Parikrama

Thahraw

*********** 

Parikrama

ठहर

********
अरे रुक जा रे
काहे कहीं जाता है रे
पास नहीं कुछ न सही
जब सब कुछ तूँ ही है रे
अब क्या कहूं
काहे कहीं जाता है रे
न पाने की ख्वाहिश है
न कोई आजमाइश है रे
भटका है अब तक इतना
अटका रहा है कितना रे
कहने को कुछ नहीं है रे
अरे रुक जा रे
काहे कहीं जाता है रे
धूप छांव आए गए
मौसम भी बदल गए
रहा नहीं कुछ भी वैसा
जैसे चले थे घर से
अब फिर वैसे ही भागे क्यों
ठहर के थोड़ा देखे हम
अच्छे तो वैसे ही थे
जैसे पहले थे हम
फिर इतना तेज भागे क्यों
ठहर जा रे पगले
काहे कहीं जाता है रे
खुद को खो दिया तो
सोच भला क्या पाया रे
चवन्नी अठन्नी के चक्कर में
रुपया छोड़ आया रे
अरे रुक जा रे
काहे कहीं जाता है रे
©️Rajhansraju
🌹🌹🌹🌹🌹

Parikrama

सही-गलत
*************
कल तक था जो सही
अब उसकी जरूरत नहीं रही
फिर कहने को कहते हो
पर क्या कहना है
पहले से तय रखते हो
ऐसे में कोई कहे भला क्या
जब अपना अपना सबका सच है
जबकि सच
पास ही कोने में बैठा है
पर नजर भला डाले कौन
आइने में शक्ल निहारे कौन
©️Rajhansraju
🌹🌹🌹🌹
Parikrama

नजरिया
*******
मुझे देखने के लिए
सबके पास अपने अपने चश्मे है
और मैंने भी एक चश्मा लगा रखा है
सबके चश्मे की अपनी खूबी है
बस एक बात एक जैसी है
जो जैसा है
वैसा किसी को नहीं दिखता
यही मजेदार है
यह शिकायत सबको है
उम्र की सिलवटें
चेहरे पर एक दास्तान है
पर चश्मे
अपनी हद से आगे
कहाँ जा पाते हैं
और वह लोग 
जो अब किस्से बन चुके हैं
किसी चश्मे में नजर नहीं आते हैं
©️Rajhansraju
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
***************
Parikrama

ऊँचाई
********
जो जितना ऊँचा होता है
उतना ही एकाकी होता है,
हर भार स्वयं ही ढोता है
चेहरे पे मुस्कानें चिपका
मन ही मन रोता है।
©️अटल बिहारी वाजपेयी
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
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Parikrama

हम दोनों प्रतीक्षा में हैं
मैं अपनी मंज़िल की
तुम मेरी राह की
जाओ तुम वापिस चले जाओ
मैं अपनी राह खुद ही ढूंढ लूँगी
राह न मिली तो बना लूँगी
मुझे राह बनानी आती है!
©️पद्मा सचदेव
🌹🌹🌹🌹🌹🌹

कहानी
*****
कितनी कहानियां होती हैं 
लोगों के पास
कभी सुनते हैं कभी सुनाते हैं
बस यूं ही जिंदगी के रास्ते 
कट जाते हैं
चलते चलते राहों में 
ये रास्ते कभी हंसाते हैं 
कभी आंखों में आसूं भर जाते हैं
कितनी कहानियां होती है 
लोगों के पास 
कभी सुनते हैं कभी सुनाते हैं
आओ ना बैठो मेरे पास 
थोड़ी देर के लिए
कुछ मैं तुम्हारी सुनता हूं 
कुछ तुम्हें अपनी सुनाता हूं
आओ ना फिर कल के लिए 
एक नई कहानी बनाते हैं
कितनी कहानियां होती हैं 
लोगों के पास 
कभी सुनते हैं कभी सुनाते हैं
©️कमलाकांत शुक्ल
***********
Parikrama

