adhura

 incomplete 


इस सूखे पेड़ पर 

अब भी चिड़ियों का आना-जाना है 

रिश्ता बरकरार है 

यह यही बताता है

पेड़ सूख गया तो क्या हुआ 

कभी तो हरा था

यहीं पर सबके घोसले थे

यह आसमानी फरिश्ते 

कहीं भी आशियाना बना सकते हैं 

और यहाँ आने की जरूरत नहीं है

जहां हैं वहाँ

सब कुछ मिलता है

फिर इतने सफर की जरूरत ही क्या है?

शायद कुछ यहाँ पर रह गया है

जो हर बार पीछे छूट जाता है

वह  कहीं और जा नहीं पाता है

वह यहीं का है

जो यहाँ से छूटता नहीं है

पर क्या ?

मेरा वजूद ? या कुछ और ?

खैर इस बूढ़े पेड़ की याद सताती है 

इससे जुड़ी हम सबकी

अपनी कहानी है

जिसमे यह पेड़ है

उसके फूल, पत्ते और कांटे हैं

छाँव है सुकून है

वो बरसात की रात याद है

जब बहुत तेज आंधी आई थी

बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला था

ऐसे ही न न जाने कितनी बार

कम ज्यादा काटा गया

अब एक बड़ा हिस्सा सूख गया है

मगर उसने खुद से उम्मीद नहीं छोड़ी है

उससे अंकुर फूटना बंद नहीं हुआ है

जिन परोंदों ने उसे ठीक से देखा है

उसकी टहनियों पर उड़ान सीखा है

उन्हें जब भी वक्त मिलता है 

रोज की तरह दिन ढ़ल फिर जाता है 

थकान हाबी होने लग जाती है

सराय की याद आने लग जाती है

अब मुसाफिर को ठहर जाना चाहिए 

रात हो गई है

और वह दरख्त मौजूद है

जिसे घर कहते हैं

जहां लौट आने की आदत हो गई है

यकीनन इन पंछियों को यह मालूम है

इन्हें देखकर यही लगता है 

जैसे बूढ़े पेड़ से शाम को मिलने आए हो 

तुम्हें हम भूले नहीं हैं

यह बताने आए हैं

©️ Rajhans Raju 



चल मछुआरे जाल फेंक 

देखें अब की क्या आता है 

किस्मत किसकी कैसी है 

कैसे तय हो जाता है 

फंसने वाले तेरी किस्मत में 

बचने वाले अपनी किस्मत से 

कोई दोष नहीं किसी का है 

यह चाल उसी का है सब 

जिसने हम सबके खातिर 

जाल बुनकर रखा है 

चल मछुआरे जाल फेंक 

देखें अब की क्या होता है

©️ RajhansRaju



एक धुंधला सा चेहरा 

आईने में ठहर गया है 

कोई शख्स 

जब वहां से गुजरता 

उसे लगता 

कहीं यह वही तो नहीं है 

बड़े दबे मन से दुखी होकर 

वहां से चल देता है 

तभी एक हंसता खिलखिलाता आदमी 

उस आईने के पास से गुजरता है 

आईना देख कर 

अनायास हंसने लग जाता है 

आईने पर ढेर सारी धूल थी 

उसने अपना हाथ बढ़ाया

बस ! आईने को साफ कर दिया 

अब सामने खिलखिलाता हुआ 

उसके जैसा एक और आदमी हैं 

अक्स उसका ही है 

जो हर तरफ बिखरा हुआ है 

कौन सा चेहरा तुझे बनना है 

यह फैसला 

भला कोई और ?

कैसे कर सकता है ?

