Dastak
दस्तक
उसने कई बार दस्तक दी
पर दरवाजा नहीं खुला
कुछ देर ठहर कर
फिर दस्तक दी
अब भी दरवाजा नहीं खुला
दरअसल उसको आते हुए
घर वालों ने देखकर
दरवाजा बंद किया था
बच्चों को भी सहेज दिया
कितना भी दस्तक दे
दरवाजा मत खोलना
वह थककर डेहरी पर बैठ गयी
काफी देर तक बैठी रही
फिर घर से चिल्लाने की आवाज आई
यह इनका रोज का नाटक है
शायद एक छोटा बच्चा
दादी के लिए रो रहा था
दरवाजा खुला...
हाँ! यह इस घर की मालकिन है
घर में जो कुछ भी है
सब की वजह यही है
आज बच्चे जिस मुकाम पर हैं
इन्होंने ने ही बनाया है
पर उम्र के एक पड़ाव के बाद
शरीर और दिमाग थक जाता है
पहले जैसा कहाँ कुछ रह जाता है
बच्चों की उम्र कम ही थी
तभी पिता का साया उठ गया था
न जाने कितनी रातें जाग कर
बिना कुछ खाए गुजारी थी
बच्चों के लिए ही
सब कुछ
एक मां के लिए
अपने लिए कुछ नहीं होता
वह खुद को भूल जाती है
जब बच्चों के पिता ने दुनिया छोड़ी थी
उस वक्त..
उसकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी
चाहती तो
किसी और से ब्याह कर लेती
एक दूसरी जिंदगी
बड़े आराम से अपना लेती
पर बच्चों का मासूम चेहरा
उनका हाथ उसके हाथ में था
उसने सिर्फ बच्चों को देखा
खुद की कोई फिक्र नहीं की
दुनिया समाज की भट्टी में
खुद को झोंक दिया
दिन रात खुद को
जलाती-तपती रही
बच्चों को भरपेट खिलाया
खुद कभी आधा पेट खाया
तो कभी भूखी सो गई
दिन-रात का फर्क
कभी मालूम नहीं चला
नींद क्या होती है
वह कब का भूल गई थी
बच्चे कुछ बड़े हुए
थोड़ा-थोड़ा मुकाम
हासिल करना शुरू किया
जिंदगी पटरी पर आ गई
बच्चों का शादी विवाह भी कर दिया
लेकिन यह न सोने की आदत
बच्चों की फिक्र
इसके अलावा
अब उसके पास
और कुछ नहीं रहा
बच्चों का अपना परिवार है
जिसमें उनके लिए जगह नहीं है
पर मां की तो वही पुरानी आदत है
वह चीजों को वैसे ही देखती है
वह उसी दौर में अब भी कैद है
उसे कुछ और नहीं दिखाई पड़ता
कुछ समझ में नहीं आता
उसके बच्चे ने खाया कि नहीं
बस इतना ही समझ में आता है
अब जहनी तौर पर
उसे घर वाले पागल समझने लगे हैं
वही बच्चे जिनके लिए
उसने सब कुछ किया
अब उसके दस्तक पर
दरवाजा नहीं खोलते है
©️Rajhansraju
🌹🌹🌹❤️❤️🌹🌹
**********
👇👇👇
click Images
************
बाजार
****
दुनिया के लोग ही
बाजार बनते हैं बनाते हैं
जहाँ खुद को बेचते खरीदते हैं
उसने भी इसके फायदे उठाए हैं
परेशानी सिर्फ कीमत से है
वह जो चाहते हैं
जब वह नहीं मिलती
उन्हें अपने सड़े गले खराब होने का
एहसास नहीं होता
जबकि बाजार
अपने नियम से चल रहा है
जो सबसे बेहतर है
उसे ही सबसे ज्यादा
कीमत मिल रही है
©️Rajhansraju
हर बात पर
बेवजह मुस्कुरा देना
सब ठीक है यह कह देना
जबकि कुछ भी सही नहीं था
वह खुद से
किसी तरह लड़ रहा था
लड़खड़ा रहा था
मगर उस वक्त
किसी ने हाल पूछा तो सही
यही बहुत है
मैं ठीक हूँ
यह कहने के लिए
©️Rajhansraju
🌹❤️❤️🙏🙏🙏🌹🌹
दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें
(1)
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
- दुष्यंत कुमार
**********
👇👇👇👇👇
click Images
************
(2)
ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
इन फ़सीलों में वो दराड़ें हैं
जिन में बस कर नमी नहीं जाती
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
शाम कुछ पेड़ गिर गए वर्ना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मय-कशो मय ज़रूरी है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
- दुष्यंत कुमार
(3)
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है
सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर
झोले में उस के पास कोई संविधान है
उस सर-फिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है
फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए
हम को पता नहीं था कि इतना ढलान है
देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं
पावँ तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है
- दुष्यंत कुमार
(4)
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है
- दुष्यंत कुमार
*************
(5)
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उस के बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा
चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
- दुष्यंत कुमार
**********
(6)
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को
क़ायदे क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
इस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं
मौलवी से डाँट खा कर अहल-ए-मकतब
फिर उसी आयात को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेश-ए-नज़र हम
आदमी को भून कर खाने लगे हैं
- दुष्यंत कुमार
(7)
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़्तों के साए में धूप लगती है
चलें यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ैचा में गुल-मुहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुल-मुहर के लिए
- दुष्यंत कुमार
******
(8)
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
दर्द-ए-दिल वक़्त को पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस कबूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक़ से वे ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुम ने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो
- दुष्यंत कुमार
(9)
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
- दुष्यंत कुमार
*****************
my facebook page
***************
***********
facebook profile
************
***************
"मंज़िल तक पहुंचाने वाला
निकला ख़्वाब दिखाने वाला
सूरज से तो कम क्या होगा
मुझको राह दिखाने वाला
हमको भूल सके तो जानें
याद हमें रह जाने वाला।
(विज्ञान व्रत )
तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्याऽन्या शिल्पनैपुणम्॥
विष्णुपुराणम्
That is ‘work’, which is not for the bondage (which does not promote attachment), any other work is mere (pointless) effort. That is ‘knowledge’, which is for the liberation (from bondage), any other knowledge is skill in any manual art or craft.
कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो (जो कर्मफल में आसक्त ना करे), इसके अतिरिक्त बाकी कर्म तो आयास (वृथा प्रयास) मात्र ही हैं। विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो (जो बन्धन से मुक्त करे)। इसके अतिरिक्त अन्य विद्या कला में निपुणता ही हैं।
*********************************
my Youtube channels
**************
👇👇👇
**************************
my Bloggs
***************
👇👇👇👇👇
****************************
********************
********************
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
ReplyDeleteइस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
- दुष्यंत कुमार
shandar peshakash
ReplyDeleteऐसे ही निरन्तरता बनाए रखिए
ReplyDeleteये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
ReplyDeleteजिएँ तो अपने बग़ैचा में गुल-मुहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुल-मुहर के लिए
- दुष्यंत कुमार
देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं
ReplyDeleteपावँ तले ज़मीन है या आसमान है
वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है
- दुष्यंत कुमार
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
ReplyDeleteवो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