कविता पाठ | Buddha : a journey
बुद्ध - एक यात्रा
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उसने कहा था
एक दिन वक्त ठहर जाएगा
मैं हंसता रहा
यह कैसे हो सकता है
अगर कुछ चलायमान है
तो वह वक्त ही है
जो किसी के लिए नहीं रुकता
तब उसने कुछ नहीं कहा
सिर्फ मौन धारण कर लिया था
मुझे लगा उसके पास
कोई जवाब नहीं है,
ठीक उसी तरह
जब ढेर सारे सवाल पूछे जाते
तो बहुत से प्रश्नों के,
जवाब नहीं देता
बस मौन हो जाता
ऐसे में लगता,
उसके पास कोई उत्तर नहीं है
अक्सर प्रश्न पूछने वाला
अपने आप को श्रेष्ठ समझने लग जाता
यहीं वह सबसे बड़ी भूल कर बैठता।
क्यों कोई बुद्ध नहीं बन पाता
जबकि बुद्ध बनना तो एक निरंतरता है
यह कोई एक बुद्ध की बात नहीं है
कभी किसी बुद्ध ने,
आखरी बार जन्म लिया था
जो अब जन्म नहीं लेगा
ऐसा नहीं है
यह तो एक परंपरा,
खोज का नाम है
जो सदा से होता रहा है
बुद्ध बनने का अर्थ ही है
मौन हो जाना
जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए थे
आज भी न जाने कितनी बार,
रोज पूछे जाते हैं
बुद्ध के ज्ञान पर
उंगलियां उठाई जाती हैं
जबकि हकीकत यह है
जो पूछा जा रहा है
वास्तव में
वह सवाल ही नहीं है
मतलब जिनके जवाब ढूंढ रहे हैं
उनका कोई अस्तित्व नहीं है
हम जब गलत सवाल करते हैं
उसके जवाब भला कैसे मिल सकते हैं
उत्तर उन्हीं चीजों के मिलते हैं
जो वास्तव में हो
अर्थात वह सवाल बन सकते हों
ठीक वैसे ही,
जब हम यात्रा पर निकलते हैं
तमाम जाना-अनजाना,
डर समाया रहता है
कुछ खोने-पाने की,
आशंका बनी रहती है
परन्तु यात्रा की निरंतरता से
अकस्मात बहुत सारे प्रश्न
अपने आप खत्म होने लगते हैं
हम न जाने कब
एक अहर्निश यात्री बन जाते हैं
प्रश्नों का खत्म हो जाना ही
बुद्ध बनना है
बुद्ध बनने की
कोई एक पद्धति नहीं है
बेवज़ह उसको पंथ और मजहब में
बांटने की कोशिश का,
कोई मतलब नहीं है
उसे एक खास नाम,
दिया जाने लगता है
बुद्ध को समझने का दावा भी,
किया जाने लगता है
पर! यह कैसे मुमकिन है
तुम सांस लेते हो
अभी अपनी सांस को,
तुम क्या नाम देना चाहते हो
यह तो तुम्हारे ऊपर है
बस तुम्हारा सांस लेना जरूरी है
यह एहसास,
तुम्हारे जिंदा रहने के लिए है
तुम महसूस करते रहो कि तुम हो
सवाल-जवाब के मायने,
कोई अर्थ नहीं रखते
तुम सवाल करो या ना करो
इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता,
क्योंकि तुम जब तटस्थ भाव से,
देखने लगते हो
कुछ-कुछ बुद्ध जैसा होने लगते हो,
उसका नाम अब तुम,
कुछ भी रख सकते हो
तुम्हारी मर्जी,
उसको हवा कहो ना कहो,
क्या फर्क पड़ता है
किस तरह का ढांचा-सांचा बनाओगे,
इससे उसकी सत्ता पर
कोई फर्क नहीं पड़ता
उसको महसूस करना,
तुम्हारे ऊपर है, तुम्हारी मर्जी
वह तुम्हें,
तुम्हारे ऊपर छोड़ देता है
तुम उसे जैसा चाहो
वैसा मानो
या फिर न मानो
बस निरंतर चलते रहो
और अपनी खोज करते रहो
इस यात्रा का नाम ही,
बुद्ध होना है