पथिक
*******
(संशोधित संस्करण)
अरे रुक जा 
काहे कहीं जाए रे
न जाने कब फिर
यह लम्हा आए रे
आश नहीं कुछ ना सही
तूँ ही नजर आए रे
तेरे सिवा कुछ और नहीं
मैंने कहीं मांगा नहीं
न पाने की ख्वाइश है
ना कोई आजमाइश है
अब का कहूँ
काहे कहीं जाए रे
अरे रुक जा रे..
काहे कहीं जाए रे...
तेरी तलाश में भटका बहुत हूँ
धूप छांव आए गए
मौसम बदल गए
उम्र के न जाने कितने
पड़ाव गुजर गए
रहा नहीं कुछ भी वैसा
जैसे चले थे हम रे
किस चीज की ख्वाहिश थी
वह भी याद नहीं रे
हम अब भी चल रहे हैं
क्योंकि आदत हो गई है
जबकि ठहर कर देखना है
पाने खोने का फर्क समझना है
अच्छे तो वैसे ही थे
जैसे पहले थे हम
चवन्नी अठन्नी के चक्कर में
रुपया छोड़ जाए हम
फिर काहे कहीं भागे हम
रुकजा रे
पगले काहे काहे जाए रे
©️Rajhansraju
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
Parikrama

परिक्रमा
******
जाते वक्त उसने
सिर्फ पलट कर देखा
और मुस्कुरा दिया
मुस्कुराने की कोई वजह तो नहीं थी
वह बहुत तकलीफ से गुजर रहा था
कुछ भी
उसके हिसाब से नहीं हो रहा था
फिर भी मुस्कुरा रहा था
वजह क्या थी
ढेर सारे सवाल थे
जिसके जवाब तलाशे जाने थे
उसे झगड़ना था
पूछना था.. ऐसा क्यों??
पर उसने कुछ नहीं पूछा
बस मुस्कुराते हुए चल दिया
उसको यूं जाता देख
क्या प्रतिक्रिया करनी है
यह समझना
थोड़ा मुश्किल हो रहा था
वह सही है कि गलत
आपस में
इस बात पर भी चर्चा
कैसे कहां से शुरू किया जाए
किसी के पास
कोई शब्द नहीं था
Parikrama
बस चुपचाप
उसको जाते हुए देख रहे थे
धीरे-धीरे
वह आँखों से ओझल हो गया
इतना पुराना संबंध
जैसे
सदियां बीत गई हो
एकदम सूरज और चांद के
रिश्ते जैसा ही था
जहां किसी को
किसी से शिकायत नहीं थी
या यूं कहें
ऐसा कोई वास्ता ही नहीं था
जिससे कोई शिकायत होती
Parikrama

बस दोनों
अपने काम में लगे रहते
वही सूरज और चांद की तरह
उन्हें कभी महसूस नहीं हुआ
वह कोई काम कर रहे हैं
एकदम प्राकृतिक स्वाभाविक
उन्हें तो वैसा ही होना है
निरंतर अपनी कक्षा में गति करना है
उसके कारण और परिणाम की
फिक्र नहीं करनी है
इसी तरह
रिश्ते नाते और आपस में बंधे लोग
बहुत सी चीजों के आदी हो जाते हैं
वह अपनी अपनी धूरी
या फिर
अपने परिक्रमा पथ पर
बस घूमते रहते हैं

Parikrama
यह दिन रात
उन्हीं की वजह से हो रहा है
मौसम बदल रहा है
उन्हें एहसास
नहीं रह जाता
उसे जब आना होता है
अपने समय पर आ ही जाता है
जब उसे जाना होता है
चला जाता है
यही काम चांद भी
सदियों से करता रहा है
दोनों का अस्तित्व
एक दूसरे के साथ है कि बगैर है
दोनों ने यह जानने समझने की
कोशिश ही नहीं की
सूरज अपनी जगह चमकता रहा
चांद रात में
चांदनी बिखेरता रहा
दोनों चुपचाप अपनी राह
यूं ही चलते रहे
सवाल जवाब से सदियों दूर
सदियों की यात्रा
अहर्निश अनंत
निःशब्द
©️Rajhansraju

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

दुलहिन का गीत

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C/P

Social network 

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नववधू के सोलह शृंगार होते हैं, 

सत्रहवाँ अलंकार है रुदन! 

