Babuji

 जय सत् गुरु देव 

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1. शून्य शिखर से बह रही ,समय नदी की धार ।
    जहां न कोई नाव है , ना कोई पतवार।।

2. ना देखा, ना ही सुना, कैसे लाग्यो पार।
    अनुभव, अंतर मन रहै ,ज्ञानी करो विचार।।

3. समरथ राम सबहि ......... उपजाये।
   अचरज, मरम केहू जानि न पाए।।

4. सतगुरु , सांचा शूरमा पंथ करे उजियार।
   माया , भ्रम जीवन कट्य़ ,भटकत एहि संसार।।

5. भाग करम बस बिधि लिखा ,जानो हिय करि चेत।
   भव भ्रम पड़ि भटकत रह्यो ,जो रहि गयो अचेत।।

6. घर छूटा , फूटा घड़ा, पंछी उड़ा अकाश।
   जहां से आया सो गया, अमरावती निवास।।

7. अंत समय,आखर अमर,अमर करम,जप,जोग।
   संत समाना सबद मे जीव गया सतलोक।।
©️ बालकृष्ण तिवारी 
🌹🌹🌹🌹🌹


एक ऐसी अजीब यात्रा
जहां मुसाफिरों की मुसाफिरत का
अंतहीन सिलसिला
और न जाने कितनी बातें 
जिसमें जितनी समझ 
अपनी अपनी कह रहा है
जबकि मालूम कुछ भी नहीं है 
सबकी अपनी कहानी 
एकदम सच्ची है
क्योंकि उसमें वह मौजूद है
बस इतनी सी बात है 
©️ RajhansRaju 
🌹🌹🌹🌹🌹🌹


अपनी-अपनी चेतना 

सत्य-असत्य, पवित्र-अपवित्र, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, नूतन-पुरातन, भेद-अभेद, मोक्ष-बंधन, प्रकाश-अंधकार, जीवन-मृत्यु, ...... यह द्वैत की अनंत शृंखला है जिस पर अंतहीन बहस किया जा सकता है और अपनी अपनी चेतना  के अनुसार समझ बनायी जा सकती है और उसमें कोई हर्ज नहीं है पर मैं ही सही हूँ ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि ऐसा ही होता आया है यह मानना और मनवाने का भयंकर प्रयास करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। 
                   चेतना के स्तर पर खोजने और पाने की जो प्रक्रिया है वह बेहद जटिल और निजी है, आपने जीवन को जैसे समझा और जाना हो यह जरूरी नहीं है कि दूसरा व्यक्ति भी उतना ही समझता और जनता हो, हो सकता वह बहुत गहरे में उतर चुका हो और उसकी चेतना का स्तर आपकी सोच से बहुत आगे जा चुकी हो, जो आपके लिए  अकल्पनीय हो और यह भी हो सकता है कि आप चीजों का आकलन सिर्फ धन, पद, प्रदर्शन और प्रसिद्धि को ही सब कुछ मानकर करते हों, तो यहीं पर सावधान होने की जरूरत है क्योंकि हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं जो अब भी निर्लिप्त रहकर अपनी साधना में लगे है और यह जरूरी नहीं है कि वह परमार्थ का ही चिंतन करने वाले लोग हों, बल्कि हर वह आदमी जो बिना किसी प्रचार के गुमनाम रहकर किसी के लिए भी कुछ करता है तो यकीन मानिए वह एक साधक ही हो सकता है और बिना साधना के गुमनाम रहना संभव ही नहीं है। वह भी आज के जमाने में जहां करना कुछ नहीं है बस बताना है कि देखो मैंने ए किया आज मैंने गाड़ी खरीदी, मेरा मकान, दुकान, व्यापार, मेरी पूजा, विवाह,  .... संस्कार देखो मैं कितना ताकतवर हूँ कितना खर्च कर सकता हूँ .... और थोड़ी सी ताकत का एहसास होते ही हम यह चाहने लगते हैं कि मेरे हिसाब से चीजें हों .....

