रीब पाता हूँ,

कौन ये फ़ासला निभाएगा

मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ,
*********
(१३)
गोपालदास नीरज
⬇️⬇️⬇️
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

******************************

(14)

*****
अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूँ ,
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ ।
इतनी महंगाई कि बाज़ार से कुछ लाता हूँ,
अपने बच्चों में उसे बांट के शरमाता हूँ ।
अपनी नींदों का लहू पोंछने की कोशिश में,
जागते जागते थक जाता हूँ सो जाता हूँ,
कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से 'ख़लील',
मैं कफ़न ओढ़ के फुटपाथ पे सो जाता हूँ ।
-ख़लील धनतेजवी
********
किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
~आलम ख़ुर्शीद


*********

हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे
~अहमद फ़राज़

*******

बस एक बार किसी ने गले लगाया था
फिर उस के बा'द न मैं था न मेरा साया था
#ज़फ़र_इक़बाल

*********

धड़कते साँस लेते रुकते चलते मैं ने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते मैं ने देखा है
-आलोक श्रीवास्तव

*************

बच्चे मेरी उँगली थामे धीरे धीरे चलते थे
फिर वो आगे दौड़ गए मैं तन्हा पीछे छूट गया
~ख़ालिद महमूद

***********

मुझ को थकने नहीं देता,
ये ज़रूरत का पहाड़,
मेरे बच्चे,
मुझे बूढ़ा नहीं होने देते।

जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं
तुम ने पूछा तो होता बतला सकता था मैं
~इफ़्तिख़ार आरिफ़

***********

जो बात खुल चुकी है उसको,
दिलो  में रख के  भी क्या करोगे।
चलो इसी  ज़िन्दगी को जी ले,
कहानी बन के भी क्या करोगे।
    ~~शारिक कैफ़ी

************

(15)

*******

"माता-पिता" 

********

माँ, हर रंग के वस्त्र को

तुरंत सिल सकती थी

उसके पास हर रंग के धागे थे

एक-एक धागा

हम सबकी आत्मा के रंग का भी था।

माँ, टूटे बटन टांक देती

और उधड़े कपडे रफू कर देती

प्रेम के गहरे क्षणों में

कई बार उसनें

पिता की आत्मा को भी टांका है

लेकिन

पिता कभी जान नहीं पाये

जानेंगे, जब उनकी आत्मा को

टाँकने के लिए माँ नहीं होगी

पिता का कुर्ता 

कई जगह से उधड़ गया था

धागे निकल आये थे

माँ कहती - लाओ सिल देती हूँ

लेकिन पिता मना कर देते

पिता अपने बुढ़ापे में

ठीक वैसा ही दिखना चाहते थे

जैसी माँ की आत्मा थी।

सालों से माँ, अपने कपडे

पिता के कपड़ों के साथ धोती रही हैं

पिता के कपड़ों पर

बहुत हल्का... 

माँ के कपड़ों का रंग चढ़ गया हैं

बहुत ध्यान से

कभी उनको देखता हूँ

पिता, अब कुछ-कुछ माँ दिखते हैं।

"©️अहर्निश सागर"

*******************

(16)

*******

"परछाई से कभी मत डरिये,

उसकी उपस्थिति का अर्थ हैं कि

आस-पास कही रोशनी हैं..!"

"©️कुमार विश्वास" 

********************

रास्ता है कि कटता जाता है 

फ़ासला है कि कम नहीं होता 

~ ©️क़ाबिल अजमेरी

********

(17)

गोपालदास 'नीरज' की कविता- 

"मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ"

*************************

अजनबी यह देश, 

अनजानी यहां की हर डगर है,

बात मेरी क्या- 

यहां हर एक खुद से बेखबर है

किस तरह मुझको बना ले

 सेज का सिंदूर कोई

जबकि मुझको ही नहीं पहचानती

मेरी नजर है,

आंख में इसे बसाकर 

मोहिनी मूरत तुम्हारी

मैं सदा को ही स्वयं को

भूल जाना चाहता हूँ 

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

दीप को अपना बनाने को 

पतंगा जल रहा है,

बूंद बनने को समुन्दर का 

हिमालय गल रहा है,

प्यार पाने को धरा का 

मेघ है व्याकुल गगन में,

चूमने को मृत्यु 

निशि-दिन, श्वांस-पंथी चल रहा है,

है न कोई भी अकेला 

राह पर गतिमय इसी से

मैं तुम्हारी आग में 

तन मन जलाना चाहता हूं

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

देखता हूं एक मौन 

अभाव सा संसार भर में,

सब विसुध, पर रिक्त प्याला एक है, 

हर एक कर में,

भोर की मुस्कान के पीछे 

छिपी निशि की सिसकियां,

फूल है हंसकर छिपाए 

शूल को अपने जिगर में,

इसलिए ही मैं तुम्हारी आंख के 

दो बूंद जल में

यह अधूरी जिन्दगी 

अपनी डुबाना चाहता हूं।

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

वे गए विष दे मुझे 

मैंने हृदय जिनको दिया था,

शत्रु हैं वे 

प्यार खुद से भी अधिक 

जिनको किया था,

हंस रहे वे 

याद में जिनकी 

हजारों गीत रोये,

वे अपरिचित हैं, 

जिन्हें हर सांस ने अपना लिया था,

इसलिए तुमको बनाकर 

आंसुओं की मुस्कराहट,

मैं समय की क्रूर गति पर 

मुस्कराना चाहता हूं।

मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूँ

दूर जब तुम थे, स्वयं से 

दूर मैं तब जा रहा था,

पास तुम आए 

जमाना पास मेरे आ रहा था

तुम न थे तो कर सकी थी 

प्यार मिट्टी भी न मुझको,

सृष्टि का हर एक कण 

मुझ में कमी कुछ पा रहा था,

पर तुम्हें पाकर, 

न अब कुछ शेष है पाना इसी से

मैं तुम्हीं से, बस तुम्हीं से 

लौ लगाना चाहता हूं।

मैं तुम्हें, केवल तुम्हें 

अपना बनाना चाहता हूं॥

©️गोपालदास "नीरज" 

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Comments

  1. शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
    ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
    यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए .........
    दुष्यंत कुमार

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