दुलहिन के रुदन में अनेकान्त है. 

कोई जान नहीं सकता 

दुलहिन क्यूँ रोती है. 

वो किसी एक बात पर नहीं रोती. 

और कोई एक कभी जान नहीं सकता 

उसके रोने के सभी प्रयोजन! 

तुम भी रोना, 

मेरे उस रुदन के लिए, 

जो तुम्हारा है. 

मैं तुम्हारे लिए भी रोऊंगी. 

तुम भी मेरी डार में बिछाना 

सजल नयन के पलक पाँवड़े! 

ग्राम सीमान्त पर कहूंगी विदा, 

जब तुम लौट रहोगे घर. 

सदैव की भाँति विलम्ब से. 

प्रेम का कोई मुहूर्त कभी शुभ नहीं होता, 

परिणय का होता है. 

मुझे निहारना अंतिम बार. 

यह विदा है. 

समस्त सुबहें और संध्याएं, 

समस्त स्वप्न और आलम्बन 

यहाँ समाप्त होते हैं. 

इस जीवन का बस इतना ही ऋण था. 

गाड़ीवान गा रहा है. 

बहुत पीछे छूट गए हैं परिजन. 

वर वसन्त के दृश्य ताक रहा है. 

तुम मूर्ति की तरह अडिग क्यूँ हो?

आगे बढ़कर उठा लो वह मंजूषा. 

वधू की आँख के आँसू अमूल्य होते हैं! 

इन्हें सहेजकर रखना, 

यह मेरा स्मृतिचिह्न है. 

अब मरती हूँ. तुम भी खप रहो. 

देह में होकर प्रेम करना पाप था, 

यह पाप क्यूँ किया!

यह जीवन दण्ड का अरण्य है, 

यहाँ मन की माप का सुख कहाँ? 

अब तभी मिलेंगे, 

जब ठण्डी हो रहेगी चिता. 

राख से फूल चुनेंगे. 

संध्या की किनोर बुनेंगे! 

यह तो विदा है, 

पर तब तक करोगे ना प्रतीक्षा, मेरे प्यार!

©️अज्ञात 

🌹🌹🌹😍😍😍🌹🌹🌹

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Parikrama

बुद्धम् शरणम् गच्छामि 

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बुद्ध ! 

मेरे कान में मत बोलो

बुद्धम शरणम गच्छामि 

तुम्हरा बुद्धत्व 

विरक्ति का मार्ग सुझाता है 

और मैं ठहरा अनुरक्ति का पुजारी 

मुझे खिलते हुए फूलों में आसक्ति है

भ्रमरों का गीत मुझे खींचता है

इनसे विरक्ति मेरे लिए सहज़ नही !

Parikrama

तुम जन्मे राजा के घर में,

इसीलिये शायद 

तुमने आसानी से चुन लिया

पलायन का रास्ता 

सोते हुए राहुल के साथ 

कर दिया यशोधरा का परित्याग 

पर मैं कैसे चलूं तुम्हारी राह 

मुझ पर दो जून की 

रोटियों की जिम्मेदारी है 

उस परिवार के प्रति 

जिसने मुझे जीवन दिया है

मुझे उन उम्मीदों का भी मान रखना है 

जो मुझे सफलता के 

शिखर पर देखना चाहती हैं।

अभी मुझे बच्चे की तरह मुस्कुराना है

बुद्ध ! तुम भले ऍशिया के ज्योति पुंज हो 

पर अभी मुझे अपनी माँ की 

आंखों में जगमगाना है

इस असार संसार की पीड़ा सहते हुए 

लोगों की पीड़ा पर मलहम लगाना है 

मुझे अभी समेटना है अपनी बाहों में

अपनी प्रेयसी को 

अभी तो मुझे उन्मुक्त कंठ से 

प्रेमगीत गाना है।

अभी महसूस करना है 

मुझे पिता होने का सौभाग्य 

उतारना है अपने पिता के ऋण को 

लगाना है भाई को गले से..

बुद्ध ! 

