Kunbh Diary
कुम्भ डायरी
हमारे यहां कुम्भ से जुड़ी
कहानियों की भरमार है
आजकल तो
सोशल नेटवर्क का जमाना है
जिसे देखो कहानी कह रहा है
2-3 मिनट से बात चलकर
10 से 15 सेकंड के वीडियो पर आ गई है
सब अदभुत अनोखा अनरिस्ट्रिक्टेड है
जहां कोई भी कुछ भी कह सकता है
और वह कह रहा है
सोचिए रेलवे स्टेशन और बस अड्डा से
उतर कर कुछ लोगों ने कहा
वह 50 किलोमीटर तक पैदल चले
जबकि कोई भी स्टेशन संगम से
ज्यादा दूर नहीं है
अब ऐसे लोगों की बात आती है
जो अपने यहां से हजारों किलोमीटर
दूरी तय करके आ रहे हैं
साधन संपन्न है चीजें खरीद सकते हैं
और ऐसे लोगों की
अब कोई कमी नहीं है
और ना तो उनकी
आस्था भक्ति पर संदेह है
पर कैसे
जब आगे जगह ही नहीं है
तो आपकी गाड़ी और आप
कैसे आगे बढ़ेंगे
कहीं तो रुकना पड़ेगा
वही होता है
फिर खबरें चलने लगी
दक्षिण की तरफ से
आने वाले लोगों ने
300 किलोमीटर का
जाम लगा दिया
यह भी तो हमारी ताकत ही है
हम 300 किलोमीटर खड़े रहे
संगम आने के लिए
प्रयागराज महाकुंभ में
शामिल होने के लिए
इस तरह हर वह रास्ता
जो संगम की तरफ
प्रयागराज की तरफ जा रहा था
वहां पर ऐसे ही
लाखों वाहनों का काफिला था
अगल-बगल के जिले
दूसरे प्रदेशों में भी हर तरफ जाम
जब सब लोग
महाकुंभ में शामिल होकर
महाकुंभ हो जाना चाहते हों
तब भला उन्हें महाकुंभ होने से
कौन रोक सकता है
महाकुंभ सिर्फ संगम क्षेत्र तक
सीमित होकर नहीं रह गया
पूरा भारत ही महाकुंभ बन गया
क्योंकि हर रास्ता
हर भारतीय हर सनातनी
महाकुंभ में डुबकी लगा लेना चाहता है
ऐसे में हर आदमी के अपने मकसद हैं
सब के जेब में पैसा जा रहा है
लूटने वाले थक गए हैं
वह चाहे होटल वाले हो
रेस्टोरेंट वाले हो नाविक हो
पुजारी हो पंडे हो,
रिक्शा वाले हो
सब थक गए हैं
अब नहीं किया जाता
दो-चार दिन 10 दिन खूब कमाए
खूब मेहनत की
पर अब दिमाग शरीर दोनों कहते है
बस बहुत हो गया
अब नहीं हो पाएगा
और लोगों का रेला
कम होने का नाम नहीं लेता
यह भी कहना अच्छा नहीं लगता
मत आइए
आपको परेशानी होगी
क्योंकि कुंभ का तो मतलब ही है
कुंभ बन जाना
यह कोई आम तीर्थ स्थल
पर्यटन की जगह नहीं है
यह 12 साल बाद घटित होता है
वहां उस वक्त मौजूद होना
कुंभ का हिस्सा होना
अपने आप में अनोखी बात है
और दस बीस पचास किलोमीटर
चल लेने से भी
क्या फर्क पड़ेगा
फिर यह मौका तो
12 साल बाद ही आएगा
एक बुजुर्ग महिला
80 साल की उम्र पार कर चुकी है
थकने का नामोनिशान नहीं
बुजुर्ग ने कहा बस
सब दिमाग का खेल है
थकान परेशानी
जीवित होने की निशानी है
आप महाकुंभ के साक्षी बन रहे हैं
जहां एक साथ करोड़ों लोग मौजूद हैं
वहां जाम ना लगे
असुविधा न हो, पैदल न चलना पड़े
और सब कुछ सामान्य हो
यह कैसे हो सकता है
आप उस जनसमुद्र का हिस्सा है
और आप एक बूंद के बराबर भी नहीं है
बस इस बात का एहसास