      और यहीं से समस्या कि शुरुआत होती है क्योंकि ताकत के साथ जिम्मेदारी का होना बेहद जरूरी है जब आप  परिवार, समाज और देश के लिए अपनी जिम्मेदारी लेना शुरू करते हैं क्योंकि आप में वह सामर्थ्य है कि अब आप सच के साथ खड़े हो सकते हैं तो खड़े होइए पाखंड, अंधविश्वास के विरुद्ध, अन्यथा मौन रहिए और जो लोग थोड़ा बहुत कुछ करने कोशिश कर रहे उन्हें उनके मन की करने दीजिए क्योंकि वह समाज की कहीं अधिक गहरी समझ रखते है और कहीं जब पहली बार कुछ शुरू होता है तो असहमति और विरोध भी स्वाभाविक होता है तो इसका मूल कारण यह है कि बहुत सी बातें तुरंत समझ में नहीं आती ज्यादातर लोगों को वक्त चाहिए होता है क्योंकि वह महज भीड़ का हिस्सा होते है जहां सब लोग जा रहे होते हैं वह भी उसी तरफ चल पड़ते हैं, यही आम लोगों का सामान्य नियम है। सोचिए हमारे धर्म का विस्तार कितना है।  पर हर जगह धर्म के ठेकेदार मौजूद है और अपने ही लोगों को कैसे अपने समाज से काट देते हैं हमारे यहाँ पिछड़े, दलितों, आदिवासियों का एक बड़ा समूह मौजूद है जो हमसे सहजता से जुड़ नहीं पा रहा है और हम उनसे दूरी बनाकर अपने धर्म को लगातार कमजोर कर रहे है। हमारा सनातन धर्म स्वतंत्र प्रवाह का प्रतीक है जहां कोई एक मत मतांतर लेकर हम नहीं चलते, एक ही परिवार में आस्तिक-नास्तिक, वैष्णव, शैव, शाक्त और न जाने कितने पंथ, जिनकी अपनी खोज और मान्यताएं हैं जिन्होंने परमात्मा और खुद को ढूँढने, समझने, समझाने के अपने तरीके ढूँढे और हमारे समाज का बहुत बड़ा तबका जो हमसे दूर हो रहा था उन्होंने ही उन्हें हमसे जोड़ कर रखा। वह गोरखनाथ, नानक, रविदास, रामदास, रामनन्द, कबीर, दादू, चैतन्य, रसखान, रहीम, पन्ना, पीपा, तुलसी, .... इनकी एक लंबी शृंखला है जिन्हें पढ़ने समझने की जररूरत है। पर इतना वक्त भला किसके पास है। 
        धर्म का जो आध्यात्मिक पक्ष है वह वास्तव में आपकी अपनी जीवन यात्रा है जहां आपको ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ स्वयं को ढूँढना है और जैसे जैसे आप खुद को ढूँढने लग जाते है वैसे वैसे आप संन्यास की तरफ प्रस्थान कर जाते हैं फिर आपको कोई भेष धरण नहीं करना पड़ता और आप ऐसे ही सामान्य भेष भूषा में ही संन्यसी हो जाते हैं और आपको किसी जंगल में जने की जरूरत नहीं रह जाती, आप जहां हो वहीं सब कुछ मिल जाता है, जब मन, कर्म, वचन से पवित्र हो जाते है । 
 यह काम बहुत आसान है, अब आपको  दूसरों को देखने के बजाए खुद को देखना है । आपको अपने बारे में पता है आपका चरित्र कैसा है ? आप चोर, बेईमान, दलाल, भ्रष्ट, नशाखोर, दुश्चरित्र तो नहीं हैं खुद से सवाल करिए, अपने जीवन के पन्ने पलटिए, आपने कब क्या किया है, आपके बारे में, आप से बेहतर कोई नहीं जनता और इसका जवाब अपको, किसी और को नहीं देना है, क्योंकि यह खुद को आईना दिखाने जैसा है कि मैंने अपनी शक्ल अपने आईने में देख ली अब किसी से कुछ कहना भी नहीं है, बस मौन हो जाना है और अभी से खुद की तलाशने में लग जाना है, और हम सब को अपनी-अपनी यात्रा के लिए ढ़ेर  सारी शुभकामनाएं .... आइए अपनी यात्रा शुरू करें 

