sanatana dharma

टूलकिट 
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चुनाव की तैयारी शुरू हो गई 
नया टूल किट आ गया है 
अब उसी की चर्चा है 
कोई यूरोप, कोई अमेरिका में है 
और वहीं से तैयारी कर रहा है 
पहले से खतरनाक वाले, 
नरेटिव गढ़ रहा है 
पड़ोसी ने भी कमर कस ली है 
उसकी funding बढ़ गयी है 
अभी तक जो दशकों से सत्ता में थे 
एक दशक में ही टूट गए हैं 
उनके लोग 
जो सभी पदों पर थे 
धीरे-धीरे कहीं के 
नहीं रह गए हैं 
यही बात 
सबसे ज्यादा खटक रही है 
क्योंकि सारी इनकम 
बंद हो गई है 
किसी की गर्दन फंसी है 
तो किसी की दुम दबी है 
ED CBI पीछे पड़ी है। 
सच्चे हो तो डर कहे का? 
कैसे, कितना, कहां सा आया? 
बस इतना ही तो बतलाना है 
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अजीब आदमी है 
जो जैसे चल रहा था 
उसमें रोड़ा बन गया है 
सबकी जेब भर रही थी 
और सरकार 
मजे से चल रही थी 
सारा आराम चल गया 
जो जैसे चल रहा था 
अब वैसा नहीं रहा। 
हर वह आदमी बहुत दुखी है 
जिसकी नियत सही नहीं है 
जिसके अंदर चोर कहीं है। 
क्यों सवाल करते हो 
औरों से 
क्या काम हुआ है 
क्या नहीं हुआ है? 
अपने चारों तरफ.. नजर दौड़ाओ
सड़क की हालत अब कैसी है 
बिजली सप्लाई देखो 
अंधेरा है कि रोशनी है
सरकारी अस्पताल 
बसड्डा, स्टेशन कि हालत बतलाओ
पहले से बदतर या बेहतर हुई है 
क्या शहर हमारा सुधरा है 
या पहले से भी बेकार हुआ है 


बस शर्त एक है देखने की 
आँख पर जाति-धरम का चश्मा न हो 
फिर देखो 
क्या सबकुछ पहले से 
अब साफ नहीं है? 
सरकारी कर्मचारी बहुत दुखी हैं 
मतलब काम बिना तनखाह नहीं है 
एलईडी बल्ब, ई रिक्शा, 
मोबाइल डेटा ने कमाल किया है 
विकेंद्रीकरण का असली काम 
अब हुआ है। 
तुम हेटर हो या भक्त 
यह भी तय तुम्हीं करो
दोनों के हाथ में ताकत है
बस वह भारत का निर्माण करे 
भारत की बात करे। 
हीनभावना से मुक्ति
यह सफलता सबसे बड़ी है
आत्मविश्वास आत्मगौरव
दिखने लगी है 
इतने के बाद भी 
विकास का मुद्दा कहीं नहीं है 
बिन साधे जाति धरम को
जीत नहीं सकते रण को। 


जो कहते हैं 
हर जगह हिंदू मुस्लिम हो रहा है 
गौर से देखो, उनके साथ 
कौन खड़ा है? 
और वह क्या कहता रहता हैं 
एक ही बात रट रहा है
सावधान खतरा है 
पर अब तक 
ऐसा कुछ हुआ नहीं है 
सब कुछ पहले से बेहतर हो रहा है 
अच्छा अब समझ में आया 
उसे अपने दुकान की चिंता है 
उसका अपना 
सामान बेचने का 
यही तरीका है। 
अब नरेटिव का खेल 
और तेज होगा 
दलितों को खतरा है 
मुसलमान असुरक्षित है 
बोलने नहीं दिया जाता 
यह बात रात दिन बोलेंगे 
संविधान खतरे में है 
EVM उनकी है


थोड़ी बात और बढ़ेगी 
तब ब्राह्मणों की ताकत का 
गुणगान शुरू होगा 
कितनी सदियों से वह 
आज भी शोषण कर रहा है 
सोचो....... 
इस्लाम, ईसाइयत का 
जब राज भयानक चल रहा था 
इसके बाद भी 
नरेटिव गढ़ने वाले 
उनको बर्बर-क्रूर नहीं कहते 
बल्कि तब भी बाभन शोषण कर रहा था 
यही कहानी अब भी कहते रहते हैं 
इसका मतलब तो यही हुआ 
किसी और ने इस देश पर 
अब तक शासन नहीं किया है 
जो भी है जैसा भी है 
सब बाभन का किया धरा है 
वही हर वक़्त शासक था
सैनिक था व्यापारी था 
न बुद्ध हुए न महावीर 
मौर्य से मराठा तक 
कोई साम्राज्य नहीं था 
और हमारा बाभन से 
इतर इतिहास नहीं था 
अब जबकि संविधान लागू है 
तब कैसे ब्राह्मणों का शोषण जारी है ?


