यज्ञ के अनधिकारी से यज्ञ कराने और शात्रोक्त कर्मों में नास्तिक बुद्धि रखने से एवं वेदाध्ययन रहित हो जाने से कुल शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। अल्प धन वाले कुल यदि वेदाध्ययन से समृद्ध हैं तो उनकी गणना भी अच्छे कुलों में होती है और वे यशस्वी कहलाते हैं।
ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
अत: स्त्रियों को सदैव भूषण, वसन और भोजन से संतुष्ट करना चाहिए। समृद्धि की इच्छा रखने वाले को मंगलकार्य और उत्सवों में स्त्रियों को भूषण, वस्त्रादि से संतुष्ट रखना चाहिए। जिस कुल में पत्नी से पति और पति से पत्नी प्रसन्न रहती है, उस कुल में सदैव कल्याण ही होता है।
यदि हि स्त्री न रोचेतं पुमांसं न प्रोमोदयेत् ।
अप्रमोदात्पुन: पुंस: प्रजनं न प्रवर्तते।।६१।।
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्।
तस्या त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते।।६२।।
अर्थात्
यदि पत्नी प्रसन्नचित्त न हो तो वह पति को आनंदित नहीं कर सकती है और स्वामी प्रसन्न न हो तो सन्तानोत्पादन (वंश वृद्धि) नहीं होता। अलंकारादि में स्त्री की रुचि होने से सारा कुल दीप्तिमान होता है, परन्तु स्त्री के असंतुष्ट होने पर सारा कुल मलिन हो जाता है।
ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
मनुस्मृति तृतीयोध्याय:
पितृभिर्भातृभिश्चैता: पितिभिर्देवरैस्तथा।
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि:।।५५।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सार्वास्तत्राफला: क्रिया:।।५६।।
अर्थात्
विशेष कल्याण कामना युक्त, माता-पिता, भाई, पति और देवरों को उचित है कि कन्या का सत्कार करें और वस्त्रालंकारादि से भूषित करें। जिस कुल में स्त्रियां सम्मानित होती हैं, उश कुल से देवतागण प्रसन्न होते हैं और जहां स्त्रियों का तिरस्कार होता है, वहां सभी क्रियाएं (यज्ञादिक कर्म भी) निष्फल होते हैं।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यात्सु तत्कुलम।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।५७।।
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिता:।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्तत:।।५८।।
अर्थात्
जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश पाती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है, किन्तु जहां इन्हें किसी प्रकार का दुख नहीं होता है, वह कुल सर्वदा वृद्धि को प्राप्त होता है। अपमानित होने के कारण बहू-बेटियां जिन घरों को शाप देती हैं, कोसती हैं, वे घर अभिचारादि से नष्ट होकर हर तरह से नाश को प्राप्त होते हैं।
ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मन:।।२२६।।
अर्थात्
दुखी होने पर भी आचार्य, माता, पिता और ज्येष्ठ भ्राता, इन लोगों का अपमान नहीं करना चाहिए, विशेषकर ब्राह्मणों का तो कभी भी नहीं करना चाहिए। आचार्य ब्रह्म-मूर्ति होता है। पिता ब्रह्मा की, माता पृथ्वी की और भाई अपने आत्मा की मूर्ति होता है
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
प्राणियों के कल्याण हेतु अहिंसा से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है, धार्मिक शासक को मधुर और नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिए। जिसकी वाणी और मन शुद्ध और सदैव सम्यक रीति से सुरक्षित है वह वेदान्त में कहे हुए सभी फलों को प्राप्त करता है।
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
मनुस्मृति द्वितीयोध्याय:
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
यश्च विप्रोनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।१५७।।
यथा षण्ढोफल: स्त्रीयु यथा गौर्गवि चाफला।
यथा चाज्ञेफलं दानं तथा विप्रोनृचोफल:।।१५८।।
अर्थात्
जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग होता है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण केवल नामधारी होता है। स्त्रियों के मध्य जिस प्रकार नपुंसक निष्फल होता है जैसे गौओ में गौ निष्फल होती है और जैसे मूर्ख को दिया हुआ दान निष्फल होता है वैसे ही वेद ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण निष्फल होता है।