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बाबू जी 

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11 अगस्त 2024, तुलसी जयंती को बाबू जी ने अपने इस नश्वर देह का त्याग कर दिया और उन्हीं के इच्छा अनुसार उसी दिन भूमि समाधि दी गई और यह पूरा कार्यक्रम अपने आप में अनोखा था क्योंकि पूरे कुल खानदान  में अभी तक किसी को समाधि नहीं दी गई थी ऐसे में यह स्वीकार कर पाना आम लोगों के लिए आसान नहीं होता, बेमन और असहमति के बावजूद मेरा गाँव और पूरा परिवार बाबू  जी कि इस इच्छा के साथ खड़ा रहा, ज्यादातर लोगों ने समाधि कि खुदाई में अपना योगदान किया और बाकायदा मिट्टी दी, अब गाँव और परिवार कि जो परम्पराएं हैं मतलब कर्मकांड जिसका बाबूजी आजीवन विरोध करते रहे और सनातन का जो अध्यात्मिक पक्ष है उसी के लिए पूरी उम्र समर्पित रहे हम लोगों ने बचपन से अब तक कभी भी अपने लिए कर्मकांड करते नहीं देखा, हालांकि बेटियों के शादी विवाह, माता-पिता का अंतिम संस्कार उन्होंने उन लोगों कि इच्छा के अनुसार किया क्योंकि यह उन लोगों के संतोष और साधना से जुड़ा था, पर अपने पुत्र का विवाह उन्होंने अपने आश्रम मे उसी पद्धति से किया और कोई कर्मकांड न करने के कारण काफी लोग हमसे नाराज रहे और 23 अगस्त को जो भंडारा किया गया उसमें कुछ सजातीय लोग नहीं आए और बड़े अफसोस कि बात है कि दूसरे लोगों को आने से रोकने कि कोशिश भी की और यह उनका दबाव मजेदार था क्योंकि बाबूजी के अपने लोग पर्याप्त थे जो भंडारे का प्रसाद ग्रहण करने में तनिक भी पीछे नहीं रहे और यह लोग उसी वंचित समाज के लोग थे जो बाबूजी को संन्यासी और सच्चा ब्राह्मण मानते थे और कुछ तो उन्हें गाँव का एक मात्र ब्राह्मण मानते थे जो अब नहीं रहे ......
       लोगों कि असहमति और नाराजगी में जो हमको बल मिलता है वह हमारा परिवार और अपने लोग होते है जो तमाम नाराजगी और असहमति के बावजूद हमारे साथ खड़े होते हैं और वह लोग जब जैसी जरूरत थी अड़िग खड़े रहे, इसमें हमारे परम मित्र बालकृष्ण जी, छोटा भाई शैलेश और बड़े भाई अशोक भइया, फूलचंद, राजकुमार उर्फ बुद्धू पूरे समय हमारे साथ लोगों के सवालों के जवाब देते रहे, बाकी मेरे जो छोटे-बड़े भाई-बहन हैं वो तो कोई सवाल करते ही नहीं बस मेरे साथ खड़े रहते है और फिर वैसे ही खड़े रहे और मेरे गाँव के लोग जिनसे मुझे कोई शिकायत नहीं है कुछ विदूषकों को छोड़कर, हलांकि उनकी समझ और काम पर हंसी ही आती है कि बाबू जी से सर्वाधिक लाभ अपने जीवन में उन्होंने ही लिया था और आज भी उनपर उनका कुछ न कुछ बाकी ही है, किसी के भी घर जब शादी विवाह या कोई भी प्रयोजन पड़ता था और बाबू जी के पास अपनी बात लेकर वह आदमी गया तो वह निराश नहीं लौटा, गाँव कि अपनी छोटी-छोटी जरूरतें होती है, किसी भी कार्यक्रम के लिए जगह चाहिए और इसका समाधान बाबूजी के पास था, मतलब अब  हमारे खेतों में उस सीजन में बुआई नहीं  होगी या फिर बहुत देर से होगी और बाबूजी उसके लिए जैसे तैयार बैठें हैं कि कोई आकार बस एक बार बोल दे ... 
           एक बार तो आलू कि खुदाई पंन्द्रह  दिन पहले कर दी गई और आलू की फसल कच्ची होने के कारण काफी नुकसान उठाना पड़ा, इसी तरह जब गाँव में रास्ते कि बात आई, हर बार कि तरह देने के लिए बाबूजी सबसे आगे, जितनी जमीन कि जरूरत जहां भी  थी और हमारी जमीन मौजूद थी पहले वहीं से बनाओ, उन्होंने सिर्फ इतना कहा, रास्ता नहीं रुकना चाहिए जो जरूरत हो ले लो और हमारे घर का कोई आदमी वहाँ जाएगा भी नहीं क्योंकि तुम भी हमारे ही बच्चे हो तुम गलत नहीं करोगे, बनाओ अच्छे से बनाओ .. जो उनकी सामर्थ्य थी उसमे जो वह कर सकते थे उसमें वह कभी पीछे नहीं रहे और सहर्ष हाजिर रहे, एकदम निःस्वार्थ समर्पण ...