यही नरेटिव है खेल यही है 
जो मिशनरियों ने गढ़ा है 
वही कब से चल रहा है 
कैसे बांटो कैसे तोड़ो
तो पहले ब्राह्मण को 
एक जाति बनाओ 
उसके विरुद्ध कहानी चलाओ 
वंचितों को दलित पिछड़ा कहना 
जाति वाले खांचे में इनको भी रखना है 
इसी को और मजबूत करो 
अब यह कहना शुरू करो
तुम हिंदू नहीं हो 
देखो कितने अलग हो 
धीरे-धीरे यह जहर घोलो
पहले अपनी किताब थमा दो 
फिर अहिस्ता से बंदूक 
यह खेल बहुत पुराना है 
जो पैसा और विचारों का है 
पहले मीठा मीठा बोलो
स्कूल, अस्पताल खोलो 
कोमल मन में 
चुपके से 
अपनी कहानी भर दो
यह सिलसिला रोज चलेगा 
स्कूल में किसी को 
पता नहीं चलेगा 
माडर्न बनने की पहली शर्त है 
इंग्लिश मीडियम में शिक्षा हो
भले किसी को कुछ समझ न आए 
शुरूआत प्रार्थना अंग्रेजी में होगी 
जिसका मतलब क्या और क्यों है 
समझना आसान नहीं है 
ऐसे ही कुछ दिन में 
अपनी छोड़ 
दूसरी वाली रट जाएगी
कब बच्चों को बदल दिया 
यह बात जब तक समझ आएगी 
नाम तो अपना वाला होगा
पर सच में वह नहीं होगा 
इसकी शुरुआत गौर से देखो 
कहाँ से होती है 
सबसे पहले भाषा छीनी जाती है 
खान पान त्यौहार 
इनसे दूरी जरूरी है 
क्योंकि यह पर्यावरण के 
अनुकूल नहीं है 
जाति-धर्म तुम्हारा 
किसी काम का नहीं है 
सब कुछ जो तुम्हारा है 
असमानता शोषण से भरा है 
अपनो को अपने विरुद्ध 
खड़ा करने का यही तरीका है 


खेल नरेटिव का है 
इसमें नया 
कुछ भी नहीं है 
खुद निरादर निराशा से 
जब लोग भर जाते हैं 
खेल खिलाड़ी का आसान कर देते हैं 
सोचो तुम पीटर माइकल 
कैसे हो सकते हो
असलम और नूर कहाँ से आए 
तुमसे दूर हजारों मील 
जो जन्मे हैं मरुस्थल में 
एक दिन व्यापार करने 
कुछ लुटेरे घर में आए 
न केवल संपत्ति लूटी 
नाम तुम्हारा लूट गये 
तुम डर और लालच से 
अपनी पहचान भूल गये
अपनी जड़ पहचानो 
कौन हो तुम 
खोदकर खुद को देखो
तुम उनके जैसे नहीं हो 
बस आइना तो देखो। 


लोकतंत्र, पर्यावरण, नारी विमर्श 
पर शाश्वत चर्चा चल रही है 
किसान-दलित के पक्ष में 
महंगा आंदोलन जारी है 
कहाँ किसकी सरकार बदलनी 
किस कम्पनी को ठेका मिलना है 
अंदर का खेल यही है 
यह उसी की लाॅबिंग है 
खेल हजारों करोड़ का है 
जो नेता रैली कर रहा है 
वह तो महज 
चंद करोड़ का प्यादा है 
उसके फटे कुर्ते पर मत जाना 
उसके धंधे का यही तरीका है 
नरेटिव का यह व्यापार 
बहुत बड़ा हो चुका है 
अब कॉर्पोरेट की planning है 
इस धंधे में 
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वाले सोसल नेटवर्क के व्यापारी हैं 
दूर कहीं बैठकर 
वह ऐप चलाता है 
लोग किसको, कैसे देखें और क्या सोचे
यही उसका काम है 
हर हाथ में मोबाइल है 
यह डेटा ही असल कमाई है
हमको लगता हम अपनी मर्जी से सोच रहे 
यह screen अपनी मर्जी से scroll कर रहे 
पर अब ए भी पूरा सच नहीं है 
AI का कमाल है 
हम डेटा बन चुके हैं 
हमारा भी एक pattern है 
यही बात समझनी है 
नरेटिव का खेल है 
सोचिए 
हम किस तरफ हैं 
©️Rajhansraju 
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पुराना दरख्त 

यहाँ आकर 
कुछ देर ठहर जाता है
यह वही दरख़्त है 
जो कभी हरा था
जिसकी छांव में 
वह पला था
इसी टहनी पर 
उसका घर था
यहीं उसके कंधे से 
पहली बार उड़ा था 
अब दरख़्त एकदम अकेला है
गुमशुदा है 
सिर्फ़ सोचकर खामोश हो जाता है 
यह सफर है 
जहाँ हर चीज कि एक मियाद है 
वह भी दौर था 
जब उसे हर तरफ से
आवाज आती थी
उसकी सबको जरूरत थी
वह बाँह फैलाए
सबके लिए खड़ा था 
वह किसी का घर 
किसी का पड़ाव था 
बस! यह सिलसिला तब तक रहा 
जब तक वह हरा था 
©️Rajhansraju
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सीलन 