करने का नाम महाकुंभ है
रेलवे स्टेशन बस अड्डा
कोई भी आने जाने का माध्यम हो
या फिर कहीं ठहरना हो खाना हो
सब कुछ अदभुत अनोखा है
और सब कुछ होने के बाद भी
कुछ भी पर्याप्त नहीं है
पर्याप्त हो कैसे सकता है
हम इंसानों की तो सीमाएं हैं
हवाई यात्रियों की लाइन
बड़ी होती जा रही है
यह हमारे खरीद सकते की ताकत
कितनी हो गई है
यही तो बता रही है
पहले कितना मुश्किल होता था
कुंभ तक आ पाने की इच्छा
अंतहीन प्रतीक्षा बनकर रह जाती थी
दूर किसी गांव से कैसे जाएंगे कैसे आएंगे
और फिर दुश्वारियों का पहाड़
हजारों किलोमीटर की यात्रा
कैसे होगी सब कुछ कैसा होगा
यह सवाल स्वाभाविक था
एक आम आदमी वैसे ही डरा
सहमा रहता है
पर आजकल तो मोबाइल का जमाना है
हाथ में मोबाइल फोन है
जहां वह सब कुछ देख रहा है
क्या कैसे कहां जैसे सारे सवाल
वह पूछ सकता है
जवाब आधे अधूरे
चाहे अनचाहे मिलते रहते हैं
पर बहुत कुछ पता चल जाता है
सच में क्या हो रहा है और
क्या नहीं हो रहा है
फिर वह निकल पड़ता है
डर विश्वास
सब कुछ एक साथ लेकर
लेकिन काफी कुछ
अब पहले से बेहतर होता है
ऐसे में कुंभ जैसी यात्रा करने में
उसे कोई दिक्कत नहीं होती
बस यात्रा के लिए
प्रस्थान करना होता है
और कैसे भी करके
वह वहां का साक्षी बन ही जाता है
तो यह जो सफर है
उम्र का है वक्त का है
और जीवन में
जो यात्रा की अनंत प्रक्रिया है
इस सिलसिले के अनवरत
होते रहना ही जीवन है
जीवित रहने की पहचान यही है
कि हम यात्रा पर सदा रहे
और अपनी पोटली बांधे रखें
जितनी छोटी होगी बेहतर होगा
क्योंकि जितना काम समान होगा
उतना ही सफर आसान होगा
ऐसे सुझाव
हमें पूरे जीवन मिलते रहे हैं
फिर कुंभ की यात्रा पर जब निकले तो
कुंभ जैसा ही अनुभव ही होना चाहिए
न जाने यह अवसर
दुबारा मिले की न मिले
ऐसे में बाजार भी अपने रंग दिखता है
वह भी खुश हो जाता है
उसकी बांछे खिल जाती हैं
क्योंकि इसकी जेब में
सबसे ज्यादा हिस्सा आता है
अमीर गरीब बड़ा छोटा
हर आदमी अपने रंग ढंग से लग जाता है
सबके अपने देखने सुनने समझने के
नजरिया और तरीके हैं
क्या फर्क पड़ता है
कौन कैसे आया कैसे गया
क्योंकि महाकुंभ इतना विस्तृत है
अनुपम है अद्वितीय है
जहां पर सबके लिए एक जैसा स्कोप है
आप VIP हैं आपका स्वागत है
आप साधारण है आम है
तो आपका कहीं अधिक स्वागत है
क्योंकि महाकुंभ को
देखने जानने समझने का
सर्वाधिक सौभाग्य
इन्हीं आम लोगों को मिलता है
जो लोग थोड़ा साधन संपन्न है
वह महाकुंभ भला कहां देख पाते हैं
वह तो खुद बेचारे बन जाते हैं
और किसी सर्कस में जो शेर होते हैं
बस उसके जैसे ही रह जाते हैं
एक खास दायरे में बंधे रहते हैं
हमेशा वह जो देखते हैं
वह पिंजरे के अंदर से होता है
आप महाकुंभ का आनंद लेना चाहते हैं
उसे देखना चाहते हैं जीना चाहते हैं
तो उसके लिए पिंजरा त्यागना पड़ेगा