       यह सिलसिला हम लोग बचपन से ही देखते आ रहे हैं और बाबूजी ने कभी इस बात पर जोर नहीं दिया की हमारे पास ढ़ेर सारी जमीन जायदाद और शोहरत हो बल्कि नैतिक स्तर हम कितना ऊंचा रख पा रहे हैं इस पर ज्यादा जोर था और इसी का परिणाम यह था कि उनके सामने कोई बहुत देर तक टिक नहीं पता था, ऊपर से मानस का जबरदस्त ज्ञान, जो उन्हें किसी और से बहुत आगे ले जाता था और उसी के चिंतन मनन में पूरी उम्र समर्पित रहे और उनके और माता जी के जीवन का ढंग निराला ही था और इसका परणाम यह था कि गाँव के सभी बच्चे उनको मइलो-बाबू  कहते थे और हम लोगों के अलावा इतने सारे लोग उनको मइलो-बाबू बोले मुझे अच्छा नहीं लगता था कि हमारे मइलो-बाबू को ए लोग मइलो-बाबू क्यों बोल रहे हैं पर उम्र के साथ बात समझ में आ गई ....
        बाबू जी काफी कम उम्र में कलकत्ता काम के लिए निकल गए थे क्योंकि घर के स्थिति अच्छी नहीं थी और पिता  की मदद करनी थी, जैसा कि हर गरीब परिवार में आज भी यही होता है।  किसी न किसी को तो नींव का पत्थर बनना  ही पड़ता है और इसकी  यह विडंबना  है कि धीरे-धीरे उस पत्थर को भुला दिया जाता है। यह एक नियम की तरह ही है, पर बाबू जी इस मामले बहुत ही भाग्यशाली थे कि उनके दोनों छोटे भाई अपने भइया के पूरी उम्र आज्ञाकारी बने रहे और तमाम असहमति के बावजूद भी कभी उन्हें ना नहीं  कहा और उनके लिए सहर्ष हाजिर रहे....
       बाबूजी को तब के कलकत्ता में ही उनके गुरु दादा सरकार मिल गए, शायद उस वक्त उनकी उम्र बाइस तेइस की रही होगी और यह 1965 की बात है जब उन्होंने दीक्षा लिया और अपनी अध्यात्मिक यात्रा शुरू की जो परमार्थ को समझने का आरंभ बिन्दु था और तकरीबन साठ साल तक अहर्निस जारी रही और आज जो स्वरूप आश्रम, सरसेना, मऊ में है, उसके शुरुआती सदस्यों में बाबूजी भी थे और उन्हे वहां राधेश्याम बाबा कहकर  ही लोग संबोधित  करते थे और बाबू जी के साथ हम लोग जब भी आश्रम गए बाबू जी ने यही कहा  "ये देखो हमारी कमायी, यही  हमने कमाया है,"  छोटे भाई कि शादी के दौरान हमारे परिवार और रिश्तेदारों को भी बाबू जी के साथ वहाँ जाने का अवसर मिला था और बाबूजी की खुशी देखते ही बनती थी और सबको बताते फिर रहे थे कि उन्होंने अपने जीवन में क्या कमाया है और उनके पास जितना भी  थोड़ा सा कुछ था।  उसी में न जाने कैसे कितनों की जिंदगी चलाते रहे और जब भी कोई उनके पास आया, खाली हाथ नहीं गया .....
          बाबू जी रामचरित मानस का नियमित चिंतन-मनन और उसी की चर्चा किया करते थे और आश्रम के नियमानुसार ब्रह्म महूर्त अर्थात प्रातः दो बजे उठ जाते और उनका स्नान ध्यान शुरू हो जाता था और यह वक्त  उनके ध्यान और मानस के अध्ययन का नियमित समय था, बिना नागा और रात में उनके बगल यदि किसी ऐसे  आदमी का बिस्तर लग जाता जो उनके इस जीवन चर्या से परचित न हो और उसकी रात में नींद खुल जाए तो समझ लीजिए उसकी क्या हालत होती होगी कि उसके बगल कोई कंबल ओढ़े बैठा है और उसने डर की वो सभी कहानियाँ सुन रखी है और उसी के अनुसार कल्पनाएं करता और डरता है, जबकि हम लोग बचपन से ही उनको  ऐसे ही देखते आए है और हमारी आदत और अभ्यास में अनायास ही बहुत सी चीजें, ऐसे ही विरासत में मिली हुयी है। ऐसे में हम बहुत सारा व्यवहार ऐसे ही सीख जाते हैं और यह सबकुछ एक अनजाना  प्रशिक्षण ही होता है, जो हमें घर, परिवार से ही संस्कार के रूप में मिलता है । 
         इसके बाद दिन भर उनके बात चीत का विषय भी घूम फिर कर मानस पर ही होता था और तमाम फेरी लगाने वाले उनके शागिर्द की तरह थे। जो जब इधर से, मतलब घर के पास से किसी न किसी बहाने से गुजरते, उनके कई घंटे उनके साथ आत्म चिंतन में कब बीत जाता, पता ही नहीं चलता था और हर समय उन्हें सुनने वाला कोई न कोई मौजूद रहता था। रामचरित मानस, स्वरूप आश्रम का मूल आधार है और प्रत्येक शिष्य मानस को ही समर्पित है । बाबू जी एक बात और हमेशा कहा करते थे "मेरे दो बाप हैं" एक तो जैविक पिता स्वर्गीय श्री रामनाथ तिवारी और दूसरे बाबा तुलसीदास क्योंकि समस्त अध्यात्मिक चेतना का आधार उन्हीं से निकला और मिला है और संयोग देखिए 11 अगस्त 2024 प्रातः पाँच बजे जब उन्होंने देह त्यागा तुलसी जयंती का दिन था उनके अध्यात्मिक पिता के जन्म और मृत्यु की तिथि श्रावण मास, शुक्ल पक्ष की सप्तमी थी .....


