Kahawat
कहावत
रीति निराली दुनिया के
जो चलता रहे वह सही
न जाने न समझे
बस मैं सही
कहने को भी कुछ नया नहीं
बस मुझको भी कहना है
कहके कुछ कहा नहीं
बस दुहराया जो कहा गया है
तेरी मति इसमें कहीं नहीं
रटी रटाई दुहराकर
सोचो क्या पाया है
जो पास तुम्हारे अपना था
वो भी अब रहा नहीं
तुमसे अच्छी
बच्चों कि दुनिया है
जहां सब नया है
न कोई भेद दुराग्रह है
सब कुछ अजमाने कि ख्वाहिश है
जानने कि इच्छा अनंत है
खुश रहना आता है
सच में बच्चा बने रहना
बड़ा मुश्किल है
क्योंकि
सच्चा निश्छल होना है
भाग दौड़ में
पड़ाव उम्र के
तमाम पार कर ली है
इस दौरान
न जाने कितने रंग बदले
नये चोले में दिखता है
ठग विद्या में माहिर है
अपनों को ही ठगता है
इस कारस्तानी में
भूल भंयकर होती है
निकला था
जिस दुनिया को ठगने
वह ठगों कि दुनिया है
ठहर कर देखा खुद को
हाथ नहीं था कुछ भी
दामन उसका खाली है
©️ RajhansRaju
आहट
जब शब्द
अपनी सीमा तय कर लेते हैं
तब सिर्फ
मौन रह जाता है
यह शब्दों से
कहीं ज्यादा गूंजता है
हर तरफ
उसके मौन के चर्चे हैं
जिसे अब भी
तुम सुन नहीं रहे हो
क्योंकि तुम
लगातार बोल रहे हो
बहुत कह लिया
तनिक तुम भी
बे-शब्द हो जाओ
अब
कुछ नहीं कहते हैं
चलो मौन होकर
एक दूसरे का मौन सुनते है
©️Rajhansraju
वजूद
मेरा होना उसका होना है
यह खुद की खुद तक यात्रा है
मेरा नाम उसका है
मैंने आवाज़ लगाई
कोई कहीं दूर तक
नजर नहीं आता है
मेरे सिवा कौन यहाँ है
जो मुझको देखता-सुनता है
मैंने अपने जैसों से पूछा
क्या उन्हें भी ऐसा लगता है
दूर कहीं से
कोई आवाज आती सुनाई देती है
जो हरदम गूंजा करती हैं
मेरे सन्नाटे तोड़
मुझे पागल करती रहती है
वहीं नदी किनारे
सामने एक बावला बैठा था
जो अपने में खोया था
बड़े ध्यान से सुन रहा था
मेरी तरफ पलटकर देखा था
जोर-जोर हंसने लगा
मुझसे कहने लगा
तुझे अब भी खुद पर यकीन नहीं है
यह आवाज तेरी है
जो तुझ तक आना चाहती है
वही गूंज रही है
बस थोड़ा सा ठहर
यहीं किसी किनारे बैठ जा
धीरे-धीरे
एकदम साफ सुनाई देगी
फिर दोनों बैठेंगे ऐसे ही
दुनिया
पागल समझेगी
©️Rajhansraju
दिखास और छपास जैसी बीमारी सामान्य हो गई है और जिन्हें अगुआ होना चाहिए वह खुद रास्ता भूल गए हैं, परंतु विशेष बने रहने कि इच्छा बिना योग्यता के बनाए रखना चाहते हैं जो कि संभव नहीं है योग्य बनिए, योग्यता ही तय करती है आपको कहां होना चाहिए और देर सबेर आपको अपनी मंजिल मिलनी ही है तो फिर सिद्धांत से समझौता मत करिए और नायक बनना चाहते हैं तो अपने कार्य और व्यवहार में वह गुण ले आइए...
आप हैं आदरणीय पंडित सुरेश चंद्र मिश्र जी जो शास्त्रों का नियमित अध्ययन, चिंतन, मनन करते रहते हैं। आपको सुनना हमेशा शानदार अनुभव होता है और आप सभी उनका श्रवण करने के लिए आमंत्रित हैं
असली संन्यासी
चीन में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा?
होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना। जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।
कहते है, बारह साल बीत गए। वह संन्यासी चौके के पीछे, अंधेरे गृह में चावल कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे।
सुबह से उठता, चावल कूटता रहता।
रात थक जाता, सो जाता। बारह साल बीत गए।
वह कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया।
क्योंकि जब गुरु ने कह दिया, तो बात खतम हो गयी।
जब जरूरत होगी वे आ जाएंगे, भरोसा कर लिया।
कुछ दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे,
लेकिन अब चावल ही कूटना हो दिन-रात तो पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या?
धीरे-धीरे पुराने खयाल विदा हो गए।
उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा।
खाली हो गए, जीर्ण-शीर्ण हो गए।
बारह साल बीतते-बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता,
सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन,
न कोई उलझन। सीधा-सादा काम, विश्राम।
बारह साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात मेरे दरवाजे पर चार पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा देना आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बडा पंडित था, वही रात लिख गया आकर। उसने लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है। धूल को साफ कर दो, धर्म उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता है। सुबह गुरु उठा, उसने कहा, यह किस नासमझ ने मेरी दीवाल खराब की? उसे पकड़ो।
वह पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि वह भी खुद डरा था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली थी। यह कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था। अस्तित्वगत न था। प्राणों में इसकी कोई गुंज न थी। वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह गया था, खबर कर देना; अगर गुरु कहे कि पकड़ो, तो मेरी खबर मत देना।
सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सुनी उनकी बात, वह हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम हंसते हो! बात क्या है? उसने कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं। यह किस नासमझ ने लिखा? वे चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी इतनी हो गया! हम शास्त्रों से सिर ठोंक-ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं अगर कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मै बोल देता हूं अगर कोई लिख भी दे जाकर--मैं तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा नहीं--उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर उन्होंने कहा, बोल! हम लिख देते है जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर--कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है।
आधी रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे कोई सवाल नही, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट-कूटकर मर गए।
जीवन में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी। तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है।
कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है। असली सवाल भीतर जाने का है। अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे। थोड़ा--बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए। भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए। बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया।
अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने-सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे।बीज अंकुरित होगा।
"ओशो"
भारत को जानो
ईसाई मिशनरियों के एजेंट, वामी, नोबुधिये और भी मटे बस कुछ सवालो का जवाब दे दें, तो अगली सुबह गंगा नहाऊं और परसो सुबह की ट्रेन से यूरेशिया निकल जाऊं
1- अगर आर्य विदेशी हैं तो आर्यों के सारे तीर्थ भारत में ही क्यूँ हैं ?