तुम जिसे मोह कहते हो 

उसी की अनगिन जंजीरों में 

जकड़ा हुआ हूँ मैं 

तुम्हीं बताओ ― 

मैं सहजता से कैसे कह दूँ 

"बुद्धम शरणम गच्छामि'

©️अभिषेक श्रीवास्तव 

🌹🌹❤️🙏🙏🙏🌹❤️🌹

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एक संदेश नेताओं से ईर्ष्या रखने वाले मित्रों के नाम 
देश का best PACKAGE वाला job और साथ में 
कार्यकाल पूरा होते ही OPS का भी बाप 
मतलब जबरदस्त Pension 
आजीवन मिलता है...

नेतागीरी 
 🌹🌹🌹
यदि हममें से कोई 
इस पद पर 
पदासीन हो जाये 
कितने जन्मों का पाप 
समझ लेना काम आया है 
पुण्य का काम यहाँ नहीं है 
आँख अर्जुन वाली हो
कुर्सी से न डिगने वाली हो
यहाँ पहुँचने खातिर 
सिर्फ़ एक हुनर से 
काम नहीं चलता है 
किताबी दुनिया वालों की 
यहाँ दाल नहीं गलती है 
जो गुणा गणित में माहिर हो
चमचा भी अच्छा खासा हो
नब्ज वक्त की समझकर
सही समय पर 
पलटी मारने आती हो
वह लग जाये करे तैयारी 
इन महागुणों को ऐब न मानो 
अब चलो अभी प्रस्थान करें
नेतानगरी को धाम कहें 
इच्छा प्रबल हम सबमें है 
आगे बढ़े आगाज करें 
हममें से ही कोई 
अर्जुन बन आगे बढ़े
पर अफसोस नहीं धिक्कार है 
अब भी बचा हुआ है 
न जाने क्यों 
हम सबमें एक चीज है 
नाम उसका 
शायद.. 
जमीर है 
©️Rajhansraju 

कोशिश करिये यही बनइये
********

मासूमियत 
************
उसकी हर बात 
बहुत हसीन है
एक मासूम मुस्कराहट 
चेहरे पर हर वक्त रहती है 
वह आदमी नहीं 
कोई तश्वीर लगता है 
इस तरह भी कोई होता है 
जिसके होने पर 
यकीन करना मुश्किल हो 
अभी उसे देखा 
वैसे ही हंस रहा है 
जहाँ सब हैं 
उनसे थोड़ी दूर 
जिधर से धूप आ रही 
उस तरफ खड़ा है
छांव की वजह से अनजान 
एक उत्सव चल रहा है 
वह अब भी दूर ही है 
धूप जा चुकी है 
आज ठंड बहुत है 
अंधेरा बढ़ रहा है 
वह तश्वीर वाला शख्स 
नजर नहीं आ रहा है 
वैसे वह रोशनी में भी 
नजर नहीं आता 
नेपथ्य में कुछ गढ़ता रहता है 
पर्दे ऐसे ही उठते गिरते रहते हैं 
लोगों ने जोकर के लिए 
खूब जमकर ताली बजाई 
वह कौन है? 
अब तक किसी को पता नहीं 
अलाव जलने लगे हैं 
आग की गुनगुनी गर्मी 
मौसम को हसीन बना रही है 
जो आग जली है 
वह बुझने न पाये 
इसी कोशिश में 
वह सूखी लकड़ियों की 
व्यवस्था में लगा है 
अलाव पूरी रात कैसे जले 
यह जिम्मेदारी उसी की है 
वह शख़्स वही है 
जो तश्वीर में ढ़ल गया है 
वह देखो 
वैसे ही 
मुस्करा रहा है 
अलाव से न केवल गर्मी 
बल्कि रोशनी भी आने लगी है 
©️Rajhansraju
 