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जाते वक्त 
तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं था 
फिर कैसे सब कुछ 
तुम लेकर गए 
तुमने पलट कर भी नहीं देखा 
इतने दिन से यहीं पर थे 
किसी को ऐसा लगा ही नहीं 
सबको ऐसा ही लगा 
तुम यहाँ के कभी नहीं थे 
जबकि तुमने ही 
बड़ी मोहब्बत से 
यहाँ की एक-एक ईंट रखी है 
और आज मुड़कर नहीं देखा 
यह ऐसा क्यों है 
जो जैसा दिखाई देता है 
सिर्फ़ उतना ही हो
ऐसा क्यों नहीं है 
जो पास है 
उसी की तलाश है 
फिर मालूम क्यों नहीं पड़ता? 
कि वह यही है 
जैसे यह आंखें 
सब कुछ देखती हैं
मगर 
खुद को देख नहीं पाती 
तमाम इल्ज़ाम लगते रहे
उसने कोई सफाई नहीं दी
बस मुस्कराया और चल दिया
क्योंकि मुखौटा उतर जाना 
रिश्तों के लिए अच्छा नहीं है 
रंग रोगन 
दीवारों कि करते रहें
सीलन बहुत है 
बरसात का मौसम है 
दरकने का डर 
हर मकान को है 
छत बचाकर रखनी है 
तो पानी का रस्ता 
रुकना नहीं चाहिए 
मुखौटों के लिए भी 
ऐसे ही गुंजाइश रहनी चाहिए 
फिर तुम्हारा चेहरा 
मुखौटा नहीं है 
यह कौन तय करेगा 
घर में एक कोना 
तुम्हारा भी तो है 
वहाँ भी दीवार पर सीलन है 
ऐसे ही वक्त 
दबे पांव चलता रहा
सबको मालूम है कि क्या हुआ है
दीवार में दरारें 
क्यों बड़ी होती जा रही हैं 
अब छत का बचे रहना 
बहुत मुश्किल है 
वहाँ कोने में 
न जाने कबसे पानी 
ठहरा हुआ है 
धीरे-धीरे ही सही 
रिस रहा है 
उसे जाने का रास्ता चाहिए 
एक पतली लकीर खींचनी है 
मगर वह आदमी 
जो यह काम करता था 
अब यहाँ नहीं है 
उसके भी पांव थे 
यहाँ हर शख़्स बेखबर हो 
ऐसा भी तो नहीं है 
मगर कैसे कह दे  
वह सही नहीं है
अपने-अपने सबके अहं हैं
ए भ्रम भी जरूरी है
हम सबके लिए 
अपना-अपना कहते रहें 
और.. 
अकेले बचें.. 
©️Rajhansraju
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सफर
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इन रास्तों पर
उसकी तलाश में 
सदियां गुजर गई 
पर मुसाफिरों का सिलसिला 
आज भी थमता नहीं। 
वह किसे मिला, किस नहीं? 
इस बात से 
उसे वास्ता नहीं.. 
वह आज बहुत खुश है 
इन रास्तों पर उसने भी कदम रक्खा 
और कुछ देर चला तो सही 
उसकी भी मुसाफिर भी 
किसी से कम नहीं...
©️Rajhansraju 

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From Social media 

खेलत गेंद गिरे जमुना में हो...


    तो क्या सचमुच गेंद यूँ ही यमुना में चली गयी थी? नहीं भाई! गेंद जानबूझ कर यमुना में फेंकी गयी थी। वह यमुना जो युग युगांतर से अपने तट पर बसे लोगों की माई थी, यमुना मइया... जिसका अमृत जल पी कर मानवों की असँख्य पीढ़ियों ने अपना जीवन पूर्ण किया था। और उसी यमुना में अब विष बह रहा था...

     वो जिसने गेंद फेंकी थी न, वह आने वाले युग को यही बताने आया था कि "विषधर के काटने की प्रतीक्षा मत करना! वह यदि आसपास दिख जाय तो ही उसकी दांत तोड़ दो। शत्रु के शक्तिशाली होने की प्रतीक्षा मत करो! अनावश्यक ही फेंको उसके घर में गेंद, और आगे बढ़ कर तोड़ दो उसके विषैले दांत!" पर इस देश के लड़के अपने पुरुखों की कही बात मानते कब हैं भाई...

      हाँ तो गेंद यमुना में गयी। नारायण मुड़े शेषनाग की ओर! इस बार भइया बन कर आये शेषनाग ने कहा, " अधिक नाटक न करो! जाओ तोड़ कर आओ विषधर के दांत! हम इधर का संभालते हैं।"

     कृष्ण कूदे यमुना में और बलराम भगे गाँव में। चिल्लाए, "मइया... बाबा... काका... दौड़ो सब के सब, कान्हा जमुना में कूद गया..." क्यों चिल्लाए? क्या भय से? हट! उसे भय से क्या भय? वे चिल्लाए कि आओ सब, देख लो! मेरा कन्हैया कैसे भय की छाती पर चढ़ कर नाचता है। सीख लो कि शत्रु की नाक में नकेल डालना आवश्यक हो जाय, तो अपना गेंद फेक कर भी विवाद लिया जाना चाहिये। और जान लो, कि शत्रु के घर में घुस कर उसके दांत तोड़ देना अब से तुम्हारी धार्मिक परम्परा है।

      इधर हाहाकार करते ग्वाले जुटे नदी तट पर, और उधर कान्हा ने धर दबोचा कालिया को! जब उसकी गर्दन मरोड़ दी तो वह गिड़गिड़ाया- "हमने तुम्हारा तो कुछ न बिगाड़ा नाथ! फिर क्यों मार रहे हो?"

      कृष्ण खिलखिलाए। कहा, "जो अपने ऊपर अत्याचार होने पर प्रतिरोध करे वह घरबारी होता है, जो कहीं भी अपराध होता देख कर प्रतिरोध करे, वह अवतारी होता है। अभी तो प्रारम्भ है बाबू! स्वयं तक पहुँचने से पूर्व ही संसार के एक एक अपराधी को ढूंढ कर दण्ड देने आया हूँ मैं, और शुरुआत तुमसे होगी।"

     उसका गला उनके हाथ में था, वह रोने-गिड़गिड़ाने लगा। उसकी पत्नियां कान्हा के पैर पकड़ने लगीं, छाती पीटने लगीं। आप देखियेगा, अपराधियों का परिवार छाती पीटने में दक्ष होता है। वह भी सौगंध खाने लगा, "चला जाऊंगा, फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगा, भारत की ओर मुड़ कर नहीं देखूंगा..." 

     पर वो कन्हैया थे। छोड़ना तो सीखा ही नहीं था उन्होंने। कहा, "प्राण छोड़ देते हैं, पर तेरे भय को समाप्त करना ही होगा। तेरी ख्याति का वध तो अवश्य होगा।एक बार तेरे भय का मर्दन हो जाय, फिर तू पुनः आ भी जाय तो किसी को भय न होगा। कोई न कोई चीर ही देगा तेरा मुख। जल के ऊपर आ, आज तेरे सर पर ही होगा नृत्य! हमें गढ़ना है वह राष्ट्र, जहां अधर्म के सर पर चढ़ कर धर्म नाचे। निकल तो लल्ला..." 

