एक युवक ने कल रात्रि पूछा था:'
मैं अपने मन से लड़ रहा हूँ,
पर शांति उपलब्ध नही होती है।
मैं क्या करूँ मन के साथ कि शांति पा सकूँ?'
मैंने कहा:'अंधेरे के साथ कोई कुछ नहीं कर सकता।
वह है ही नहीं।वह केवल प्रकाश का न होना है।
इसलिए उससे लड़ना अज्ञान है।
ऐसा ही मन है।वह भी नहीं है,
उसकी भी कोई स्व सत्ता नहीं है।
वह आत्म-बोध का अभाव है,
ध्यान का अभाव है।
इसलिए उसके साथ भी
सीधे कुछ नहीं किया जा सकता।
अंधेरा हटाना हो,तो प्रकाश लाना होता है।
और मन को हटाना हो,तो ध्यान को लाना होता है।
मन को नियंत्रित नहीं करना है,
वरन जानना है कि वह है ही नहीं।
यह जानते ही उससे मुक्ति हो जाती है।'
उसने पूछा:'यह जानना कैसे हो?'
'यह जानना साक्षी चैतन्य से होता है।
मन के साक्षी बनें।
जो है-उसके साक्षी बनें।
कैसा होना चाहिए,
इसकी चिंता छोड़ दें।
जो है, जैसा है,
उसके प्रति जागें, जागरूक हों।
कोई निर्णय न लें,कोई नियंत्रण न करें,
किसी संघर्ष में न पड़ें ।
बस ,मौन होकर देखें।
देखना ही-यह साक्षी होना ही
मुक्ति बन जाता है।
साक्षी बनते ही चेतना दृष्य को छोड़
द्रष्टा पर स्थिर हो जाती है।
इस स्थिति में
अकंप प्रज्ञा की ज्योति उपलब्ध होती है।
और यही ज्योति मुक्ति है।
ओशो
आत्मदर्शन
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सुबह थी,
फिर दोपहर आयी,
अब सूरज डूबने को है।
एक सुंदर सूर्यास्त पश्चिम पर फैल रहा है।
मैं रोज दिन को उगते देखता हूँ,
दिन को छाते देखता हूँ,
दिन को डूबते हूँ।
और फिर
यह देखता हूँ कि न तो मैं उगा,
न मैंने दोपहर पायी
और ना ही मैं अस्त पाता हूँ।
कल यात्रा से लौटा तो
यही देख रहा था।
सब यात्राओं में ऐसा ही अनुभव होता है।
राह बदलती है
पर राही नहीं बदलता है।
यात्रा तो परिवर्तन है,
पर यात्री अपरिवर्तित मालूम होता है।
कल कहाँ था,आज कहाँ हूँ;
कभी क्या था,
अब क्या है-
पर जो मैं कल था,
वही आज भी हूँ;;
जो मैं कभी था
,वही अब भी हूँ
शरीर वही नही है,
मन वही नहीं है,
पर मैं वही हूँ।
दिक और काल में परिवर्तन है
पर मैं में परिवर्तन नहीं है।
सब प्रवाह है
पर यह मैं प्रवाह का अंग नहीं है।
यह उनमें होकर भी
उनसे बाहर और उनके अतीत है
यह नित्य यात्री,
यह चिर-नूतन,
चिर-परिचित यात्री ही आत्मा है।
परिवर्तन के जगत में
इस अपरिवर्तित के प्रति जाग जाना ही
मुक्ति है।
ओशो
एक कहानी
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पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने, इस सदी के बड़े से मनोवैज्ञानिक ने, जब आदमियों के 'टाइप' बांटे, तो उसने भी चार में बांटे। नाम अलग, लेकिन बांटे चार में ही। इसमें कुछ मज़बूरी है। चार ही प्रकार हैं मोटे। फिर तो एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही प्रकार हैं।
कुछ लोग हैं, जिनकी ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ बहती है ; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गवां देंगे, लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे। अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है किस - किस जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को जीभ में रखने से वह मर जाएगा, लेकिन फिर भी वह जानना चाहता है। हम कहेंगे, पागल है ;बिल्कुल पागल है! ऐसे जानने की जरूरत क्या है? लेकिन हमारी समझ में न आयेगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जान के रहेगा। वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें कौन सा फायदा है? इस आदमी को क्या मिल रहा है? हम समझ न पाएंगे, सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ पाएगा, अन्यथा न समझ पाएंगे।
आइंस्टीन को क्या मिल रहा है? सुबह से सांझ तक लगा है प्रयोगशाला में! क्या मिल रहा है? कौन सा धन? यह सुबह से सांझ तक, पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है? नहीं 'किसलिए' का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने के लिए लगा हुआ है।
कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म भिन्न हैं। चार तरह के गुण हैं ;चार तरह के 'आर्च टाइप' हैं। जुंग ने ' आर्च टाइप ' शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल प्रकार हैं। एक - जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के लिए, अंतहीन यात्रा करती है।
अब जो लोग चाँद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा? कुछ बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना है। चांद पर भी नहीं रुकेंगे - और, और भी आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं - गुण से।
दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए 'पावर', शक्ति सब कुछ है ;शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाये उसी की यात्रा में लगा रहता है। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। उसे इंकार नहीं किया जा सकता। क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है। अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है ;कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि जब भी कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार करता है, तब बड़ी अड़चन में पड़ जाता है। क्योंकि वह, वह काम कर रहा है जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा है, जिसे वह कर सकता था। और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी तरह कर पाएं जो करने को नियति, ' डेस्टिनी ' द्वारा निर्धारित है ;जो करने को प्रभु ने उत्प्रेरित किया है ;अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती ;आनंद नहीं मिल सकता।
जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं ; जो गीत हमसे पैदा होने का था, वह हो जाए। लेकिन अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ जायेगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण ने उतने आदरित, सम्मानित और सर्वश्रेष्ठ, ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पायी नहीं। वह दीन का दीन ही रहा। वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज ही करता रहा। आदर उसे बहुत था, सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते थे। राज्य उसके चरणों में लौट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म के - दूर जंगल में बैठकर। पागल रहा होगा! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर रखने आया था, तो कुछ मांग ही लेना था!
महर्षि कणाद के जीवन में कथा है। कणाद ब्राह्मण का टाइप है। नाम ही कणाद पड़ गया इसलिए, कि कभी इतना अनाज भी घर में न हुआ कि संग्रह कर सके। रोज खेत में कण-कण बीन लेता था ;कणों को बीनने की वजह से नाम पड़ गया - कणाद। सम्राट को खबर लगी कि कणाद कण बीन-बीन कर खेतों से खा रहा है। सम्राट ने आज्ञा दी कि भरो रथों को धन-धान्य से! चलो कणाद के पास।
बहुत धन-धान्य को लेकर सम्राट पहुंचा। कणाद के चरणों में सिर रखा और कहा कि ' मैं बहुत धन-धान्य ले आया हूं। दुख होता है कि मेरे राज्य में आप रहें और आप कण बीन-बीनकर खाएं! आप जैसा महर्षि और कण बीने - खेतों में, तो मेरा अपमान होता है।'
तो कणाद ने कहा, ' क्षमा करें! खबर भेज देते ;इतना कष्ट क्यों किया? मैं तुम्हारा राज्य छोड़कर चला जाऊं। ' सम्राट ने कहा,' आप क्या करते हैं! कैसी बात कहते हैं? आप मेरी बात नहीं समझे! ' कणाद तो उठकर खड़े हो गए। ज्यादा तो कुछ था नहीं ;जो दो-चार किताबें थीं - बांधने लगे।
सम्राट ने कहा,' आप यह क्या करते हैं? 'कणाद ने कहा,' तेरे राज्य की सीमा कहाँ है, वह बता। मैं सीमा छोड़ बाहर चला जाऊं। क्योंकि मेरे कारण तू दुखी हो, तो बड़ा बुरा है।' सम्राट ने कहा, 'यह मेरा मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह निवेदन करने आया कि बहुत धन-धान्य लाया हूं, वह स्वीकार कर लें। '