 दाग अच्छे हैं 
*********
कुछ कच्चे हों, कुछ पक्के हों, 
जो भाए तुझको, तेरे जैसे हों
रंग दे, रंग ले, एक रंग में
चेहरा सबका खो जाये 
जैसा तूँ चाहे 
सब वैसा हो जाये
कई मुखौटे छूटे हैं
नये फिर से पहने हैं
हाथ गुलाल लेकर 
पहले अपना चेहरा रंगा है 
एकदम सच्चा न सही 
पर झूठा भी तो है नहीं 
जितना भी है, जैसा भी है 
अपने जैसा ही है 
हाथ उठाऊँ दांया तो 
बांया उसका उठ जाता है 
अब जरा सा गौर कर 
हर तरफ अक्स है 
आइनों के बीच 
तूँ अकेला बैठा है 
©️Rajhansraju
पहचान 
*********
फिर दंगे हुए 
शहर के कई मोहल्ले 
और कई शहरों के कुछ मोहल्ले 
कई दिन तक 
संभलने की कोशिश करते रहे 
अभी कुछ साल ही गुजरे थे 
बस संभल ही रहे थे कि 
फिर समेटने के लिए कुछ बचा ही नहीं
चुपचाप श्मशान बन चुके 
अपने वजूद को 
पहचानने की कोशिश कर रहा है 
तभी भीड़ की आवाज बढ़ने लगी 
शोर बहुत तेज था 
उसे समझ में नहीं आ रहा था 
वह क्या करें 
खुद को हिंदू कहे या फिर मुसलमान कहे
उसने ऐसा कोई लिबास भी नहीं पहना था
जिससे पता चले वह किस ब्रांड का है 
वह अपने वजूद की तलाश में 
इस कदर खोया था 
शोर के शब्द 
वह नहीं समझ पा रहा था 
भीड़ एकदम उसके करीब आ गई 
उसमें कई लोग उसके अपने थे 
रोज का मिलना जुलना था 
तभी उसने एक बच्चे से पूछा 
तूँ इनके साथ क्या कर रहा है 
स्कूल का वक्त है 
किताबों की जगह
तेरे हाथ में क्या है 
तूँ भी फसादी बन गया 
अभी कल ही तो घंटों 
सही गलत को लेकर चर्चा हुई थी 
और तुमने माना था 
उसकी मर्जी के बगैर 
एक भी पत्ता हिलता नहीं है 
वह हर जगह मौजूद है 
उसको हमारी नहीं 
हमको उसकी जरूरत है 
उसका क्या नाम है
किसी ने जाना नहीं है 
कोई किताब क्या वह पढ़ता है 
वह कौन सी भाषा में हमसे कहता है 
फिर कौन सुनता है बेजुबानो की 
गढ़ा है जिसने सब कुछ 
और उसी में समाया भी है 
फिर बता 
किस भाषा के शब्द 
किस चीज में रहता नहीं है 
तेरे दावे झूठे हैं, 
तेरे शब्द काफी नहीं है 
वह कोई इंसान नहीं है 
जो जी हुजूरी से मान जाए 
जैसा तू चाहता है 
सब वैसा हो जाए 
तो यह जान ले 
उसको तेरे खिदमत की जरूरत नहीं है 
यह जो इबादत के तरीके हैं 
यह तेरे लिए हैं 
ठीक वैसे ही जैसे 
जब सफर पर हम निकलते हैं 
तो कुछ देर ठहर कर सोचते हैं 
कहां जाना है कैसे जाना है 
कौन सा सामान साथ रखना है 
मौसम कैसा है वहां किस तरह रहना है 
कौन सी जुबान बोली जाती है 
कौन सी पोशाक पहनी जाती है 
कहीं ठंड बहुत ज्यादा तो नहीं है 
या फिर हर तरफ रेत है
वहाँ सिर्फ तपन रहती है 
ऐसे ही बन जाती हैं 
खाने पीने पहनने की आदतें 
और व  उसका अपनी जुबान में
कोई नाम रख देता है 
क्योंकि उसकी समझ से परे 
बहुत कुछ है 
जिसका जवाब 
उसे जब तक नहीं मिल जाता 
उसे एक उम्मीद चाहिए 
कोई है जो उसे हर पल देखता है 
जो उसके अंदर भी है और बाहर भी 
जब यह कहता है सब उसकी मर्जी है 
तब फिर क्यों उसको जो मानते हैं 
या फिर नहीं मानते हैं 
ऐसे नहीं वैसे मानते हैं
यह नहीं वह कहते हैं 
मेरे जैसा कुछ भी नहीं करते 
उसके वैसा होने में उसी की तो मर्जी है 
यह बातें कल ही तो हुई थी 
और तुमने भी खूब ठहाके लगाए थे 
आज क्या हो गया 
उस बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया 
क्योंकि वह जानता है 
सच यही है 
पर भीड़ बनने का 
अपना ही मजा है 
चेहरा उसका धुंधला होने लगा 
धीरे-धीरे भीड़ में खोने लगा 
तभी वह जोर से चिल्लाया 
तुम ऐसा नहीं कर सकते 
तुम यह नहीं बन सकते 
अब यही देखना बाकी रह गया था 
मेरे बच्चे लौट आओ
वह सिर्फ रो रहा था 
इस दौरान 
यह भी तय हो चुका था 
वह किस तरफ का आदमी है 
वह किस तरफ का आदमी है
©️Rajhansraju