     और फिर संसार ने देखा कालिया नाग के फन पर नाचते कृष्ण को! अधर्म के माथे पर नाचते धर्म को। मुस्कुरा उठे नन्द बाबा ने कहा, "युग बदल गया। अब से यह कृष्ण का युग है

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सनातन और सनतानी 

ज्यादा समय नहीं हुआ दो-चार जेनरेशन पहले यह सभी लोग सनातनी ही थे, पर तलवार का डर और लालच, क्या ना कराए? 

इनमें से ज्यादातर लोगों के लिए चार किलो चावल ही पर्याप्त था अपना स्वाभिमान और गौरव त्यागने के लिए। 

यह वही मनोरोगी है जो जिससे पराजित हुए, उन्हीं की मानसिक गुलामी आज भी कर रहे हैं और गुलाम की अपनी बुद्धि किसी काम नहीं आती, क्योंकि वह भूल चुका है कि वह कौन है और उसमें बुद्धि है। 

तो सबसे पहले इन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि यह जो तुम हो या होने का दावा कर रहे हो, यह तुम्हारे पराजित और गुलाम होने की निशानी है। 

यह तुम स्वेच्छा से किसी ज्ञान विज्ञान की खोज में नहीं बने हो बल्कि यह तुम्हारे कायर, बुजदिल होने का प्रमाण है। 

 ए समझना है तो अपने आसपास गौर करना है पासी और खटिक जैसी आज भी बहुत सी जातियां मौजूद हैं जो सनातन के युद्धा थे जिन्होंने मुगल और अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। जब इनसे सीधे लड़ नहीं सके तब वही बांटो और राज करो कि नीति, इन्हें अछूत घोषित कर दिया और हमारा दुर्भाग्य हमें पता ही नहीं चला कि हमने भी न जाने कब यह स्वीकार कर लिया जबकि वह आज भी उतना सनातनी हैं।

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राधे कृष्ण

 जब कृष्ण वृंदावन छोड़ कर मथुरा की तरफ प्रस्थान करने लगे तो राधा से अंतिम विदा लेने यमुना के घाट पर पहुंचे...!


जहां राधे अपने पैर यमुना की लहरों में भिगोए कृष्ण की ही प्रतीक्षा कर रही थीं।जबसे उन्होंने कृष्ण का मथुरा जाने का मंतव्य जाना था तभी से राधे का मन व्याकुल था।


कृष्ण आए और राधा के पास बैठ घंटो सांत्वना और वापस वृंदावन लौट आने के बहाने गिनाये।


आखिर विदा लेने का समय आ गया! कैसे कहूं? क्या कहूं? इन तमाम उलझनों के मध्य कई वादे कृष्ण से राधे ने लिए और कृष्ण ने राधे को किए।


पता है उस दिन कृष्ण ने राधा से किस एक प्रतिज्ञा की मांग थी?


उन्होंने कहा की, "राधे मैं चाहता हूं तुम प्रतिज्ञा करो की मेरे मथुरा जाने के बाद तुम्हारे एक भी आंसू ना गिरें क्यूंकि तुम्हारे आंसू मुझे मेरे कर्तव्य पथ से विचलित कर सकते हैं।"


ये क्या मांग लिया कृष्ण तुमने? प्राण मांग लेते एक बार को लेकिन ये क्या?


वादा तो किया जा चुका था!


और उसके बाद राधा कृष्ण के विरह में सिर्फ उदास हुई, व्याकुल हुई, यहां तक कि विक्षिप्त भी हुई...! प्रतिज्ञा का विधिवत पालन हुआ।


आंखे पत्थर हो गई लेकिन आंसू का एक कतरा नही निकलने दिया राधा ने!


कृष्ण जाते जाते राधा से रोने का अधिकार भी छीन ले गए, हां नही छीन पाए तो राधे का कृष्ण के प्रति अनहद, असीमित, अनंत प्रेम जिसको छीनने की क्षमता स्वयं कृष्ण में भी नही है।

सनातन ही सत्य है

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ब्रह्मा और सरस्वती

सभार - Social network
ब्रह्मा का अपनी पुत्री से विवाह के संशय का पटाक्षेप !

सनातन धर्म को अपमानित करने के लिए प्रायः यह कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री से जबर्दस्ती की। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि महर्षि दयानंद का किया अर्थ सर्वथा निरुक्त और ब्राह्मण ग्रंथों के अनुकूल है जोकि वेद के प्राचीन पारंपरिक ऋषियों के बनाए हुए व्याख्यान ग्रंथ हैं। इन्होंने 'हिंदी ऋग्वेद' नामक पुस्तक के पेज को प्रस्तुत करके कहा है कि इस मंत्र पर सायण भाष्य देखो जबकि सायणाचार्य के भाषा में भी इस मंत्र में कोई अश्लीलता नहीं दिखाई देती।

प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायद् दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्ये। तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्। तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत्॥

- ऐ॰ पं॰ 3। कण्डि॰ 33, 34॥

प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता॥

- शत॰ कां॰ 10। अ॰ 2। ब्रा॰ 7। कं॰ 4॥

तत्र पिता दुहितुर्गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः॥

- निरु॰ अ॰ 4। खं॰ 21॥

द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र
बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्।
उत्तानयोश्चम्वो3र्योनिरन्तरत्रा
पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥1॥

- ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 164। मं॰ 33॥

(प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरम॰) अर्थात् यहां प्रजापति कहते हैं सूर्य को, जिस की दो कन्या एक प्रकाश और दूसरी उषा। क्योंकि जो जिस से उत्पन्न होता है, वह उस का ही सन्तान कहाता है। इसलिये उषा जो कि तीन चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर पूर्व दिशा में रक्तता दीख पड़ती है, वह सूर्य की किरण से उत्पन्न होने के कारण उस की कन्या कहाती है। उन में से उषा के सम्मुख जो प्रथम सूर्य की किरण जाके पड़ती है, वही वीर्यस्थापन के समान है। उन दोनों के समागम से पुत्र अर्थात् दिवस उत्पन्न होता है॥