पिंजरे का मोह छोड़ना
आसान काम नहीं है
पिंजरे की आदत हो गई है
बगैर पिंजरा
कोई पहचान नहीं रह गई है
ऐसे ही
कुछ पुलिस प्रशासन
शासन से जुड़े लोग हैं
मतलब हर स्तर पर
वी आई पी बनने की होड़ है
क्या
हर आदमी पिंजरा चाहता है
पिंजरे की फिराक में
मानो भटक रहा है
जबकि सच यही है
महाकुम्भ में साधारण होकर ही
आप महाकुंभ का आनंद ले सकते हैं
जैसे ही आप विशेष होने लगते हैं
सच्ची अनुभूतियां
आप तक नहीं पहुंच पाती
क्योंकि महाकुंभ जनसाधारण का रेला है
जहां भारत के
हर एक गांव का प्रतिनिधित्व है
शायद ही कोई ऐसा गांव हो
जो मेले में उपस्थित न हो
कम से कम एक आदमी तो
हर गांव से आ ही गया होगा
नहीं आया होगा तो
वह गांव कितना दुखी होगा
वह कुंभ में नहीं आ सका
चमचमाती गाड़ियो बाकी साधनों से
क्या उनसे मिला जा सकता है
उनको देखा जा सकता है
हालांकि सर्कस में जो शेर होता है
उसे तो पिंजरे में ही रहना पड़ता है
शेर उसका नाम जरूर है
एक रिंग मास्टर उसके साथ रहता है
जो शेर और सर्कस चल रहा है
उसके चारों तरफ
न जाने कितने छोटे रिंग मास्टर होते हैं
तो आप रिंग के अंदर से
चीजों को देखना चाहते हैं कि बाहर से
यह आपका निर्णय है
आप अपनी समझ से चाहे जो समझिए
बड़ा मुश्किल होता है
रिंग से बाहर निकलना
आम होना कोई आसान काम थोड़ी है
खास होना अच्छी बात है
पर खास में भी आम के जैसा जीना
बहुत मुश्किल होता है
क्योंकि प्रसिद्धि और पैसा
आम नहीं रहने देती है
और महाकुंभ होने का मतलब ही है
आम हो जाना
तो आप किस तरफ है
कई बार तो यह पता ही नहीं चलता
हम किस तरफ हैं
अपने आम होने को छोटा नहीं मानना
यही सबका आधार है
क्योंकि आम ही सबसे खास है
©️RajhansRaju
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गुजरात महाराष्ट्र से
आने वाले
नवयुवकों से मिलना हुआ
बड़े उत्साहित है
पहली बार यूपी आए हैं
क्योंकि अक्सर
हम यूपी बिहार वाले
इन राज्यों में जाते हैं
वहां के लोग यहां आएं
ऐसा तो बहुत कम होता है
आमतौर पर
आने वाले
नवयुवकों से मिलना हुआ
बड़े उत्साहित है
पहली बार यूपी आए हैं
क्योंकि अक्सर
हम यूपी बिहार वाले
इन राज्यों में जाते हैं
वहां के लोग यहां आएं
ऐसा तो बहुत कम होता है
आमतौर पर
वहां के लोग यहां नहीं आते
ऐसा ही हम मानते हैं
पर इस महाकुंभ में
वहां के भी नवयुवक आए
बड़े प्रसन्नचित, ऊर्जा से भरे,
महाकुंभ, संगम, गंगा-यमुना
अरैल झूंसी दारागंज यह सारे नाम
गूगल पर लगातार सर्च कर रहे थे
गूगल मैप पर देख रहे थे
ऐसा ही हम मानते हैं
पर इस महाकुंभ में
वहां के भी नवयुवक आए
बड़े प्रसन्नचित, ऊर्जा से भरे,
महाकुंभ, संगम, गंगा-यमुना
अरैल झूंसी दारागंज यह सारे नाम
गूगल पर लगातार सर्च कर रहे थे
गूगल मैप पर देख रहे थे

छिवकी, नैनी जंक्शन, प्रयागराज जंक्शन
संगम प्रयागराज, प्रयाग
इस तरह के नाम
बड़े कन्फ्यूज कर रहे थे