*********
प्रेम 

विवाहित स्त्रियाँ जब होती हैं प्रेम में 
तो उतनी ही प्रेम में होती हैं 💜
जितनी होती हैं कुँवारी लड़कियां
प्रेम कुँवारेपन और विवाह को नहीं जानता
केवल मन के दर्पण को देखता
मन के राग को सुनता है

विवाहित स्त्रियाँ भी समाज से डरते हुए
करती जाती हैं प्रेम
किसी अमर बेल की तरह
क्योंकि प्रेम के बीज बोये नहीं जाते
वे स्वत ही हृदय की नम सतह पाकर
कभी भी कहीं भी किसी क्षण
प्रेम बनकर अंकुरित हो उठते हैं

प्रेम में हो जाती हैं वे भी
सोलह सत्रह बरस की कोई नयी सी उमंग
ललक उठता है उनका भी मन
प्रेमी की एक झलक पाने को
दैहिक लालसा से परे होता है उसका प्रेम
वे आलिंगन के स्पर्श से ही मात्र
आत्मा के सुख में प्रवेश कर जाती है

वे भी बिसरा देती है अपना हर एक दुख
प्रेमी की आँखों में डूबकर
उसकी हर आहट से हो जाती है वो मीरा
तार तार बज उठता है उसके मन का संगीत

प्रेमी की एक आवाज से
सोलहवें सावन सा मचल उठता है
भावनाओं का बादल
खिल उठती है वह पलाश के चटक रंगों की तरह
लहरा उठती है उसकी खुशियां
बसंत के पीले फूलों की फसलों की तरह

नहीं चाहतीं वह अपने प्रेम पर
समाज का कोई भी लांछन
नहीं चाहती कोई कुल्टा कहकर
उसके प्रेम का करे अपमान
बनी रहना चाहती है अपने बच्चों सबसे अच्छी माँ
और पति की कर्तव्यनिष्ठ पत्नी
वह विवाह के सामाजिक बंधनों के दायित्वों से
नहीं फेरना चाहती अपने कदम

वह बनी रहना चाहती है
अपनी इच्छाओं के समर्पण से एक सुंदर मन की स्त्री
जैसे बनी रहना चाहती है कुँवारी लड़कियाँ
अपने भाई की लाडली बहन
और माँ बाप की समझदार बेटी
अपने प्रेमी की होने के सपनों के साथ

विवाहित स्त्रियाँ भी अपने प्रेमी का हर दुख
अपने आँचल में छुपा लेना चाहती है
अपनी हर प्रार्थना में करती हैं
उनके सुख की कामना के लिए आचमन
परन्तु कुँवारी प्रेमिकाओं की तरह
उसके सपनों की कोई मंजिल नहीं होती

वह अपने सपनों में जीना चाहती है
अपने प्रेमी के साथ एक पूरा जीवन
गाड़ी के दो पहिए की तरह चलता है
उसका प्रेम और उसकी गृहस्थी

रात के बैराग्य मठ पर नितांत अकेले
वे पति की पीठ पर देखती हैं प्रेमी का चेहरा
पाना चाहती है प्रेमी की भावनाओं में
अपनेपन की छाँव और जीवन की विषमताओं में
उसकी सरलता का साथ।