'प्रजापति' और 'सविता' ये शतपथ में सूर्य के नाम हैं॥

तथा निरुक्त में भी रूपकालङ्कार की कथा लिखी है कि-पिता के समान पर्जन्य अर्थात् जलरूप जो मेघ है, उस की पृथिवीरूप दुहिता अर्थात् कन्या है। क्योंकि पृथिवी की उत्पत्ति जल से ही है। जब वह उस कन्या में वृष्टि द्वारा जलरूप वीर्य को धारण करता है, उस से गर्भ रहकर ओषध्यादि अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं॥

इस कथा का मूल ऋग्वेद है कि-

(द्यौर्मे पिता॰) द्यौ जो सूर्य का प्रकाश है, सो सब सुखों का हेतु होने से मेरे पिता के समान और पृथिवी बड़ा स्थान और मान्य का हेतु होने से मेरी माता के तुल्य है। (उत्तान॰) जैसे ऊपर नीचे वस्त्र की दो चांदनी तान देते हैं, अथवा आमने सामने दो सेना होती हैं, इसी प्रकार सूर्य और पृथिवी, अर्थात् ऊपर की चांदनी के समान सूर्य, और नीचे की बिछौने के समान पृथिवी है। तथा जैसे दो सेना आमने सामने खड़ी हों, इसी प्रकार सब लोकों का परस्पर सम्बन्ध है। इस में योनि अर्थात् गर्भस्थापन का स्थान पृथिवी, और गर्भस्थापन करनेवाला पति के समान मेघ है। वह अपने विन्दुरूप वीर्य के स्थापन से उस को गर्भधारण कराने से ओषध्यादि अनेक सन्तान उत्पन्न करता है, कि जिन से सब जगत् का पालन होता है॥1॥

( महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रंथप्रमाण्याप्रमाण्य विषय)

पाठकों!महर्षि दयानंद का किया हुआ यह भाष्य निरुक्त, ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार है।महर्षि ने यहां पर एक रूपक अलंकार की कथा को माना है। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यहां पर प्रजापति का अर्थ 'सूर्य' उचित है तथा यहां पर दुहिता का शब्द का अर्थ 'पृथ्वी' करना उचित है।जहां सूर्य पिता है यानी पालन करने वाला। 'पिता' शब्द का यौगिक अर्थ वाला है। वह अपनी दुहिता यानी दूर में रहना जिसका हित है,यानी पृथ्वी-- के गर्भ में अपनी सूर्य किरणें अथवा वर्षा जल रूपी वीर्य से गर्भ स्थापन करता है। जिससे औषधि आदि पुत्र उत्पन्न होते हैं यहां पर सारे के सारे शब्द योगिक हैं। मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति की चर्चा नहीं है, बल्कि प्राकृतिक पदार्थों का मानवीकरण अलंकार व रूपकालंकार सिद्ध है। इस मंत्र पर निरुक्तकार का अर्थ भी हम आगे प्रस्तुत करेंगे।
यहां यह जान लेना चाहिए कि पृथ्वी का सूर्य से उचित दूरी पर होना है उसके हित में है क्योंकि इस दूरी के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है ;यदि पृथ्वी सूर्य के निकट होती तो इसका जीवन भी बस में हो जाता है नष्ट हो जाता।इसलिए पृथ्वी को पिता,"पालक" जन्म देने वाला 'जनयिता' रूप सूर्यलोक की 'दुहिता' कहा गया है।लेकिन लोग पिता और दुहिता का अर्थ लौकिक संस्कृत के अनुसार करते हैं,जोकि भूल है। क्यों दुहिता लौकिक संस्कृत में "पुत्री" को कहते हैं, इसलिये इस मंत्र के अर्थ में भ्रांति हुई। वेद के शब्द यौगिक-धातुपरक होते हैं, रूढ़ लौकिक संस्कृत के अनुसार नहीं होते- ये ऋषि परंपरा का मत है।

एक बात का और उल्लेख करते हैं।यहां पर ऐतरेय ब्राह्मण में भी प्रजापति का अर्थ सूर्य ही है इसलिए उसमें भी किसी पौराणिक ब्रह्मा का इतिहास सिद्ध नहीं होता।

हम सायणाचार्य के संस्कृत भाषण और उसके हिंदी भावार्थ को उद्धृत करते हैं-

सायणाचार्य कृत भाष्य-

दीर्घतमा ब्रवीति। मे मम द्यौर्लोकः पिता पालकः। न केवलं पालकत्वमात्रं अपितु जनिता जनयितोत्यादयिता। तत्रोपरत्तिमाह।नाभिश्च नाभिभूतो भौमो रसोsत्र तिष्ठतीति शेषः। ततश्चात् जायते।अनाद्रेतः रेतसो मनुष्य इत्येवं पारम्पर्येण ननसम्बंधिनो हेतो रस्यात्र सद्भावात्।अनेनैवाभिप्रायेण जनितेत्युच्यते,अतएव बंधुर्बंधिका तथेयं मही महती पृथिवी मे माता मातृस्थानीया स्वोद्भूतौष व्यादिनिर्मित्रीत्यर्थः।.....अत्रीस्मिन्नन्तरिक्षे पिता द्युलोकः।अधिष्ठात्रधिष्ठानभेदनादित्यो द्यौरुच्यते।स्वरश्मिभिः।अथवा इंद्रः पर्जन्यो वा। दुहितादूर्रेनिहिताया भूम्या गर्भं सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्यदकलक्षणमाधात्। सर्वतः करोति।

