Bulbul

  बुलबुल

एक बुलबुल

उड़ना जिसकी फितरत है

गाते गुनगुनाते बात करते

पूरे जंगल में घूमा करती है

उसे और कुछ नहीं आता

बस जिनसे मिली

उन्हें जानती है

पेड़ के हर डाल से नाता है

कोई अनजान सा रिश्ता है

उसे ही निभाना चाहती है

सूखे पेड़ की वह डाल

जो पश्चिम की तरफ है

जहां से सूरज ढलता दिखाई देता है

साँझ को वहीं देर तलक

गुमसुम सी बैठी रहती है

उसे मालूम है इस पेड़ के किस्से

उसने खुद देखा नहीं

पर ध्यान से सुना है

इतना बड़ा पेड़

एक दिन में बनता नहीं

उसके जैसी न जाने कितने बुलबुल

इसी शाख पर जन्मे हैं

बुलबुल अपनी उड़ान जानती है

वह आसमान को कुछ-कुछ समझती है

उसकी तरफ देखकर गाती है

फिर खुद पर हंसी आ जाती है

हर ऊँचाई

उसके सामने शून्य हो जाती है

 ©️Rajhansraju

नालायक 

वह एक सफल आदमी है 
उसके बच्चे विदेश में ऊंचे मुकाम पर हैं 
हर वक्त उनके चर्चे करता रहता है 
कामयाबी के मायने बताता रहता है 
यू. एस. जर्मनी के फोटो मोबाइल में है 
वह वहां की साफ सफाई 
हरियाली पहाड़ नदी की 
कहानी सुनाता रहता है 
हालांकि वहां कभी गया नहीं 
बच्चों को भी आए 
एक अरसा हो गया है
शुरूआत में साल में एक दो बार 
आना-जाना हो जाता था 
पर धीरे-धीरे चीजें कहां एक जैसी रहती हैं 
बच्चों ने अपनी मर्जी से शादी कर लिया 
तो क्या हुआ समझदार हैं
नए जमाने के हैं 


आने जाने का खर्च बहुत ज्यादा पड़ रहा था 
और मेरी तबीयत भी ठीक नहीं थी 
इसलिए मैं नहीं गया 
हालांकि बच्चों की मां ने 
काफी ज़िद किया 
पर मेरी वजह से वह भी नहीं जा पाई 
अब तो पूरे दस साल बीत गए हैं 
नाती पोते भी काफी बड़े दिखने लगे हैं 
अरे क्या हुआ हम तो ऐसे ही हैं 
बच्चे जहां भी रहे खुश रहे 
अपनी दुनिया में मस्त रहें 
हमारा क्या अपने पास तो 
आलीशान मकान है अच्छी खासी पेंशन है 
साथ में कई नौकर-चाकर हैं 
पत्नी का क्रिया कर्म भी अकेले ही किया था 
मेरे बच्चे मेरी शान है 
यह देखो उसने नया मकान लिया है
बहू गोरी मैम है 
उसका बेटा उसी पर गया है 
एकदमअंग्रेज दिखता है 
फोन नहीं उठाया तो क्या हुआ 
इतना काम रहता है 
टाइम जोन का भी अंतर है 
बेचारे को फुर्सत ही कहां मिलती है 
फेसबुक पर उसकी फोटो देखो 
कितने जगह आता जाता है 
वेकेशन वाली तो अलग ही है 
बहुत दिन बाद मिले हो 
बचपन का कोई साथी 
जब ऐसे ही मिल जाता है 
तो न जाने कितनी चीजें 
एकदम ताजा हो जाती हैं 
जैसे अभी-अभी उनसे गुजरा हूं 
और बताओ तुम्हारे बच्चे क्या कर रहे हैं 
उसका दोस्त जो उसे अभी मिला 
वह बहुत कामयाब आदमी नहीं था 
किसी तरीके से 
एक छोटा सा घर बना पाया था 
उसका बेटा पढ़ने लिखने में 
बहुत अच्छा नहीं था
बस छोटा-मोटा काम कर लेता है 
घर में ही रहता है 
पर मां-बाप से लड़ता बहुत है 
यह देखो वही नालायक चल आ रहा है 