सब एक जैसे
पर जगह अलग-अलग
जरा सी चूक
पूरी जगह बदल जा रही थी
हिंदी में थोड़ी दिक्कत तो हो रहे थी
पर काम चल जाता है
फिर ए हुआ की यहां से
संगम की कितनी दूर है
उसने तुरंत गूगल मैप पर देखा
बताया करीब
उसने तुरंत गूगल मैप पर देखा
बताया करीब
10 से 12 किलोमीटर पड़ेगा
फिर अरैल की दूरी कितनी है
तीन साढे तीन किलोमीटर
यहीं पर स्नान कर लीजिए
ज्यादा दिक्कत नहीं होगी
पर नहीं हम तो
35-40 घंटे की यात्रा करके आए हैं
तो फिर 8-10 किलोमीटर
पैदल चलने से भला क्यों डरें
हम तो संगम में ही नहाएंगे
फिर गंगा मैया के जयकारे लगाते हुए
आगे बढ़ गए
फिर अरैल की दूरी कितनी है
तीन साढे तीन किलोमीटर
यहीं पर स्नान कर लीजिए
ज्यादा दिक्कत नहीं होगी
पर नहीं हम तो
35-40 घंटे की यात्रा करके आए हैं
तो फिर 8-10 किलोमीटर
पैदल चलने से भला क्यों डरें
हम तो संगम में ही नहाएंगे
फिर गंगा मैया के जयकारे लगाते हुए
आगे बढ़ गए
जय गंगा मैया
हर हर गंगे
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ऐसा एकदम सामान्य था
उनकी उम्र कुछ भी रही हो
हम कर्नाटक तेलंगाना से भी
आए लोगों से ही मिलते रहे
उड़ीसा बंगाल के
लोग भी यही बात कह रहे थे
तमिलनाडु केरल के लोगों में भी
यही एकत्व का भाव था
सनातनी हिंदू होने का
धन्य होने का
प्रयागराज में मौजूद होने का
महाकुंभ में भागीदार बनने का
जय हिन्दू जय सनातन का
उद्घोष करने का
©️ Rajhans Raju
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महाकुंभ की यादों में
हादसे भी अपनी जगह रखते हैं
बगैर परेशानियों के आज तक
कोई महाकुंभ नहीं संपन्न हुआ
हम एक हद तक संभल पाते हैं
और संभाल पाते हैं
उसके बाद
कुछ भी संभालना
कितना कठिन हो जाता है
रेलवे बस अड्डा
हमारे प्रयागराज की तरफ
आने वाली हर सड़क
जहां तिल रखने की भी जगह नहीं है
कैसे इतना कुछ संभाला जा रहा है
इस बात को सोचना
समझने से मुश्किल है
बस किसी तरह सब चल रहा है
ऐसा लगता है
कोई ईश्वरी कृपा ही है
जो चीजों को चलाए जा रही है
क्योंकि शरीर और दिमाग
तो जवाब दे जाता है
उसकी अपनी सीमाएं हैं
कितना कोई धैर्य रखेगा
हादसे भी अपनी जगह रखते हैं
बगैर परेशानियों के आज तक
कोई महाकुंभ नहीं संपन्न हुआ
हम एक हद तक संभल पाते हैं
और संभाल पाते हैं
उसके बाद
कुछ भी संभालना
कितना कठिन हो जाता है
रेलवे बस अड्डा
हमारे प्रयागराज की तरफ
आने वाली हर सड़क
जहां तिल रखने की भी जगह नहीं है
कैसे इतना कुछ संभाला जा रहा है
इस बात को सोचना
समझने से मुश्किल है
बस किसी तरह सब चल रहा है
ऐसा लगता है
कोई ईश्वरी कृपा ही है
जो चीजों को चलाए जा रही है
क्योंकि शरीर और दिमाग
तो जवाब दे जाता है
उसकी अपनी सीमाएं हैं
कितना कोई धैर्य रखेगा

अनुशासन में रहना
मुश्किल होने लगता है
अब नहीं सहा जाता
और जब इस स्थिति में