कणाद ने कहा, 'उसे तू वापस ले जा, क्योंकि उस धन-धान्य की व्यवस्था, सुरक्षा और सुविधा कौन करेगा? उसकी देख-रेख कौन करेगा? हमें फुर्सत नहीं है ;हम अपने काम में लगे हैं। थोड़ी-सी फुर्सत मिलती है ;सुबह घूमने निकलते हैं ;उसी समय खेत से कुछ दाने बीन लाते हैं, तो उससे काम चल जाता है। कोई झंझट नहीं है हमें। तू यह सब वापस ले जा। इसकी फिक्र कौन करेगा? और हम इसकी फिक्र करेंगे कि हम अपनी फ़िक्र करेंगे - जिस खोज में हम लगें हैं। तू जल्दी कर और वापस ले जा ;और दोबारा इस तरफ मत आना। और अगर आना हो, तो खबर दे देना। हम छोड़कर चले जाएंगे। हम कण कहीं भी बीन लेंगे ;सभी जगह मिल जाएंगे। '
अब यह जो आदमी है, इसे कण बीनने में सुविधा मालूम पड़ती है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है ;कोई 'मैनेजमेंट ' में नाहक समय जाया नहीं करना पड़ता है। नहीं तो बहुत से मालिक घूम-फिर कर मैनेजर ही रह जाते हैं। लगते हैं कि मालिक हैं, होते कुल-जमा मैनेजर हैं।
एंड्रू कार्नेगी, अमेरिका का अरबपति मरा, तो उसने अपने सेक्रेटरी से पूछा, ऐसे ही मज़ाक में, कि ' अगर दोबारा जिन्दगी फिर से हम दोनों को मिले, तू तो मेरा फिर से सेक्रेटरी होना चाहेगा कि तू एंड्रू कार्नेगी होना चाहेगा और मुझको सेक्रेटरी बनाना चाहेगा?' उस सेक्रेटरी ने कहा, -'आप नाराज तो न होंगे?' एंड्रू कार्नेगी ने कहा, ' नाराज क्यों होऊंगा! बिल्कुल स्वाभाविक है, तू कार्नेगी बनना चाहे। ' उसने कहा,' माफ करें मैं यह नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूँ कि मैं फिर सेक्रेटरी ही होना चाहूंगा। ' एंड्रू कार्नेगी ने कहा, 'पागल तू एंड्रू कार्नेगी नहीं बनना चाहता?' 'बिलकुल भूल कर भी नहीं। आपको जब तक नहीं जानना था, तब तक तो कभी भगवान से प्रार्थना भी कर सकता था ; पर अब नहीं कभी नहीं कर सकता। ' उसने पूछा,' कारण क्या है? 'तो उसने कहा,' मैं अपनी डायरी में कारण नोट किया हुआ है।'
उसने अपनी डायरी में लिख छोड़ा था कि हे परमात्मा, भूल कर मुझे कभी एंड्रू कार्नेगी मत बनाना। क्योंकि एंड्रू कार्नेगी अपने दफ्तर में सुबह नौ बजे आता है। चपरासी दस बजे आते हैं। क्लर्क साढ़े दस बजे आते हैं। मैनेजर ग्यारह बजे आता है। डायरेक्टर्स एक बज़े आते हैं। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते हैं। चार बजे मैनेजर चला जाता है। फिर क्लर्क चले जाते हैं। फिर चपरासी चले जाते हैं। एंड्रू कार्नेगी साढ़े सात बजे शाम को जाता है। मुझे कभी एंड्रू कार्नेगी मत बनाना। '
अब यह एंड्रू कार्नेगी दस अरब रुपए छोड़कर मरा है। लेकिन मालिक नहीं था। मैनेजर भी नहीं था। चपरासी भी नहीं था। चपरासी भी दस बजे आता है ;चपरासी भी साढ़े सात बजे चला जाता है। कार्नेगी चपरासी से पहले से मौजूद है ;चपरासी के बाद दफ्तर छोड़ रहे हैं!
आखि़र यह आदमी 'मैनेज' कर रहा है - किसके लिए? नहीं ; लेकिन इसका भी अपना टाइप है। वह तीसरा 'टाइप' है। धन - वैश्य का 'टाइप' है।इसे प्रयोजन नहीं है - न ज्ञान से, न शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। उस ब्रह्म से कोई वास्ता नहीं है। उसे ब्रह्माण्ड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों से मतलब नहीं है। पास के रुपये काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता जाएगा। यह भी इसका 'टाइप' है। यह वैश्य का टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है।
चौथा एक शूद्र का 'टाइप' है ;श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं है जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए ;ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी लोग नहीं रह सकते।
यह खारापन ही
ReplyDeleteउसे समुंदर बनाता है
जो उसके साथ रहता है
वह कुछ भी कर ले
उसमें
नमक का स्वाद
रह जाता है
©️Rajhansraju
जिंदगी की हकीकत से रूबरू कराने के आभार
ReplyDeleteयह पागल समझने का अजब खेल है
ReplyDeleteहर आदमी खुद को सही समझता है
नमक का स्वाद जरूरी है
ReplyDeleteआप सभी को आभार
ReplyDeleteयह हमारी अपनी खोज है जिसे हमें खोजना और पाना है
ReplyDeleteओशो जीवन की निरन्तरता का नाम है और जींद रहने की निशानी है
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