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
मनुस्मृति द्वितीयोध्याय:
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।
यश्च विप्रोनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।१५७।।
यथा षण्ढोफल: स्त्रीयु यथा गौर्गवि चाफला।
यथा चाज्ञेफलं दानं तथा विप्रोनृचोफल:।।१५८।।
अर्थात्
जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग होता है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण केवल नामधारी होता है। स्त्रियों के मध्य जिस प्रकार नपुंसक निष्फल होता है जैसे गौओ में गौ निष्फल होती है और जैसे मूर्ख को दिया हुआ दान निष्फल होता है वैसे ही वेद ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण निष्फल होता है।
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवां स्थिवरं विदु: ।।१५६।।
अर्थात्
ब्राह्मणों का ज्ञान से, क्षत्रियों का बल से, वैश्यों का धनधान्य से और शूद्रों का जन्म से बड़ापन होता है। केवर सिर के बाल पक जाने से ही कोई वृद्ध नहीं होता है, जो वेद वदांग का ज्ञाता है, वह युवा होते हुए भी वृद्ध होता है, यह देवताओं का वचन है
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
अर्थात् यज्ञ के अनधिकारी से यज्ञ कराने और शात्रोक्त कर्मों में नास्तिक बुद्धि रखने से एवं वेदाध्ययन रहित हो जाने से कुल शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। अल्प धन वाले कुल यदि वेदाध्ययन से समृद्ध हैं तो उनकी गणना भी अच्छे कुलों में होती है और वे यशस्वी कहलाते हैं।
#ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
जो दरिद्रता वश अतिथि सत्कार में असमर्थ हो तो वह नित्य स्वाध्याय करे, क्योंकि दैव कर्म में लगा हुआ पुरुष इस चराचर को धारण कर सकता है। सम्यक रूप से अग्नि में दी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उपजता है, उससे प्रजा की उत्पत्ति होती है।
वायु के आश्रय से जिस प्रकार सब प्राणी जीते हैं, वैसे ही गृहस्थाश्रम के आश्रय से सब आश्रमों का निर्वाह होता है। तीनों आश्रमी (ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी) गृहस्थों का द्वारा नित्य वेदांत की चर्चा और अन्नदान से उपकृत होते हैं, इस कारण गृहस्थाश्रम ही सर्व आश्रमों में सबसे बड़ा होता है।
ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
इस लोक में भी सुख चाहने वाले और अक्षय स्वर्ग पाने की इच्छा वाले को यत्नपूर्वक ऐसे गृहस्थाश्रम का पालन करना चाहिए। गृहस्थास्रम का पालन दुर्बल इंद्रियों से नहीं होता है। ऋषि, पितर, देवता, जीवजन्तु और अतिथि, ये कुटुम्बियों से कुछ पाने की इच्छा रखते हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष उन्हें संतुष्ट करें।
स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि।
पितृन्श्राद्धैश्च नृनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा।।८१।।
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्य: प्रीतिमावहन्।।८१।।
अर्थात्
ऋषियों का वेदाध्ययन से, देवताओं का होम से, श्राद्ध और तर्पण से पितरों का, अन्न से अतिथियों और बालिकर्म से प्राणियों का सत्कार करना चाहिए। अन्नादि या जल से दूध से या फलादि से पितरों के प्रसन्नार्थ नित्य श्राद्ध करें।
#ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
चीन में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा?
होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना। जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।
कहते है, बारह साल बीत गए। वह संन्यासी चौके के पीछे, अंधेरे गृह में चावल कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे।
सुबह से उठता, चावल कूटता रहता।
रात थक जाता, सो जाता। बारह साल बीत गए।
वह कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया।
क्योंकि जब गुरु ने कह दिया, तो बात खतम हो गयी।
जब जरूरत होगी वे आ जाएंगे, भरोसा कर लिया।
कुछ दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे,
लेकिन अब चावल ही कूटना हो दिन-रात तो पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या?