( ऋग्वेद 1/164/33, सायणभाष्य)

द्यौ मेरा पालक पिता है। न केवल पालक पिता है ,बल्कि जनिता भी है यानी उत्पन्न करने वाला।नाभि से उत्पन्न भूमि रस यही है ,जिससे अन्य उत्पन्न होता है ।अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्य आदि क्रम है। इस उत्पत्ति संबंध के कारण ही इसे जनिता कहा गया है यानी उत्पन्न करने वाला। ये मातृ स्थानीय पृथ्वी औषधि आदि उत्पन्न करने वाली है। यहां अंतरिक्ष का पिता द्युलोक है।अधिष्ठान और अधिष्ठाता भेद से आदित्य को जो भी कहते हैं यह अपनी रश्मि अथवा पर्जन्य यानी वर्षा के जल से दुहिता अर्थात् दूर पर स्थित पृथ्वी के गर्भ में सर्वोत्पादन समर्थ वर्षा जल से गर्भ धारण करता है।

सायणाचार्यने स्पष्ट रूप से यहां पर पिता का अर्थ पालक लिया है क्योंकि पिता पति यह दोनों शब्द 'पा-रक्षणे'धातु से बने हैं,जिसकाका अर्थ रक्षण और पोषण करने वाला होता है। रक्षण और पोषण -यह दोनों काम पिता और पति करते हैं इसलिए यहां पर सूर्यलोक को पिता यानी पालक कहा गया है  यहां पर लौकिक पिता यानि जन्म देने वाला बाप यह अर्थ नहीं है अपितु यौगिक अर्थ लिया गया है। पृथ्वी को यहां पर दुहिता कहा गया है दुहिता का अर्थ आचार्य सायण निरुक्त कार महर्षि यास्क के अनुसार "दूर में स्थित लेते हैं ,या दूर में स्थित होुा जिसके हित में है" करते हैं। लौकिक संस्कृत में दुहिता का अर्थ पुत्री होता है यानी बेटी। लेकिन वेद के शब्द यौगिक होते हैं।वेद के शब्द लौकिक अर्थ देने वाले नहीं हैं। इसलिए सायण ने पिता और दुहिता का निरुक्त के आधार पर जो अर्थ किया है वह सत्य है और विपक्षी का यह कहना आर्य समाजियों ने जानबूझकर के इस मंत्र के अर्थ को बदल दिया है,बिलकुल गलत है और यह  सायण आचार्य के लेख से ही झूठ प्रमाणित होता है।

देखिये, पिता का यौगिक अर्थ-पाति रक्षतीति पिता जनको वा;पाति रक्षतीति पति:स्वामी वा।- उणादि कोश ४/५८

सायन भाष्य के साथ हम एक और पौराणिक आचार्य वेंकट माधव के भाषा को भी उद्धृत करते हैं

द्योर्मेपिता जनयिता वर्षणान्मम सन्महनकृत्। तेजो दिवि भवति  पार्थिवैर्धातुभिः शरीरं बध्यते। यतश्च महती इयं पृथिवी मम बंधुः माता भवति।उत्तानयोः द्यावापृथिव्योः मध्य अवकाशरूपमंतरिक्षं भवति। तत्र दुहितुः अद्भ्यः पृथिवी जातेति पर्जन्यस्य दुहिता भवति। स तस्या गर्भं दधाति। ततः शुक्रशोणितसंसर्गज्जीवः प्रादुर्भवतीति।

( वेंकटमाधव कृत भाष्य, ऋग्वेद 1/164/33, वि.वै. शोध संस्थान,  संस्करण, भाग ३, पृष्ठ ३६७)

वेंकट माधव भाष्य, जो कि एक प्राचीन काल के पौराणिक भाष्यकार का अर्थ है।उन्होंने भी कुछ ऐसा ही अर्थ किया यहां वेंकट माधव,सायण, निरुक्त कार और महर्षि दयानंद "दुहिता" शब्द से "पृथ्वी" अर्थ लेते हैं ।हां,महर्षि दयानंद पृथ्वी अर्थ के साथ साथ ऐतरेय ब्राह्मण के प्रमाण से 'उषा' अर्थ भी लेते हैं। यह दोनों अर्थ सर्वथा प्रामाणिक और युक्ति संगत ह।ै इस प्रकार ब्रह्मा सरस्वती विषयक जो पौराणिक कथाएं हैं उसका इस मंत्र से कोई संबंध नहीं है।

इस मंत्र पर निरुक्त में यही बात लिखी है जो महर्षि दयानंद ने भी किया । द्यौ को पिता पालन करने वाला,जन्म देने वाला इन अर्थों के संदर्भ में लेते हैं।बंधु शब्द का अर्थ  बंधन यानी बांधने वाला करते हैं। दुहिता का अर्थ निरुक्तकार पहले ही कर चुके हैं:-

तत्र पिता दुहितुः गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः ।
ऊर्ध्वतानः वा ।द्यौः मे पिता पाता वा पालयिता वा जनयिता ।बन्धुः संबन्धनात् ।नाभिः संनहनात् ।नाभ्या सन्नद्धाः गर्भाः जायन्ते ।इति आहुः ।एतस्मात् एव ज्ञातीन् सनाभयः इति आचक्षते ।
सबन्धवः इति च ।उत्तानयोः चम्वो३ðङ योनिः अन्तः अत्र पिता दुहितुः गर्भं आ अधात् । । 4.21 । । निरुक्त ।।

दुहिता-दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा।।
( निरक्त ३/१)
दुहिता का अर्थ ,दूर रहना जिसके हित में है, या जो (ऐश्वर्य आदि) काी दोग्ध्री=दोहन करने वाली है, किया है।