हम पहुंच जाते हैं
तभी हमारी भक्ति आस्था
परखी जाती है है
हम कैसे हैं
हमें सच में पुरुषार्थी है कि नहीं
और जब धैर्य टूटता है
जिस क्षण
हम कमजोर पड़ते हैं
यह वही समय होता है
जब दुर्घटनाएं होती है
और मासूम लोग
अपनी जान गंवा देते हैं
हम लाचार बेबस
कुछ नहीं कर पाते
ऐसा न जाने कबसे हो रहा है
हर बार कोई और जिम्मेदार होता है
हमारी गलती नहीं होती
हम कितने गैर जरूरी हैं
हमें अपनी कद्र नहीं है
कहीं भी भीड़ बन जाना
हमारी फितरत हो गई है
©️Rajhans Raju
🌹❤️🙏🙏🌹🌹
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रास्ते में एक बुजुर्ग से बात होने लगी
पता चला वह पुणे से आए हैं
पिछले एक हफ्ते से ठहरे हुए हैं
उन्होंने बताया
मराठी के साथ हिंदी अंग्रेजी गुजराती
बोल लेते हैं
हमने कहा हम लोग तो
हिन्दी अंग्रेजी तक ही रह पाते हैं
खैर आराम से
गुजराती मराठी बांग्ला
कोई बोले तो
तीन चौथाई खूब आराम से
समझ में आ जाती है
क्योंकि व्याकरण और शब्द
संस्कृत वाले ही रहते हैं
मुझे तो ऐसे ही
मलयालम तमिल तेलुगु उड़िया
में संस्कृत वाले शब्द
उच्चारण बहुत अच्छे से
समझ में आ जाते हैं
तभी राजनीति का खयाल आया
अच्छा इस वजह से
भाषाई राजनीति होती है
संस्कृत का विरोध होता है
क्योंकि इससे हम एक हैं
एकत्व का भाव मजबूत होता है
राजनीतिक दलों के लिए
यह ठीक नहीं है
जब दिल्ली में औरंगजेब बैठता था तब भी हिन्दू जनता कुम्भ में उमड़ती थी ,अतः तीर्थयात्रियों को उन्मादी कहने की धूर्तता मत कीजिये :-
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बीते कल यानी शनिवार रात मची भगदड़ में 18 यात्रियों की दम घुटने से मौत हो गई । यह अत्यंत दुखद और दर्दनाक हादसा था । लेकिन इस हादसे के बहाने जिस तरह से हिन्दू विरोधी, कुंभ विरोधी लोग एक्टिव हुए वह निश्चित ही भर्त्सना के योग्य है ।
इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं कि दिल्ली की भगदड़ रेलवे की चूक का नतीजा है। इसकी पूरी जिम्मेदारी प्रशासन की है, सत्ता की है। अंतिम समय में प्लेटफॉर्म बदलने के कारण लगने वाली दौड़ से हम सभी परिचित हैं, कभी न कभी हम आप दौड़े ही होंगे। इसे ठीक करने की दिशा में कभी काम नहीं हुआ। रेलवे सदैव धन उगाही करने में ही लगा रहा।
संदेह इस बात में भी नहीं कि हमेशा की तरह जाँच की लीपापोती होगी, कुछ निचले लोग दंडित होंगे और सब पूर्ववत चलने लगेगा। माननीय मंत्री जी अपने ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे, बल्कि इसके लिए क्षमा तक नहीं मांगेंगे। जैसे उनका दुख व्यक्त कर देना ही देश पर बहुत बड़ा उपकार हो... यही सत्ता का चरित्र होता है, यह कभी नहीं बदलेगा। हम आप भी चार दिन में इस दुर्घटना को भूल कर दूसरे मुद्दों में उलझ जाएंगे। यही जनता का चरित्र है, यह भी नहीं बदलेगा...