वक्त का ठहरना
या फिर चलते रहना
जैसा कुछ होता है कि नहीं
यह कौन तय करेगा
वह जो देश-काल से परे चला गया है
वह तो कुछ कहता ही नहीं
उसके चारों तरफ
मौन पसर जाता है
सिर्फ यात्री रह जाता है
हर तरफ सिर्फ अनंत राह है
©️Rajhansraju
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(2)
बूढ़ा दरख़्त
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दरख़्त जब बूढ़ा हो
जाता है,
उसकी टहनियां सूख जाती है,
जैसे बगैर दांत के,
कोई बुजुर्ग हंसता हो,
और बड़े आहिस्ता से बच्चों के,
सर पर हाथ रखता हो,
बहुत दिन तक हरा-भरा था,
यह आदत छूटती नहीं है
वह उंगलियों से हरियाली,
अपने बूढ़े बदन पर ओढ़ लेता है,
खैर अब उसके सफर का
कोई एक ठिकाना नहीं है
उसके हर हिस्से की,
पैमाइश हो रही है,
उसे टुकड़ो में बांटने की तैयारी है,
वह दरवाजा बनेगा
या फ़िर चूल्हे में जलेगा
यह बात इस पर निर्भर है
वह कब किसके हाथ
किस आकार में लगेगा
नहीं तो श्मशान में जलेगा,
वह राख बनकर भी,
मिटता नहीं है,
क्योंकि इस माटी में मिल पाना,
सबसे होता नहीं है,
दरख़्त बनने के लिए
एक जगह वर्षों तलक,
बड़े धीरज से,
पैर जमाकर,
टिकना होता है
©️Rajhansraju
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(3)
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यूँ ही फिक्र करते,
न जाने कितनी?
सदियां गुजर गई,
और वह अब भी,
बुत बना बैठा है,
कुछ इस तरह से,
जिसे लोग
खुदा कहते हैं
©️Rajhansraju
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(4)
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कोई परदा?
कब तक बनेगा चेहरा?
जब रोशनी दूर हो आँखो से,
क्या करेगा परदा,
फिर तन्हा, मकानों मे,
खुद को पाता है,
ड़र-ड़र के,
न जाने किससे,
चेहरा छुपाता है,
आइने के सामने,
परदा लेकर जाता है,
कुछ नज़र आए,
इससे पहले,
आइना ढ़क देता है..
एक खुशफहमी लिए
जीता रहता है
अच्छा है
कभी-कभी
परदे का बने रहना%
इससे खुद को कोई
जवाब नहीं देना पड़ता है
(5)
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वैसे भी करने को कुछ नहीं है,
आओ हिन्दू-मुसलमान खेलते हैं,
वास्तव में पूरी दुनिया में,
किसी खतरे का,
पहले जिक्र होता है,
फिर उसकी राजनीति,
शुरू हो जाती है,
इस खेल में असली खतरा,
किसको किससे है?
ए समझना,
उतना मुश्किल नहीं है,
फिलहाल हम गाय की बात,
करना चाहते हैं,
पर गाँव की नहीं,
जो गाय को चाहि,
हमारी गाय सड़क किनारे,
कूडेदानों में खाना ढूँढती हैं,
वही एकदम,
गंगा माँ वाली कहानी है,
अब गंगा स्वच्छता नहीं,
गंगा बचाओ अभियान चलाना होगा,
फिर सरकारी पैसे की बंदरबाट,
घोटाला होगा,
चलो अच्छा है गंगा को,
किसी खास जात-मजहब से,
खतरा नहीं है।
नहीं तो अब तक न जाने,
कितने फतवे जारी हो जाते,
फिर घाटों का रंग क्या होता?
थोड़ी अकल लगाओ,
थोड़ा समझो भाई,
खतरा किसको, किससे है??