इस पूरे व्याख्यान का सार यह है कि इस मंत्र में सूर्य को पिता यानी पालक पृथ्वी को दुहिता यानी दूर रहना जिस के हित में है ,कहा गया है । यह पालक पिता अपनी सूर्य किरणें या वर्षा जल रूपी वीर्य से पृथ्वी में औषधि आदि को जन्म देता है।कुल मिलाकर इस मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक मनुष्य जिसका नाम ब्रह्मा था और जिसने अपनी बेटी सरस्वती से मैथुन किया का कोई उल्लेख नहीं है ।महर्षि दयानंद का अर्थ निरुक्त ,ब्राह्मण ग्रंथ,सायण,वेंकट माधव के अनुकूल है।

दुनिया वालों! विधर्मियों के झूठे अक्षेपों के चक्कर में भ्रमित न हो।वैदिक धर्म को मानने वाले या वेदों में आस्था रखने वाले लोग पहले खुद वैदिक साहित्य को पढ़ें और ऐसे झूठे आक्षेप कर्ताओं के बहकावे में ना आएं।
  कार्तिक अय्यर जी की वॉल से..
🌷🌷🙏

।।धन्यवाद।।
।।लौटो वेदों की ओर।।


रामचरितमानस को जातिवाद के जहर में लपेटने वालो, जरा पढ़ो!

     यदि आप पूरी रामचरितमानस देखें तो वनवास की अपनी महायात्रा के मध्य 'बाबा तुलसी के राम' केवल दो लोगों का आतिथ्य स्वीकार करते हैं। वे न कभी सुग्रीव के घर खाते हैं, न अपने मित्र विभीषण के घर का अन्न ग्रहण करते हैं। वे एक बार निषादराज गुह के घर खाते हैं, और दुबारा शबरी के घर... आधुनिक व्यवस्था के अनुसार एक ओबीसी हैं, और दूसरी एसटी... यह बाबा तुलसी की लेखनी है।
       वनवास के चौदह वर्षों में राम असँख्य बुजुर्गों से मिलते हैं। इनमें से कुछ राजपुरुष भी हैं, और असँख्य ऋषि हैं। पर बाबा तुलसी के प्रभु श्रीराम ने केवल एक व्यक्ति को पिता कहा है- क्या किसी ऋषि को? किसी राजा को? नहीं। वे पिता कहते हैं गिद्ध जटायु को... उस गिद्ध को, जिसे मनुष्य जाति ने सदैव ही स्वयं से दूर रखा है। कवितावली में बाबा लिखते हैं- "देखिअ आपु सुवन-सेवासुख, मोहि पितु को सुख दीजे!" गोद में जटायु की घायल देह लेकर राम कह रहे हैं," हे तात! कुछ दिन और जीवित रहिये! अपने इस पुत्र को सेवा का सुख दीजिये और मुझे पिता की छाया दीजिये... यह बाबा तुलसी की लेखनी है।
      भारतीय पौराणिक इतिहास में दो बार किसी राजपुरुष ने अपना प्रोटोकॉल तोड़ा है। एकबार भगवान श्रीकृष्ण अपने दरिद्र मित्र सुदामा के लिए सिहांसन से उतर कर नङ्गे पाँव दौड़ते हैं, और एक बार प्रभु श्रीराम के अनुज और अयोध्या के कार्यकारी सम्राट महात्मा भरत अपने भइया के मित्र निषाद को देख कर रथ से कूद पड़ते हैं, और विह्वल हो कर बाहें पसारे उनकी ओर दौड़ जाते हैं। रामचरितमानस में बाबा लिखते हैं- "राम सखा सुनु संदनु त्यागा, चले उतरि उमगत अनुरागा..."
      बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में तो अपना परिचय नहीं दिया है, पर वे कवितावली के कुछ छंदों में अपना परिचय देते हैं। अपनी जाति बताते हुए कहते हैं, 'मेरे जाति-पाँति न चहौं किसी की जाति पाँति, मेरे कोउ काम को न हौं काहुके काम को..." न मेरी कोई जाति है, न मैं किसी की जाति जानना चाहता हूं। न कोई मेरे काम का है, न मैं किसी के काम का हूँ... इसी में आगे कहते हैं, "साह ही को गोत गोत होत है गुलाम को..." अर्थात जो मालिक का गोत्र होता है, वही दास का भी गोत्र होता है। इस हिसाब से जो राम जी की जाति है, वही मैं हूँ...
     तुलसी बाबा पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं। सज्जन लोग सदैव उन प्रश्नों का समाधान भी करते रहे हैं। पर बाबा तुलसी पर उठने वाले प्रश्नों का सर्वश्रेष्ठ समाधान वे स्वयं दे कर गए हैं। वे लिखते हैं- "कोउ कहे करत कुसाज, दगाबाज बड़ो, कोई कहे राम को गुलाम खरो खूब है! साधु जानें महासाधु, खल जाने महाखल, बानी झूठी-साँची कोटि कहत हबूब है..." कोई मुझे बुरा काम करने वाला और दगाबाज बताता है तो कोई कहता है कि प्रभु श्रीराम का यह सेवक बिल्कुल सच्चा है। वस्तुतः साधु लोग मुझे महासाधु समझते हैं और दुष्टों को मैं महादुष्ट लगता हूँ! झूठ-साँच की लहरें यूँ ही उठती रहती हैं।
      केवल बुराई देखने निकले लोग कहीं भी बुरा ढूंढ ही लेते हैं। ऐसे लोग कल भी थे, ऐसे लोग आज भी हैं, ऐसे लोग कल भी रहेंगे। पर सुनिये- दूध में नींबू पड़ जाय तो दूध को फाड़ देता है। पर उसके बाद क्या होता है? दूध का तो पनीर बन जाता है, पर नीबू कूड़े में फेंक दिया जाता है। 

(Sarvesh Kumar Tiwari की टाइम लाइन से साभार)



जय सनातन
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चमार कोई नीची जाति नहीँ, बल्कि सनातन धर्म के रक्षक हैं जिन्होंने मुगलोँ का जुल्म सहा मगर धर्म नही त्यागा
आप जानकार हैरान हो सकते हैं कि भारत में जिस जाति को चमार बोला जाता है वो असल में चंवरवंश की क्षत्रिय जाति है। इतना ही नहीं बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था को क्रूर और भेद-भाव बनाने वाले हिन्दू नहीं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे! 