 ❤️❤️❤️🌹🌹🌹❤️❤️❤️

कटाक्ष 

इतना पढ़ना थोड़ा मुश्किल काम है 
फिर भी धैर्य के साथ  😃😃
यह निबंध पढ़ने का कष्ट करें
😃😃 
❤️❤️❤️🌹🌹🌹❤️❤️❤️
।। जय सत् गुरु देव ।।
मुझे पूरा भरोसा है कि हमारे सनातन  परिवार के सभी लोग सच्चे सनातनी और धर्म रक्षक हैं और उनके ज्ञान और समझ पर तनिक संदेह नहीं है। अब इसके साथ यह उम्मीद भी की जा सकती है कि आप सब लोग सनातन कि ही दूसरी परंपराओं को भी अच्छे से जानते होंगे, जो इसी चिंतन कि चेतना का अनिवार्य अंग है और सनातनी हिन्दू होने कि पहली शर्त सहज स्वीकार करने कि सामर्थ्य है कि तुम जैसे भी हो मुझे स्वीकार्य हो क्योंकि सभी रास्ते एक ही जगह ले जाएंगे, बस हमें चलना है और यह समझने कि जरूरत है कि सिर्फ मैं जो कर रहा हूं मैं जो जानता हूं उसके आगे भी बहुत कुछ है ऐसे में अन्य लोगों कि चिंता करने के बजाय अपनी प्रगति और कल्याण के बारे में सोचने में समय लगाएं तो बेहतर होगा, वैसे भी हम लोग एक दूसरे का इतिहास, भूगोल बहुत अच्छी तरह जानते हैं 😄😄😄
          स्वरूप आश्रम, का मूल आधार रामचरित मानस है और प्रचार, प्रसिद्धि से दूर रहना दीक्षा में शामिल है। बिना किसी शोर शराबा के मानस को समझने कि कोशिश करना ही प्रत्येक शिष्य का कर्तव्य है और हमारे घर में प्रतिदिन यह न जाने कितने वर्ष से होता आया है और अब भी बिना नागा ... एकांत में ..
           शायद ज्यादा हो रहा है, अनावश्यक उपदेश जैसा ही अब लग रहा होगा, धर्म, ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, जीव ब्रह्म, अविद्या, माया ए बहुत ही गूढ़ है, समझाने से ज्यादा समझने का विषय है जो बेहद व्यक्तिगत है तो इसे व्यक्तिगत ही रहने दें तो अच्छा होगा और अपने-अपने स्तर पर हम अपनी-अपनी खोज करें और दूसरों को अपना सच ढूंढने दें क्योंकि हर आदमी कि अपनी बौद्धिक सीमाएं भी तो हैं, हो सकता है वह आप जितना समझदार न हो 😄😄😃
                इसी के साथ आप सभी को ढ़ेर सारी शुभकामनाएं और लगातार बिना जाने चर्चा करने के लिए आभार, हमें तो यही लगता था कि हम लोग बहुत सामान्य लोग हैं और हममें इतनी औकात ही नहीं है कि हम ईश्वर के लिए कुछ कर सकें, पवित्र-अपवित्र, शुद्ध-अशुद्ध का निर्धारण कर सकें...
           खैर इतना महत्वपूर्ण बनाने और आगे भी ऐसी चर्चा करते रहने के लिए फिर से आभार और हमारे सोनाई परिवार के बंधु बांधव जिन्होंने हमारा मुफ्त में इतना प्रचार किया वह सदा स्वस्थ और प्रसन्नचित्त रहें और अपना काम हमेशा कि तरह ऐसे ही करते रहें