लोग डरते हैं, खुद के सच से,
अच्छी शिक्षा, कमजोरों के हक से,
महिला की आजादी,उसके कपड़ों से,
जबकि हम बेमकसद, बेगैरत भी हैं,
अब भी खेत, सूखे हैं,
किताबें नहीं हैं,
बच्चों के हाथों में,
गाँव बचे हैं काफी,
वहाँ अब भी अँधेरा रहता है,
लेकिन गाली देने का हुनर,
हमें खूब भाता है,
अच्छा हिन्दुस्तान कैसा हो?
सोच के देखो,
नए संदर्भ में एक बार,
"हिन्द स्वराज" पढ़कर देखो,
कौन कहता है?
मानो उसको,
सब झूठा है कह देना,
लेकिन उससे बेहतर,
विकल्प मिले तो बतला देना,
जबकि तुम तो काबिल हो,
जैसा कि तुम कहते हो,
फिर उस अधनंगे बापू से क्यों डरते हो?
खतरा कभी खत्म नहीं होता,
जब तक खुद खतरा होते हैं,
किसी जात, धरम का दुश्मन,
कोई और नहीं होता है,
उसको मानने वाले,
जब उसको संदूको में,
बंद कर देते है,
ऊपर से उस पर,
खाना, कपड़ा, सभ्यता, संस्कृति,
वाला ताला जड़ देते हैं,
जबकि वो तो नदी है,
हाँ गंगा है,
जिसको हरदम बहना है,
फिजाओ के साथ बदलना है,
जो इन्द्र धनुष है,
आसमान में दिखता है,
जबकि तेरे हाथ में,
जो निशानियाँ हैं,
खुदा ने नहीं,
किसी दुकानदार ने रखा है।।
©️rajhansraju
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(6)
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यूँ ही किसी भी बात पर,
कुछ लिखने की आदत पड़ जाए,
Diary के पन्नों में शब्द ठहर जाये,
तुझे अपनी बात कहने का,
खूबसूरत तरीका आ जाये।
©️Rajhansraju
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(7)
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वो खूबसूरत गुलाब,
बेहतरीन, लाजवाब,
अधखिला, बेमिसाल,
खुशबू बनकर,
फिजा में बिखर गये,
तुम कुछ इस तरह,
हर जगह हो गये,
©️Rajhansraju
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(8)
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सोचता हूँ,
थोड़ा,
बदल जाऊँ,
पर!
मैं ?
खुद के,
आडे आ जाता हूँ
©️Rajhansraju
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आदत इसकी ऐसी है
कभी चुप नहीं रहता है
करना चाहो कछ भी
डरा सहमा सा लगता है
सही-गलत उसके,
बड़े निराले रहते हैं
अपना देकर
मर्जी से खोकर
मस्त मगन है जाता है
पर शोर मचाते दिल की,
बेहद कम ही सुनते हैं
वह मलंग बना फिरता है
फकीरी के रस्ते चल देता है
आगे बढ़कर ऐसे ही,
हाथ थाम लेता है,
उसके कदमों पर जो चल देते,
कुछ उसके जैसे हो जाते हैं,
दिल की सुनने वालों की,
अपनी ही एक दुनिया है,
जहाँ देने का दस्तूर है,
वह तो लोगों की,
कुछ मुश्किल कम करता रहता है
©️Rajhansraju
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(10)
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ख्वाबों की तरह
कब चलती है दुनिया
जग कर देखें
आँख मीचकर
अपनी भूल सुधारे
काश ऐसा हो पाता
Edit, delete के बटन
जीवन में मिल जाते
जो चाहे लिखता
जब चाहे मिटाता
पीछे जाकर लम्हों को
मनमाफिक edit कर लेता
दुःख और गम सदा के लिए
Delete कर देता
©️Rajhansraju
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(11)
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तुम क्या जानो
यह कहना रवायत सी बन गई है
हर शख़्स अपनी जानकारी का
कुछ इस तरह दावा करता है
जबकि आंख पर उसके रंगीन चश्मा है
उसको कुछ और दिखाई पड़ता नहीं है
©️Rajhansraju
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(60)
यह खोजने कुछ समझने से ही शुरू हो जाता है
ReplyDeleteऔर जो मिलता है या फिर बचता है
सिर्फ यात्रा