यहां क्या कर रहे हैं दिन भर घूमते रहते हैं 
चलिए खाने का टाइम हो गया है 
लगभग नाराज होते हुए 
गुस्से में बेटे ने कहा था 
और आते ही 
उसने अपने नालायक बेटे का 
परिचय कराया "यही है" 
अरे ए वही अंकल है 
जिनके बेटे विदेश में रहते हैं 
नालायक बेटे ने तुरंत पैर छुए 
और कहा अंकल आप भी चलिए 
आज साथ में खाना खाते हैं
अंकल के बड़ा आदमी होने का 
उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा
एकदम सामान्य बना रहा 
बस पापा के दोस्त हैं 
उसका मन तो यही था 
आज दोस्त के घर जाए 
साथ मैं खाना खाए 
पर यह बड़ा आदमी का बोध 
अक्सर खुद के आड़े आ जाता है 
अपने मन कि नहीं कर पाता 
अपनों के साथ खाना खाए 
एक अर्सा हो गया था 
कहा बेटे फिर कभी आज कुछ काम है 
दोनों बाप बेटे लड़ते हुए चल दिए 
वह वहीं ठहरा उन्हें जाता हुआ देखता रहा 
और अपने लिए अफसोस करता रहा 
काश उसका बेटा भी 
ऐसे ही नालायक होता
©️ RajhansRaju 

सही गलत 

 किस चीज के मायने 
क्या होंगे 
यह वक्त और जरूरत पर निर्भर करता है 
जो सही था वह क्यों सही नहीं है 
जो गलत था वह क्यों सही लगने लगा 
यह भी तो वक्त पर निर्भर करता है 
न जाने कितनी शिकायत करता रहा 
फिर जो गलत था 
क्यों उसी तरफ खड़ा हो गया 
वह तो बड़ी-बड़ी बातें किया करता था 
सब बदल देगा 
जो सही है वहीं पर रहेगा 
मगर नहीं रह पाया 
अब आज शिकायत भी नहीं करता है 
कौन सही है कौन गलत है 
इसके चर्चे भी नहीं होते 
बस मन मारकर एक जगह बैठा है 
सही और गलत के मायने 
अब वह नहीं रह गए  
वह ऐसे ही बैठा 
वक्त के साथ सब कुछ 
ऐसे ही बदल जाता है 
कौन सही है कौन गलत है 
यह सवाल भी नहीं रह जाता 
उसने भी समझ लिए हैं 
शायद सही गलत के मायने 
शांत एक कोने में बैठा है 
या फिर अपना सफर 
पूरा कर चुका है 
सही गलत का 
अब कोई फर्क नहीं पड़ता 
सही गलत का 
©️RajhansRaju 


कुछ बातें मानुस्मृति से 

मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  

साभार -
हर्ष वर्धन त्रिपाठी
अयाज्ययाजनैश्चैव नास्तिक्येन च कर्मणा।  
कुलान्याशु विनश्यन्ति यानि हीनानि मंत्रत:।।६५।।  
मन्त्रतस्तु समृद्धानि कुलान्यल्पधनान्यपि।  
कुलसंख्या च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यश:।।६६।।   

अर्थात्  
यज्ञ के अनधिकारी से यज्ञ कराने और शात्रोक्त कर्मों में नास्तिक बुद्धि रखने से एवं वेदाध्ययन रहित हो जाने से कुल शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। अल्प धन वाले कुल यदि वेदाध्ययन से समृद्ध हैं तो उनकी गणना भी अच्छे कुलों में होती है और वे यशस्वी कहलाते हैं।

ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।


मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  
तस्मादेता: सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनै:।  
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषुत्सवेषु च।।५९।।  
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।  
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं त्रत वै ध्रुवम।।६०।।   

अर्थात्  
अत: स्त्रियों को सदैव भूषण, वसन और भोजन से संतुष्ट करना चाहिए। समृद्धि की इच्छा रखने वाले को मंगलकार्य और उत्सवों में स्त्रियों को भूषण, वस्त्रादि से संतुष्ट रखना चाहिए। जिस कुल में पत्नी से पति और पति से पत्नी प्रसन्न रहती है, उस कुल में सदैव कल्याण ही होता है। 

यदि हि स्त्री न रोचेतं पुमांसं न प्रोमोदयेत् ।  
अप्रमोदात्पुन: पुंस: प्रजनं न प्रवर्तते।।६१।।  
स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्।  
तस्या त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते।।६२।।
   