❤️❤️❤️

।। जय सत् गुरु देव।।

🌹🌹🌹🌹🌹


अपने कमजोर कंधों पर धर्म और समाज कि जिम्मेदारी उठाने का भ्रम रखने वाले हममें से तमाम लोग अपने नैतिक आचरण के न्यूनतम स्तर को न जाने कितनी बार पार कर चुके हैं और महासागर रूपी हिंदू धर्म को समझने के लिए, किसी का एक जन्म शायद ही पर्याप्त हो, ऊपर से खोजने और गढ़ने कि स्वतंत्रत परंपराएं जिसमें कबीर और तुलसी के राम एक साथ अस्तित्व रखते हैं।
मीरा, रैदास को अपना गुरु मानती हों, ऐसी स्वीकार्यता हमारे महान हिन्दू परंपरा में ही है, यदि हमारी पहुंच और समझ बहुत सी अगम चीजों तक नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह चीजें नहीं है। ऐसी स्थिति में जब हम कोई टीका टिप्पणी करते हैं तो उससे हमारी क्षमताओं का दूसरों को पता चल जाता है ऐसे में सबसे अच्छा मौन होता है क्योंकि इससे सामने वाले को अंदाजा ही नहीं लगता कि हम समझ नहीं पा रहे हैं और हममें वह सामर्थ्य नहीं है . 😃😃❤️❤️😄😄
🌹🌹🌹🌹🌹


संन्यास, संन्यासी और समाधि का मतलब समझना इतना आसान नहीं है  इसके लिए पूरा जीवन खपाना पड़ता है और ऐसा सौभाग्य सोचकर देखिए आपके जीवन में कितने लोगों को मिला है जिन्हें आप जानते हैं।
आज जो हमारे सनातन कि अधकचरी जानकारी रखते हैं और अपनी चेतना ऊॅंचा उठाने के बजाय दूसरे कि टांग खींचने और गिराने को अपना कर्तव्य मान बैठे हैं इससे बचना चाहिए सनातन में व्याप्त अद्भुत स्वतंत्रता को जानने के लिए खुद को खपाना पड़ेगा तब जाकर अपने सनातन को हम समझ पाएंगे।
अब जरा हमारे आसपास जो जानकर हैं उन पर गौर करने और समझने कि आवश्यकता है कहीं वो चोर, दलाल, भ्रष्ट, नशेड़ी, व्यभिचारी तो नहीं है जिससे आप प्रभावित हो रहे हैं तो उनसे बचिए 
बाकी मस्त रहिए खुश रहिए और अपना-अपना सच सबको मुबारक हो 
🌹🌹🌹🌹