कुँवारी लड़कियाँ प्रेमी के संग
बंधना चाहती है परिणय सूत्र में
जबकि विवाहिता स्त्रियाँ प्रेमी को नहीं चाहती खोना
बंध जाना चाहती है विश्वास के अटूट बंधन में
वे विवाहिता होने की ग्लानि में
प्रेम की आहूति नहीं देती
बल्कि संसार की सारी प्रेमिकाओं की तरह
अपने प्रेमी को मन प्राण से करती जाती है प्रेम।❤️

Unknown
**********
शायद 
मैं जानता हूँ
मैं कौन हूँ
जो  हर बार यह 
"शायद" 
 ले आता है
जिससे तुम्हें बुरा न लगे
क्यों मुझे खुद पर इतना यकीन है 
तुम्हें यह न लगे 
थोड़ा बहुत 
मैं खुद को जानता हूँ
और... 
तुम्हें भी.. 
खैर.. 
जैसा हूँ ऐसा ही रहना चाहता हूँ
थोड़ा.. जो भी समझ लो ठीक है 
मैं जानता हूँ
तुमने जो भी जब किया
बस मैं किसी को खोना नहीं चाहता 
इसलिए ऐसे ही रहता हूँ 
यह इतनी बार 
"मैं"
यह बिलकुल ठीक नहीं है
पर अपनों को कभी कभी
कुछ ऐसे ही बता भी देना चाहिए
हम सब में एक जैसी कमियां हैं
और तुम्हारी तरह मैं भी अधूरा हूँ 
सफर लम्बा है
साथ चलना है
बहुत सी चीजों को 
नजरअंदाज करना है
©️Rajhansraju
दुश्मन 
*******
कहानी नहीं, असली घटना है, ज़िला सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश की। 
एक पंडित जी और एक बाबू साहब (ठाकुर साहब) जिगरी दोस्त थे- दो जिस्म एक जान। बचपन से चालीसवें तक। फिर जाने क्या हुआ कि दुश्मनी हो गई। 

अब पूरब गवाह है कि जिगरी दोस्त दुश्मन हो जायें, तो दुश्मनी भी पनाह माँगने लगती है। सो वही हुआ। हर दूसरे दिन गोली चलना- लठैत छोड़िये, दोनों के कई बेटे तक दुश्मनी की आग का ईंधन बन गये, मगर दुश्मनी चलती रही।

खैर, ये होते हवाते बाबू साहब की बेटी की शादी का वक़्त आ गया,, और पूरब इसका भी गवाह है कि दुश्मनी जितनी भी बड़ी हो- बहन बेटियों की शादी ब्याह की बात आये तो बंदूकें ख़ामोश हो जाती हैं। एकदम ख़ामोश। और किसी ने यह परंपरा तोड़ी तो वो ज़िंदगी और पूरब दोनों की नज़र से गिर जाता है। 

सो उस गाँव में भी वक्ती सही, सुकून उतर आया था। 
और फिर उतरी बारात। ठाकुरों की थी तो गोलियाँ दागती, आतिशबाज़ी करती, तवायफ़ के नाच के साथ...। परंपरा थी तब की। 

पंडित जी उस दिन अजब खामोश थे। 
और लीजिये- अचानक उनकी नाउन चहकती हुई घर में- (गाँव में सारे संपन्न परिवारों के अपने नाऊ ठाकुर होते थे और नाउन भी- अक्सर एक ही परिवार के हिस्से।) 

पंडिताइन को चहकते हुए बताई कि "ए भौजी- बरतिया लौटत बा। कुल हेकड़ई खतम बाबू साहब के।"

पंडिताइन स्तब्ध...🫡 और पंडित जी को तो काटो तो ख़ून नहीं। बहुत मरी आवाज़ में पूछा कि ‘भवा का’? 