अर्थात्  
यदि पत्नी प्रसन्नचित्त न हो तो वह पति को आनंदित नहीं कर सकती है और स्वामी प्रसन्न न हो तो सन्तानोत्पादन (वंश वृद्धि) नहीं होता। अलंकारादि में स्त्री की रुचि होने से सारा कुल दीप्तिमान होता है, परन्तु स्त्री के असंतुष्ट होने पर सारा कुल मलिन हो जाता है। 

ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  
पितृभिर्भातृभिश्चैता: पितिभिर्देवरैस्तथा।  
पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभि:।।५५।।  
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।  
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सार्वास्तत्राफला: क्रिया:।।५६।।   

अर्थात्  
विशेष कल्याण कामना युक्त, माता-पिता, भाई, पति और देवरों को उचित है कि कन्या का सत्कार करें और वस्त्रालंकारादि से भूषित करें। जिस कुल में स्त्रियां सम्मानित होती हैं, उश कुल से देवतागण प्रसन्न होते हैं और जहां स्त्रियों का तिरस्कार होता है, वहां सभी क्रियाएं (यज्ञादिक कर्म भी) निष्फल होते हैं।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यात्सु तत्कुलम।  
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।५७।।  
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिता:।  
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्तत:।।५८।।   

अर्थात्  
जिस कुल में बहू-बेटियां क्लेश पाती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है, किन्तु जहां इन्हें किसी प्रकार का दुख नहीं होता है, वह कुल सर्वदा वृद्धि को प्राप्त होता है। अपमानित होने के कारण बहू-बेटियां जिन घरों को शाप देती हैं, कोसती हैं, वे घर अभिचारादि से नष्ट होकर हर तरह से नाश को प्राप्त होते हैं। 

ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति द्वितीयोध्याय:  
आचार्यश्च पिता चैव माता भ्रात च पूर्वज:।  
नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन विशेषत:।।२२५।।  
आचार्यों ब्राह्मणों मूर्ति: पिता: मूर्ति: प्रजापते:।  
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता स्वो मूर्तिरात्मन:।।२२६।।   

अर्थात्  
दुखी होने पर भी आचार्य, माता, पिता और ज्येष्ठ भ्राता, इन लोगों का अपमान नहीं करना चाहिए, विशेषकर ब्राह्मणों का तो कभी भी नहीं करना चाहिए। आचार्य ब्रह्म-मूर्ति होता है। पिता ब्रह्मा की, माता पृथ्वी की और भाई अपने आत्मा की मूर्ति होता है 
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति द्वितीयोध्याय: 
अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोनुशासनम्। 
वाक्चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता।।१५९।। 
यस्य वांग्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा। 
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्।।१६०।। 

अर्थात् 
प्राणियों के कल्याण हेतु अहिंसा से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है, धार्मिक शासक को मधुर और नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिए। जिसकी वाणी और मन शुद्ध और सदैव सम्यक रीति से सुरक्षित है वह वेदान्त में कहे हुए सभी फलों को प्राप्त करता है।
  ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति द्वितीयोध्याय: 
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:। 
यश्च विप्रोनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।१५७।। 
यथा षण्ढोफल: स्त्रीयु यथा गौर्गवि चाफला। 
यथा चाज्ञेफलं दानं तथा विप्रोनृचोफल:।।१५८।। 

अर्थात् 
जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग होता है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण केवल नामधारी होता है। स्त्रियों के मध्य जिस प्रकार नपुंसक निष्फल होता है जैसे गौओ में गौ निष्फल होती है और जैसे मूर्ख को दिया हुआ दान निष्फल होता है वैसे ही वेद ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण निष्फल होता है।
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति द्वितीयोध्याय: 
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:। 
यश्च विप्रोनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।१५७।। 
यथा षण्ढोफल: स्त्रीयु यथा गौर्गवि चाफला। 
यथा चाज्ञेफलं दानं तथा विप्रोनृचोफल:।।१५८।। 

अर्थात् 
जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग होता है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण केवल नामधारी होता है। स्त्रियों के मध्य जिस प्रकार नपुंसक निष्फल होता है जैसे गौओ में गौ निष्फल होती है और जैसे मूर्ख को दिया हुआ दान निष्फल होता है वैसे ही वेद ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण निष्फल होता है।
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