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आचार्य श्री रजनीश ओशो


कृष्ण की व्यवस्था जटिल है, लेकिन बड़ी बहुमूल्य है। और इसलिए मैं राजी हुआ गीता पर बोलने को, क्योंकि गीता में मनुष्य का भविष्य छिपा है। अब न तो महावीर का संन्यासी बच सकता है दुनिया में, न बुद्ध का संन्यासी बच सकता है। दुनिया ही न रही वह; भगोड़ों का उपाय ही न रहा। अब तो सिर्फ कृष्ण का संन्यासी बच सकता है दुनिया में। जो भागता नहीं है, जो पैर जमाकर खड़ा हो जाता है, जो हर परिस्थिति का उपयोग कर लेता है, विपरीत परिस्थिति का भी उपयोग कर लेता है, जो युद्ध के बीच में ध्यान को उपलब्ध होता है।
यही तो कला है। भागकर शांत हो जाने में कला भी क्या है? हिमालय पर बैठकर तो कोई भी शांत हो जाएगा, कोई भी। तुम्हारी विशिष्टता क्या है? लेकिन वह शांति हिमालय की है, तुम्हारी नहीं। और जब तुम लौटोगे, तुम पाओगे, तुम उतने ही अशांत हो, जितने तब थे, जब गए। बीच का समय व्यर्थ ही गंवाया। तीस साल बाद भी वापस आओगे, तुम पाओगे, वही राग, वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, सब बैठे हैं। हिमालय में मौका न मिला निकलने का, इसलिए सोए थे। लौटते ही समाज में, समूह में, भीड़ में मौका मिलेगा; जगने शुरू हो जाएंगे।
सुंदर स्त्री दिखाई पड़ेगी, वर्षों सोई हुई वासना उठ आएगी। धन दिखाई पड़ेगा, वर्षों सोया लोभ कुंडली खोलकर सर्प की तरह फैल जाएगा। कोई जरा सा अपमान कर देगा, वर्षों तक बेजान पड़ा क्रोध
एक झटके में जीवंत हो उठेगा।
नहीं; कोई भागकर कभी जीता नहीं। भागना तो हार की स्वीकृति है। वह तो तुमने मान ही लिया कि तुम जीत न सकोगे।
कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, रुक। इसलिए संदेश बड़ा अनूठा है। अर्जुन की जिज्ञासा भी अनूठी है। जीवन-मरण दांव पर लगा है। तुम्हारा भी अगर जीवन-मरण दाव पर लगा है, तो मैं तुमसे जो कहूंगा, वह भगवद्गीता हो जाएगी। तुम्हारा अगर जीवन-मरण दांव पर नहीं लगा है, तुम ऐसे ही चले आए हो, जैसे तुम ताश खेलने चले गए हो। किसी मित्र ने बुलाया; वर्षा के दिन हैं; फुरसत का समय है; तुम ताश खेल आए हो। कुछ दाव पर नहीं लगा है। नहीं; ऐसे न चलेगा। अगर ताश खेलने में भी तुमने पूरा जीवन दाव पर लगा दिया है, अगर तुम जुआरी भी हो, तो बात बदल जाती है। अगर तुमने सब कुछ दाव पर लगाया है, तो मैं तुमसे जो कहूंगा, वह तुम्हारे लिए भगवद्गीता हो जाएगी। अकेले मेरे कहने से न होगा। तुम्हें अर्जुन जैसी चेतना चाहिए।
मनुष्य की खोज मनुष्य से भी पुरानी है; वही खोज तुम्हें यहां ले आई है। और तुम भाग मत जाना। क्योंकि यही वह जगह है, जहां सत्य का अंतिम उदघाटन होगा-संसार में, भीड़ में, गहन में, बाजार में, उपद्रव में, युद्ध में। यही कुरुक्षेत्र है, जहां किसी दिन पांडव और कौरव इकट्ठे हो गए थे युद्ध को।
और ध्यान रखना, जिनसे तुम्हारा संघर्ष है, वे अपने ही हैं। और ध्यान रखना कि जिससे तुम्हें पूछना है, वह तुम्हारे कहीं बाहर नहीं, तुम्हारी चेतना का ही सारथी है।
यह प्रतीक बड़ा मधुर है। अशोभन भी लगता है सोचकर कि अर्जुन तो रथ में सवार था और कृष्ण सारथी थे! लेकिन बड़े पुराने नियमों के अनुसार सारी कथा को रूप दिया गया है। तुम्हारे भीतर तुम्हारा सारथी है। तुमने कभी उससे पूछा नहीं, तुमने कभी उस पर ध्यान ही न दिया। सारथियो पर कोई ध्यान देता है? अर्जुन अनूठा रहा होगा। क्योंकि बैठा तो ऊपर था, रथ में था, असली तो वही
था। सारथी तो सारथी ही था। घोड़ों की साज-सम्हाल कर लेता था, ठीक, रथ को चला लेता था, ठीक।
तुम्हें कभी जिज्ञासा उठ आए, तो कहीं तुम कोचवान से पूछते हो? लेकिन अर्जुन ने सारथी से पूछा।
तुम्हें खोजना होगा, तुम्हारे भीतर सारथी कौन है? रथ तो साफ है कि शरीर है। मालिक भी तुम्हें पक्का पता है कि तुम्हारा अहंकार है। सारथी कौन है? समस्त ज्ञानी कहते हैं, तुम्हारा विवेक, तुम्हारा बोध, साक्षी-भाव सारथी है। उससे ही पूछना होगा। तुम्हारे सारथी से ही उठेगी वह आवाज, जिससे तुम्हारे लिए गीता का प्रकाश साफ हो जाएगा और गीता का मार्ग साफ हो जाएगा। गीता क्या कहती है, तुम तब तक न समझ पाओगे, जब तक तुम्हारा सारथी तुम्हें मिला नहीं।
रथ तुम्हारे पास है; मालिक भी बने तुम बैठे हो; घोड़े भी इंद्रियों के भागे जाते हैं। इन सबके बीच सारथी जैसे खो ही गया है, उसे खोजो। सारी ध्यान की प्रक्रियाएं सारथी को खोजने के लिए हैं। 
                    आचार्य श्री रजनीश ओशो