नाउन ने बताया कि समधी अचानक कार माँग लिहिन- माने दाम। बाबू साहब के लगे ओतना पैसा रहा नाय तो बरात लौटे वाली है। 
पंडित जी उठे......- दहाड़ पड़े....निकालो जीप। 
मतलब साफ- बाकी बचे बेटे, लठैत सब तैयार। 

दस मिनट में पूरा अमला बाबू साहब के दरवाज़े पर- 
कम से कम दर्जन भर दुनाली और पचासों लाठियों के साथ।
बाबू साहब को खबर लगी तो वो भागते हुए दुआर पे- 
"एतना गिरि गवा पंडित। आजै के दिन मिला रहा।" 

पंडित जी ने बस इतना कहा कि "दुश्मनी चलत रही, बहुत हिसाब बाकी है बकिल आज बिटिया के बियाह हा। गलतियो से बीच मा जिन अइहा।"
बाबू साहब चुपचाप हट गये। 

पंडित जी पहुँचे समधी के पास- पाँव छुए- बड़ी बात थी, पंडित लोग पाँव छूते नहीं, बोले... "कार दी-"
 पीछे खड़े कारिंदे ने सूटकेस थमा दिया। 
द्वारचार पूरा हुआ। शादी हुई। 
अगले दिन शिष्टाचार/बड़हार। 
(पुराने लोग जानते होंगे- मैं शायद उस अंतिम पीढ़ी का हूँ जो शिष्टाचार में शामिल रही है)

अगली सुबह विदाई के पहले अंतिम भोज में बारात खाने बैठी तो पंडित जी ने दूल्हा छोड़ सब की थाली में 101-101 रुपये डलवा दिये- दक्षिणा के। खयाल रहे, परंपरानुसार थाली के नीचे नहीं, थाली में।  

अब पूरी बारात सदमे में, क्योंकि थाली में पड़ा कुछ भी जो बच जाये वह जूठा हो गया और जूठा जेब में कैसे रखें। 

समधी ने पंडित जी की तरफ़ देखा तो पंडित जी बड़ी शांति से बोले। 
बिटिया है हमारी- देवी। पूजते हैं हम लोग। आप लोग बारात वापस ले जाने की बात करके अपमान कर दिये देवी का। इतना दंड तो बनता है। और समधी जी- पलकों पर रही है यहाँ- वहाँ ज़रा सा कष्ट हो गया तो दक्ष प्रजापति और बिटिया सती की कहानी सुने ही होंगे। आप समधी बिटिया की वजह से हैं। और हाँ दूल्हे को दामाद होने के नाते नहीं छोड़ दिये- इसलिये कि ये क्योंकि अपने समाज में उसका हक़ ही कहाँ होता है कोई! 

खैर बारात बिटिया, मने अपनी बहू लेकर गई- 
पंडित जी वापस अपने घर। बाबू साहब हाथ जोड़े तो बोले बस- दम निकरि गय ठाकुर। ऊ बिटिया है, गोद मा खेलाये हन, तू दुश्मन। दुश्मनी चली। 

खैर- बावजूद इस बयान के फिर दोनों ख़ानदानों में कभी गोली नहीं चली। पंडित जी और बाबू साहब न सही- दोनों की पत्नियाँ गले मिल कर ख़ूब रोईं, बच्चों का फिर आना जाना शुरू हुआ।

क्या है कि असल हिंदुस्तानी और हिंदू बेटियों को लेकर बहुत भावुक होते हैं, उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं। फिर चाहे बेटी दुश्मन की ही क्यों न हो। 

जो नहीं करते वे और चाहे जो हों, न हिंदू हो सकते हैं, न हिंदुस्तानी।
C/P
साभार



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Comments

  1. साहित्य हमे जीवन कि अबूझ पहेली को समझने के लिए एक रास्ता दिखाता है इस रास्ते पर चलाने से इसे समझना आसान हो सकता अब मर्जी हमारी है कि हम उधर गुजारें या फिर कहीं और चले जाएं । शुक्रिया

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  2. अंतहीन यात्रा और अंतहीन परिक्रमा

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  3. बूढ़े बाप ने
    आहिस्ता से देखा
    हमेशा की तरह कुछ कहता नहीं है
    मेरे बच्चे तूँ आसमान को
    बस देख लिया कर
    मैं उसी का हिस्सा हूँ
    इस अनंत विस्तार का ही
    बहुत छोटा सा किस्सा हूँ
    ©️Rajhansraju

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