मनुस्मृति द्वितीयोध्याय:
विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यत:।
वैश्यानां धान्यधनत: शूद्राणामेव जन्मत:।।१५५।।
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिर:।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवां स्थिवरं विदु: ।।१५६।।
अर्थात्
ब्राह्मणों का ज्ञान से, क्षत्रियों का बल से, वैश्यों का धनधान्य से और शूद्रों का जन्म से बड़ापन होता है। केवर सिर के बाल पक जाने से ही कोई वृद्ध नहीं होता है, जो वेद वदांग का ज्ञाता है, वह युवा होते हुए भी वृद्ध होता है, यह देवताओं का वचन है 
ManuSmriti पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

 🌹❤️❤️🙏🙏🙏🌹🌹

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मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  
अयाज्ययाजनैश्चैव नास्तिक्येन च कर्मणा।  
कुलान्याशु विनश्यन्ति यानि हीनानि मंत्रत:।।६५।।  
मन्त्रतस्तु समृद्धानि कुलान्यल्पधनान्यपि।  
कुलसंख्या च गच्छन्ति कर्षन्ति च महद्यश:।।६६।।   

अर्थात् यज्ञ के अनधिकारी से यज्ञ कराने और शात्रोक्त कर्मों में नास्तिक बुद्धि रखने से एवं वेदाध्ययन रहित हो जाने से कुल शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। अल्प धन वाले कुल यदि वेदाध्ययन से समृद्ध हैं तो उनकी गणना भी अच्छे कुलों में होती है और वे यशस्वी कहलाते हैं।

#ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

साभार  -
हर्ष वर्धन त्रिपाठी

मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  
स्वाध्याये नियुक्त: स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।  
दैकर्मणि युक्तों हि विभर्तीदं चराचरम्।।७५।।  
अग्नै प्रास्ताहुति: सम्यगादित्यमुपपतिष्ठते।  
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा:।।७६।।   

अर्थात्  
जो दरिद्रता वश अतिथि सत्कार में असमर्थ हो तो वह नित्य स्वाध्याय करे, क्योंकि दैव कर्म में लगा हुआ पुरुष इस चराचर को धारण कर सकता है। सम्यक रूप से अग्नि में दी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है। सूर्य से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न उपजता है, उससे प्रजा की उत्पत्ति होती है। 

यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव:।  
तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रम:।।७७।।  
यस्मात्र्योप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चावन्वहम्।  
गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही।।७८।।   

अर्थात्  
वायु के आश्रय से जिस प्रकार सब प्राणी जीते हैं, वैसे ही गृहस्थाश्रम के आश्रय से सब आश्रमों का निर्वाह होता है। तीनों आश्रमी (ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी) गृहस्थों का द्वारा नित्य वेदांत की चर्चा और अन्नदान से उपकृत होते हैं, इस कारण गृहस्थाश्रम ही सर्व आश्रमों में सबसे बड़ा होता है।  

ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।

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मनुस्मृति तृतीयोध्याय:  
स सन्धार्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।  
सुखं चेहेच्छता नित्यं योधार्यो दुर्बलेंद्रिय":।।७९।।  
ऋषय: पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा।  
आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्य: कार्यं विजानता।।८०।।   

अर्थात्  
इस लोक में भी सुख चाहने वाले और अक्षय स्वर्ग पाने की इच्छा वाले को यत्नपूर्वक ऐसे गृहस्थाश्रम का पालन करना चाहिए। गृहस्थास्रम का पालन दुर्बल इंद्रियों से नहीं होता है। ऋषि, पितर, देवता, जीवजन्तु और अतिथि, ये कुटुम्बियों से कुछ पाने की इच्छा रखते हैं। शास्त्रज्ञ पुरुष उन्हें संतुष्ट करें। 


स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि।  
पितृन्श्राद्धैश्च नृनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा।।८१।।  
कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।  
पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्य: प्रीतिमावहन्।।८१।।
   
अर्थात्  
ऋषियों का वेदाध्ययन से, देवताओं का होम से, श्राद्ध और तर्पण से पितरों का, अन्न से अतिथियों और बालिकर्म से प्राणियों का सत्कार करना चाहिए। अन्नादि या जल से दूध से या फलादि से पितरों के प्रसन्नार्थ नित्य श्राद्ध करें।