©️ RajhansRaju 




सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यानन अज्ञेय (जन्म-7 मार्च 1911, निधन-4 अप्रैल 1987)

कई अज्ञेय को गद्य का पुरोधा मानते हैं तो कई उन्हें रहस्यवाद और आत्मसजगता का एक कुशल कवि मानते हैं। उनका शेखर एक जीवनी उपन्यास उन्हें तात्विक चिंतक की श्रेणी में ला खड़ा करता है। वहीं 'कितनी नावों में कितनी बार' और 'योगफल' कविताएं उन्हें एक दार्शनिक कवि की संज्ञा देती हैं। उनके गद्य और पद्य में बहस भी होती है। हालांकि यह बहस सुखद कही जा सकती है। क्योंकि ऐसी बहस साहित्य जगत को कुछ न कुछ देती है। अज्ञेय अपनी कविताओं में सिर्फ 'अज्ञेय' हैं। वे किसी प्रभाव से भयावह या आक्रांत नहीं हैं। उन्हें रहस्य और आत्मसजगता से इतर स्वतंत्र वास करने वाला कवि कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा। हम काव्य के अपने पाठकों के लिए उनकी बेहतरीन कविताएं यहां पेश कर रहे हैं।    


साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं 

नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।

एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)

तब कैसे सीखा डँसना--विष कहाँ पाया?

©️ अज्ञेय 


।। सवेरे उठा तो ।।

सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी

और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।

मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी 

उधर चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?

मैनें घास की पत्ती से पूछा:

तनिक हरियाली दोगी—तिनके की नोक-भर?

शंखपुष्पी से पूछा: 

उजास दोगी—किरण की ओक-भर?

मैने हवा से मांगा: 

थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,लहर से: 

एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।


मैने आकाश से मांगी

आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।

सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।

यों मैं जिया और जीता हूँ

क्योंकि यही सब तो है जीवन—

गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,

गन्धवाही मुक्त खुलापन,लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,

और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:

ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में सामने से जागा 

जिसमें एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर 

मुझसे पूछा था: "क्यों जी,

तुम्हारे इस जीवन के इतने विविध अनुभव हैं

इतने तुम धनी हो, तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—

जिसे मैं सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—

और वह भी सौ-सौ बार गिन के—

जब-जब मैं आऊँगा?

"मैने कहा: प्यार? उधार?

स्वर अचकचाया था,

क्योंकि मेरे अनुभव से परे था

ऐसा व्यवहार ।

उस अनदेखे अरूप ने कहा: 

"हाँ,क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—

यह अकेलापन, यह अकुलाहट,

यह असमंजस, अचकचाहट, आर्त अनुभव,

यह खोज, यह द्वैत, यह असहायविरह व्यथा,

यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि 

जो मेरा है वही ममेतर है 

यह सब तुम्हारे पास है तो 

थोड़ा मुझे दे दो—उधार—

इस एक बार—मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उसने यह कहा,पर रात के घुप अंधेरे में 

मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:

अनदेखे अरूप को उधार देते मैं डरता हूँ:

क्या जाने यह याचक कौन है?

©️ अज्ञेय 



।। खोज़ में निकला ही ।।


खोज़ में जब 

निकल ही आया सत्य तो बहुत मिले ।

कुछ नये कुछ पुराने मिले

कुछ अपने कुछ बिराने मिले

कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले

कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले

कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले

कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले ।

कुछ ने लुभाया कुछ ने डराया 

कुछ ने परचाया-कुछ ने भरमाया

सत्य तो बहुत मिले 

खोज़ में जब निकल ही आया ।

कुछ पड़े मिले कुछ खड़े मिले

कुछ झड़े मिले कुछ सड़े मिले

कुछ निखरे कुछ बिखरे 

कुछ धुँधले कुछ सुथरे 

सब सत्य रहे कहे, अनकहे ।

खोज़ में जब निकल ही आया 

सत्य तो बहुत मिले

पर तुम नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के 

तुम मोम के तुम, पत्थर के तुम 

तुम किसी देवता से नहीं निकले:

तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले

मेरे ही रक्त पर पले 

अनुभव के दाह पर 

क्षण-क्षण उकस तीमेरी 

अशमित चिता पर 

तुम मेरे ही साथ जले ।

तुम-तुम्हीं तो भस्म हो 

मैंने फिर अपनी भभूत में पाया

अंग रमायात भी तो पाया ।

खोज़ में जब निकल ही आया,

सत्य तो बहुत मिले-एक ही पाया ।

©️ अज्ञेय


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Comments

  1. साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं
    नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
    एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
    तब कैसे सीखा डँसना--विष कहाँ पाया?

    ©️ अज्ञेय

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