जब भारत पर तुर्कियों का राज था, उस सदी में इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था, उस समय उनके प्रतापी राजा थे चंवर सेन। इस राज परिवार के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश के साथ थे। राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रैदासजी जो कि चंवरवंश के थे, उनको मेवाड़ का राजगुरु बनाया था। वे चित्तोड़ के किले में बाकायदा प्रार्थना करते थे। इस तरह आज के समाज में जिन्हें चमार बुलाया जाता है, उनका इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है।
चमार शब्द का उपयोग पहली बार सिकंदर लोदी ने किया था। 

ये वो समय था जब हिन्दू संत रविदास का चमत्कार बढ़ने लगा था अत: मुगल शासन घबरा गया। सिकंदर लोदी ने सदना कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा। वह जानता था कि यदि संत रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। 

लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गई, स्वयं सदना कसाई शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सके और संत रविदास की भक्ति से प्रभावित होकर उनका भक्त यानी वैष्णव (हिन्दू) हो गए। उनका नाम सदना कसाई से रामदास हो गया। दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए। जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी ने क्रोधित होकर इनके अनुयायियों को अपमानित करने के लिए पहली बार “चमार“ शब्द का उपयोग किया था। 

उन्होंने संत रविदास को कारावास में डाल दिया। उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जूती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया। उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए गए लेकिन उन्होंने कहा :-
”वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान, फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान। वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार, तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार
यातनायें सहने के पश्चात् भी वे अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहे और अपने अनुयायियों को विधर्मी होने से बचा लिया। ऐसे थे हमारे महान संत रविदास जिन्होंने धर्म, देश रक्षार्थ सारा जीवन लगा दिया। शीघ्र ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली को घेर लिया और सिकन्दर लोदी को संत को छोड़ना ही पड़ा।
संत रविदास की मृत्यु चैत्र शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत १५८४ रविवार के दिन चित्तौड़ में हुई। वे आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी स्मृति आज भी हमें उनके आदर्शो पर चलने हेतु प्रेरित करती है, आज भी उनका जीवन समाज के लिए प्रासंगिक है। 

हमें यह ध्यान रखना होगा की आज के छह सौ वर्ष पहले चमार जाति थी ही नहीं। इतने ज़ुल्म सहने के बाद भी इस वंश के हिन्दुओं ने धर्म और राष्ट्र हित को नहीं त्यागा, गलती हमारे भारतीय समाज में है। आज भारतीय अपने से ज्यादा भरोसा वामपंथियों और अंग्रेजों के लेखन पर करते हैं, उनके कहे झूठ के चलते बस आपस में ही लड़ते रहते हैं। हिन्दू समाज को ऐसे सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले इतिहासकारों और इनके द्वारा फैलाए गये वैमनस्य से अवगत होकर ऊपर उठाना चाहिए l 

सत्य तो यह है कि आज हिन्दू समाज अगर कायम है, तो उसमें बहुत बड़ा बलिदान इस वंश के वीरों का है। जिन्होंने नीचे काम करना स्वीकार किया, पर इस्लाम नहीं अपनाया। उस समय या तो आप इस्लाम को अपना सकते थे, या मौत को गले लगा सकते थे या अपने जनपद/प्रदेश से भाग सकते थे, या फिर आप वो काम करने को हामी भर सकते थे जो अन्य लोग नहीं करना चाहते थे। 

चंवर वंश के इन वीरों ने पद्दलित होना स्वीकार किया, धर्म बचाने हेतु सुवर पालना स्वीकार किया, लेकिन मुसलमान धर्म स्वीकार नहीं किये।
:साभार 
नोट :- हिन्दू समाज में छुआ-छूत, भेद-भाव, ऊँच-नीच का भाव था ही नहीं, ये सब कुरीतियाँ विदेशी आक्रांता, अंग्रेज कालीन और भाड़े के वामपंथी व् हिन्दू विरोधी इतिहासकारों की देन है।







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Comments

  1. यहाँ हर शख़्स बेखबर हो
    ऐसा भी तो नहीं है
    मगर कैसे कह दे
    वह सही नहीं है
    अपने-अपने सबके अहं हैं
    ए भ्रम भी जरूरी है
    हम सबके लिए
    अपना-अपना कहते रहें
    और..
    अकेले बचें..
    ©️Rajhansraju

    ReplyDelete
  2. Replies
    1. ऐसे ही शब्दों को सही जगह रखने की कोशिश करते रहते हैं

      Delete
  3. हमको लगता हम अपनी मर्जी से सोच रहे
    यह screen अपनी मर्जी से scroll कर रहे
    पर अब ए भी पूरा सच नहीं है
    AI का कमाल है
    हम डेटा बन चुके हैं
    हमारा भी एक pattern है
    यही बात समझनी है
    नरेटिव का खेल है
    सोचिए
    हम किस तरफ हैं
    ©️Rajhansraju

    ReplyDelete
    Replies
    1. आइए एक दूसरे को थोड़ा सा थाम लेते हैं

      Delete
    2. मसीनी युग की भयावह सच्चाई

      Delete
  4. ऐसे पन्नों की बहुत जरूरत है, जो हमारी संकाओं का समाधान कर सकें

    ReplyDelete

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