पर इसी के बहाने कुछ लोग कहने लगे हैं कि कुम्भ के लिए देश में 'उन्माद' पैदा किया गया। लोग उन्माद में आ कर प्रयाग की ओर भागे जा रहे हैं। पर क्या सचमुच कुम्भ में जा रही भीड़ 'उन्माद' में है? नहीं।
कुम्भ मेले में सदैव विशाल भीड़ जुटती रही है। लोकतांत्रिक भारत से पूर्व अंग्रेज शासित भारत में भी विशाल भीड़ होती रही है। यह भीड़ तब भी मंद नहीं हुई जब यात्रा के लिए जजिया देना पड़ता था।
इस बार जो भीड़ कई गुना बढ़ी है उसका कारण आम जनता में आई सम्पन्नता है, चमचमाती सड़कें हैं, बढ़ी हुई व्यक्तिगत सुविधाएं हैं। कुम्भ नहाना पारंपरिक हिन्दू की सबसे बड़ी इच्छा रही है, पर पहले यह यात्रा उतनी सरल नहीं होती थी जितनी आज है। आज सबके पास पैसा है, सो सभी जा रहे हैं। अच्छी सड़कें हैं, अपनी गाड़ी है, दो दिन की छुट्टी में ही नहा आना सम्भव हो रहा है, इसलिए वीकेंड में सभी निकल पड़ते हैं। इसमें उन्माद कहाँ है?
सरकार यदि प्रचार नहीं भी करती, तब भी भीड़ इतनी होनी थी।जब दिल्ली में औरंगजेब बैठता था, तब भी हिन्दू जनता कुम्भ में भीड़ लगाती थी। आस्था सत्ता का मुँह देख कर अधिक या कम नहीं होती।
इस भीड़ में उन्माद होता तो वह बारह बारह घण्टे के जाम को चुपचाप नहीं सहती। भीड़ उन्मादी होती तो पच्चीस पच्चीस किलोमीटर पैदल चलने के बाद भी गङ्गा मइया का दर्शन पाते ही सब भूल नहीं जाती। लोग उन्मादी होते बीस रुपये के पानी बोतल के लिए अस्सी रुपये दे कर चुपचाप आगे नहीं बढ़ते।
सत्ता से प्रश्न करना आपका अधिकार है। जिस मंच से सम्भव हो, इस अव्यवस्था पर सत्ता का गला पकड़िए, यह किया ही जाना चाहिये। लेकिन इस बहाने तीर्थयात्रियों को उन्मादी कहने की धूर्तता मत कीजिये। तीर्थयात्रियों को निशाना बनाना बंद कीजिए । तमाम बुरी घटनाओं के बाद भी यह भीड़ सबसे अनुशासित भीड़ है।
C/P
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जितना आम होंगे उतना ही खास होंगे
ReplyDeleteएक ही जिंदगी में पूरे भारत को जीने का देखने का जानने की शानदार जगह महाकुंभ है
ReplyDeleteसनातन की एकता और शक्ति का शानदार प्रगटीकरण
ReplyDeleteकुम्भ में कुछ भी सामान्य कहाँ हो सकता है
ReplyDeleteअपने धीरज और कर्तव्य का परीक्षण कर लीजिए
ReplyDeleteआइए ऐसे ही अपना विमर्श आगे बढ़ाएं
ReplyDelete