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हमारी वर्णमाला 

*आज के छात्रों को भी नहीं पता होगा कि भारतीय भाषाओं की वर्णमाला विज्ञान से भरी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर तार्किक है और सटीक गणना के साथ क्रमिक रूप से रखा गया है। इस तरह का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अन्य विदेशी भाषाओं की वर्णमाला में शामिल नहीं है। जैसे देखे*

 *क ख ग घ ड़* - पांच के इस समूह को "कण्ठव्य" *कंठवय* कहा जाता है क्योंकि इस का उच्चारण करते समय कंठ से ध्वनि निकलती है। उच्चारण का प्रयास करें।

 *च छ ज झ ञ* - इन पाँचों को "तालव्य" *तालु* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ तालू महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

 *ट ठ ड ढ ण*  - इन पांचों को "मूर्धन्य" *मुर्धन्य* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ मुर्धन्य (ऊपर उठी हुई) महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

 *त थ द ध न* - पांच के इस समूह को *दन्तवय* कहा जाता है क्योंकि यह उच्चारण करते समय जीभ दांतों को छूती है। उच्चारण का प्रयास करें।

 *प फ ब भ म* - पांच के इस समूह को कहा जाता है *ओष्ठव्य* क्योंकि दोनों होठ इस उच्चारण के लिए मिलते हैं। उच्चारण का प्रयास करें।

 दुनिया की किसी भी अन्य भाषा में ऐसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है? हमें अपनी भारतीय भाषा के लिए गर्व की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही हमें यह भी बताना चाहिए कि दुनिया को क्यों और कैसे बताएं।

Comments

  1. किसी और का ठेकेदार मत बनिए, अपनी धार्मिक और अध्यात्मिक यात्रा कि जिम्मेदारी आपकी अपनी है, आपको अपना ईश्वर स्वयं ढूँढना है और वह किसी और के जैसा नहीं हो सकता है, वह आप वाला एकदम नया होगा ।।
    ।। जय सत् गुरु देव ।।

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  2. चलिए अपना अपना सच ...

    ReplyDelete
  3. इतने विस्तार से सारी बात हमारे साथ साझा करने के लिए आभार

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  4. सच्चे सन्यासियों से मिलना बहुत मुश्किल है, ज्यादातर तो खास भेष भूषा में कैद लोग हैं जो किसी तरह अपनी रोजी रोटी चल रहें है

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