#ManuSmriti में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो आज के समय में सर्वथा तिरस्कार योग्य, त्याज्य दिखता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर बहुत कठोरता और कई स्थानों पर आज के सन्दर्भ में घृणित दिखने वाली बातें कही गई हैं, उनको नकारना ही उचित है, लेकिन मनु स्मृति में बहुत कुछ है जिससे किसी भी व्यक्ति का जीवन आचरण श्रेष्ठ हो सकता है। मनु स्मृति पढ़ने से आचरण-व्यवहार कुछ बेहतर ही होगा और जो आपको ठीक नहीं लगता, उसे नकार दीजिए। सभ्य, स्वस्थ समाज ऐसे ही बनता है।
By- HarshVardhanTripathi

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Osho

चीन में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा? 
होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना। जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।

कहते है, बारह साल बीत गए। वह संन्यासी चौके के पीछे, अंधेरे गृह में चावल कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे। 
सुबह से उठता, चावल कूटता रहता।
रात थक जाता, सो जाता। बारह साल बीत गए। 
वह कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया। 
क्योंकि जब गुरु ने कह दिया, तो बात खतम हो गयी।
जब जरूरत होगी वे आ जाएंगे, भरोसा कर लिया।
कुछ दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे,

लेकिन अब चावल ही कूटना हो दिन-रात तो पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या?
धीरे-धीरे पुराने खयाल विदा हो गए। 
उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा। 
खाली हो गए, जीर्ण-शीर्ण हो गए। 
बारह साल बीतते-बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता, 
सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन, 
न कोई उलझन। सीधा-सादा काम, विश्राम।

बारह साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात मेरे दरवाजे पर चार पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा देना आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बडा पंडित था, वही रात लिख गया आकर। उसने लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो, धर्म उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है। सुबह गुरु उठा, उसने कहा, यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल खराब की? उसे पकड़ो।

वह पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि वह भी खुद डरा था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली थी। यह कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था। अस्तित्वगत न था। प्राणों में इसकी कोई गुंज न थी। वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह गया था, खबर कर देना; अगर गुरु कहे कि पकड़ो, तो मेरी खबर मत देना। 

सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।

सुनी उनकी बात, वह हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम हंसते हो! बात क्या है? उसने कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं। यह किस नासमझ ने लिखा? वे चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी इतनी हो गया! हम शास्त्रों से सिर ठोंक-ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं अगर कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मै बोल देता हूं अगर कोई लिख भी दे जाकर--मैं तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा नहीं--उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर उन्होंने कहा, बोल! हम लिख देते है जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर--कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
आधी रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे कोई सवाल नही, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट-कूटकर मर गए।

जीवन में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी। तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है।
कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है। असली सवाल भीतर जाने का है। अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे। थोड़ा--बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए। भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए। बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया।

अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने-सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे।बीज अंकुरित होगा।

🌹🌹 "ओशो"



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Comments

  1. बुलबुल अपनी उड़ान जानती है
    वह आसमान को कुछ-कुछ समझती है
    उसकी तरफ देखकर गाती है
    फिर खुद पर हंसी आ जाती है
    हर ऊँचाई
    उसके सामने शून्य हो जाती है
    ©️Rajhansraju

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  2. उसने भी समझ लिए हैं
    शायद सही गलत के मायने
    शांत एक कोने में बैठा है
    या फिर अपना सफर
    पूरा कर चुका है
    सही गलत का
    अब कोई फर्क नहीं पड़ता
    सही गलत का
    ©️RajhansRaju

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  3. नालायक तो बहुत लायक है

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  4. बुलबुल की समझ में गहराई है

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  5. खुद को ढूँढने और पाने की कोशिश कि शानदार अभिव्यक्ति

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  6. बुलबुल अपनी उड़ान जानती है
    वह आसमान को कुछ-कुछ समझती है
    उसकी तरफ देखकर गाती है
    फिर खुद पर हंसी आ जाती है
    हर ऊँचाई
    उसके सामने शून्य हो जाती है

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  7. बुलबुल खुद की तलाश में

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