धीरे-धीरे पुराने खयाल विदा हो गए।
उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा।
खाली हो गए, जीर्ण-शीर्ण हो गए।
बारह साल बीतते-बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता,
सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन,
न कोई उलझन। सीधा-सादा काम, विश्राम।
बारह साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात मेरे दरवाजे पर चार पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा देना आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बडा पंडित था, वही रात लिख गया आकर। उसने लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो, धर्म उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है। सुबह गुरु उठा, उसने कहा, यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल खराब की? उसे पकड़ो।
वह पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि वह भी खुद डरा था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली थी। यह कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था। अस्तित्वगत न था। प्राणों में इसकी कोई गुंज न थी। वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह गया था, खबर कर देना; अगर गुरु कहे कि पकड़ो, तो मेरी खबर मत देना।
सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सुनी उनकी बात, वह हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम हंसते हो! बात क्या है? उसने कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं। यह किस नासमझ ने लिखा? वे चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी इतनी हो गया! हम शास्त्रों से सिर ठोंक-ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं अगर कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मै बोल देता हूं अगर कोई लिख भी दे जाकर--मैं तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा नहीं--उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर उन्होंने कहा, बोल! हम लिख देते है जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर--कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
आधी रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे कोई सवाल नही, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट-कूटकर मर गए।
जीवन में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी। तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है।
कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है। असली सवाल भीतर जाने का है। अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे। थोड़ा--बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए। भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए। बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया।
अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने-सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे।बीज अंकुरित होगा।
कैक्टस जहां पानी कम होता है या फिर नहीं होता उस बंजर जमीन को भी हरा किया जा सकता है बस वहां कैक्टस लगाना होता है और कभी-कभी तो कैक्टस वहां खुद उग आते हैं यह बिरानगी उनसे देखी नहीं जाती अपने कांटों से रेत रोकने लग जाते हैं कोई इस हाल में इतना हरा हो सकता है पानी के अभाव में हरियाली की जिम्मेदारी कैसे ले सकता है इस सहरा में भी वैसे ही सहर होती है एक दिन सुकून की छांव होगी यहां भी पानी होगा यहीं किनारा होगा यहां सब कुछ होगा कैक्टस ने जिम्मेदारी ली है एक घरौंदा बनाने की उसकी अधूरी छांव में अब उतनी धूप नहीं लगती आज कोई अनजाना अंकुर फूटा है न जाने बड़ा पेड़ होगा या धरती का बिछौना मखमली घास होगा खैर कुछ भी हो शुरुआत तो ऐसे ही होती है मेरे सिवा कोई और है मैं अकेला नहीं हूंँ यह काफी है मैं कैक्टस हूंँ मेरा काम आसान नहीं है दूसरे पौधे अपना वजूद बनाने लगे हैं म...
सूखा दरख़्त हर किसी के लिए, एक मियाद तय है, जिसके दरमियाँ सब होता है, किसी बाग में, आज एक दरख्त सूख गया, हलांकि अब भी, उस पर चिड़ियों का घोसला है, शायद उसके हरा होने की उम्मीद, अब भी कहीं जिंदा है, मगर इस दुनियादारी से बेवाकिफ, इन आसमानी फरिश्तों को, कौन समझाए? अपनी उम्र पार करने के बाद, भला कौन ठहरता है? किसी बगीचे में, पौधे की कदर तभी तक है, जब तक वह हरा है, उसके सूखते ही, उसको उसकी जगह से, रुखसत करने की, तैयारी होने लगती है ऐसे ही उस पर, कुल्हाड़ियां पड़ने लगी, बेजान सूखा दरख्त, आहिस्ता-आहिस्ता बिखरने लगा, वह किसका दरख्त है, अब यह सवाल कोई नहीं पूछता, क्योंकि सूखी लकड़ियां, किस पेड़ की हैं, इस बात से कोई मतलब नहीं है, बस उन्हें ठीक से जलना चाहिए, जबकि हर दरख़्त की, एक जैसी दास्तान है, वह अपने लिए, कभी कु...
इच्छाधारी ********* इच्छाधारी नाग-नागिन की कहानियाँ, तो हम सबने सुनी है, जिसमें वो कोई भी रूप धारण कर लेते, बचपन! अगर गाँव में बीता हो तो, सिनेमा वाला दृश्य, हर जगह मौजूद होता है, बस कल्पना को, डर वाली कहानियों के रंग से भरना है, ऐसे ही साँप से डरने पूजने, और मौका मिलते ही, मार देने का, अजब व्यवहार करते रहे, इसमें किसी के लिए कुछ भी गलत नहीं, हर आदमी, अपनी आस्था और कहानी गढ़ता है, पर साँप का जहर? बड़ा अजीब है, जो उसकी पहचान है इंसान उसी से डरता है, इसी डर से, तमाम विषहीन साँपो, की जान खतरे में पड़ जाती है, क्यों कि हमको पता नहीं चलता, किसमे जहर नहीं है, अक्सर इस अफरा तफरी में, बिना जहर वालों की जान चली जाती है, उनका सांप होना, उनके लिए सजा बन जाती है। खैर! अब तो शहर का जमाना है पर साँप के होने पर संदेह नहीं करना, आस-पास हमारे, अब सिर्फ, इच्छाधारी रहते हैं, जो हर वक्त रंग बदलते हैं, हमारे ही आस्तीनों में रहते हैं, जो खुद बीन बजाता है, दूध पूरा पी जाता है। उन सीधे साधे साँपो को, नाहक ...
फकीर ********* फकीर के हँसने का सिलसिला, कठघरे में भी चलता रहा, लोग उसको पागल कहने लगे, जबकि शहर में हर तरफ, उसी का चर्चा है, भला फकीर से किसको खतरा है, उसके पास तो कोई झोली भी नहीं है, जिसमें कुछ रखा हो, या भरके ले जाता। वह तो एक दम खाली हाथ, फक्कड़, बेपरवाह, लगभग अवारा है, फिर वह गिरफ्तार क्यों हो गया, कहीं कोई और बात तो नहीं है? ए फकीर हो सकता है बहुरूपिया हो, नहीं तो भला, सरकार का उससे क्या वास्ता है, सड़क की खाक छानने वालों की कोई कमी तो नहीं है, रोजी-रोटी की जंग तो वैसे ही जारी है। सुनने में तो ए आ रहा है फकीर की बदजुबानी से, शहर का काजी, सबसे ज्यादा परेशान था, सवाल ए भी है, वो भागा क्यों नहीं? जब यहाँ पर उसकी होने की, कोई वाजिब वजह नहीं है, वो तो कहीं भी किसी भी, खानकाह का हो लेता, पर उसने ऐसा नहीं किया, उसके सामने भी ...
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सफर की तैयारी ******** वह रोज अपनी गठरी में, एक नई गांठ देता है, सफर के लिए, जरूरी सामान सहेज लेता है, किसी पल, बहुत कुछ याद आता है, दूसरे लम्हें में, सब भूल जाता है, पगडंडियों से सफर करते-करते, बहुत साल गुजर गये, और कहाँ से चले थे, अब उसकी याद, ठीक से आती नहीं है, अब इन्हीं रास्तों से, लौट पाना मुमकिन नहीं है, वैसे भी अब उन रास्तों के, कोई निशान नहीं हैं, वहाँ लौटकर जाएं किसलिए, कोई खत भी आता-जाता नहीं है, पहियों का सिलसिला जब से चला है, लोग खुद से कदम मिलाते नहीं है, अब रास्ते में ठहरने का रिवाज, बंद हो गया है, मुसाफिरों की कहानियां, कोई कहता नहीं है, कहने-सुनने के लिए, जो बात सबसे जरूरी है, ठहर कर, थोड़ी सी बात करनी है, कैसे क्या हुआ, यही तो कहना है, ए किस्से सबको सुनना चाहिए, क्योंकि हर आदमी की हद है, वह सब जगह जा पाता नहीं है, ए चर्चे उसे, उस दुनिया का परिचय कराते हैं, जिसे उसने कभी देखा नहीं, ऐसे ही कहानी सफर करती है, न जाने किससे-किससे जुड़ जाती है, वक्त वैसे भी ठहरता नहीं है, अब इस ...
बुलबुल अपनी उड़ान जानती है
ReplyDeleteवह आसमान को कुछ-कुछ समझती है
उसकी तरफ देखकर गाती है
फिर खुद पर हंसी आ जाती है
हर ऊँचाई
उसके सामने शून्य हो जाती है
©️Rajhansraju
उसने भी समझ लिए हैं
ReplyDeleteशायद सही गलत के मायने
शांत एक कोने में बैठा है
या फिर अपना सफर
पूरा कर चुका है
सही गलत का
अब कोई फर्क नहीं पड़ता
सही गलत का
©️RajhansRaju
नालायक तो बहुत लायक है
ReplyDeleteबुलबुल की समझ में गहराई है
ReplyDeleteखुद को ढूँढने और पाने की कोशिश कि शानदार अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबुलबुल अपनी उड़ान जानती है
ReplyDeleteवह आसमान को कुछ-कुछ समझती है
उसकी तरफ देखकर गाती है
फिर खुद पर हंसी आ जाती है
हर ऊँचाई
उसके सामने शून्य हो जाती है
बुलबुल खुद की तलाश में
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