2- अगर आर्य विदेशी हैं तो भारत भूमि की नदियों गंगा, यमुना, सरयू की वे पूजा क्यूँ करते हैं ?
3- अगर आर्य विदेशी हैं तो हिमालय, कामदगिरि, कैलाश आदि भारत भूमि के पर्वतों को क्यों पवित्र और पूज्य मानते हैं?
4-अगर आर्य विदेशी हैं तो, नीम, पीपल, तुलसी आदि की पूजा आर्य ही क्यों करते हैं, किसी दूसरे देश मे इन पेड़-पौधों की पूजा होती क्यों नहीं दिखती ?
5-अगर आर्य विदेशी हैं तो ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी के गोत्र आपस में क्यों मिले हुए हैं ?
6-आर्य विदेशी हैं तो भारत भूमि के हर गांव में तुम तथाकथित मूलनिवासियों के रहते कैसे बस गए, जबकि विदेशी होने के नाते तो उनकी पहुंच सिर्फ नगरों तक होनी चाहिए थी।
7- हर सभ्यता के चाटुकार इतिहासकार अपनी विजय गाथा लिखते हैं, आर्यों के किसी धर्म ग्रंथ या पुस्तक में भारत को विजय करने की कहानी क्यूँ नहीं मिलती ?
8- अगर आर्य विदेशी ही थे तो मुगलों के आने से पहले, भारत क्यों सोने की चिड़िया कहा जाता था, जिसकी उस समय की जी डी पी विश्व की एक तिहाई, लगभग 35%थी ? क्या कोई गुलाम समाज देश को सोने की चिड़िया बना सकता है ? क्या कोई दुखी, शोषित, असंतुष्ट समाज देश को 35 % जी डी पी तक पहुंचा सकता है !
द्वारा - आर्या प्रीति
भारत की परंपरा
आहार के नियम भारतीय 12 महीनों अनुसार
चैत्र ( मार्च-अप्रैल) – इस महीने में चने का सेवन करे क्योकि चना आपके रक्त संचार और रक्त को शुद्ध करता है एवं कई बीमारियों से भी बचाता है। चैत्र के महीने में नित्य नीम की 4 – 5 कोमल पतियों का उपयोग भी करना चाहिए इससे आप इस महीने के सभी दोषों से बच सकते है। नीम की पतियों को चबाने से शरीर में स्थित दोष शरीर से हटते है।
वैशाख (अप्रैल – मई)- वैशाख महीने में गर्मी की शुरुआत हो जाती है। बेल का इस्तेमाल इस महीने में अवश्य करना चाहिए जो आपको स्वस्थ रखेगा। वैशाख के महीने में तेल का उपयोग बिल्कुल न करे क्योकि इससे आपका शरीर अस्वस्थ हो सकता है।
ज्येष्ठ (मई-जून) – भारत में इस महीने में सबसे अधिक गर्मी होती है। ज्येष्ठ के महीने में दोपहर में सोना स्वास्थ्य वर्द्धक होता है , ठंडी छाछ , लस्सी, ज्यूस और अधिक से अधिक पानी का सेवन करें। बासी खाना, गरिष्ठ भोजन एवं गर्म चीजो का सेवन न करे। इनके प्रयोग से आपका शरीर रोग ग्रस्त हो सकता है।
अषाढ़ (जून-जुलाई) – आषाढ़ के महीने में आम , पुराने गेंहू, सत्तु , जौ, भात, खीर, ठन्डे पदार्थ , ककड़ी, पलवल, करेला आदि का उपयोग करे व आषाढ़ के महीने में भी गर्म प्रकृति की चीजों का प्रयोग करना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
श्रावण (जूलाई-अगस्त) – श्रावण के महीने में हरड का इस्तेमाल करना चाहिए। श्रावण में हरी सब्जियों का त्याग करे एव दूध का इस्तेमाल भी कम करे। भोजन की मात्रा भी कम ले – पुराने चावल, पुराने गेंहू, खिचड़ी, दही एवं हलके सुपाच्य भोजन को अपनाएं।
भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) – इस महीने में हलके सुपाच्य भोजन का इस्तेमाल कर वर्षा का मौसम् होने के कारण आपकी जठराग्नि भी मंद होती है इसलिए भोजन सुपाच्य ग्रहण करे।
आश्विन (सितम्बर-अक्टूबर) – इस महीने में दूध , घी, गुड़ , नारियल, मुन्नका, गोभी आदि का सेवन कर सकते है। ये गरिष्ठ भोजन है लेकिन फिर भी इस महीने में पच जाते है क्योकि इस महीने में हमारी जठराग्नि तेज होती है।
कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) – कार्तिक महीने में गरम दूध, गुड, घी, शक्कर, मुली आदि का उपयोग करे। ठंडे पेय पदार्थो का प्रयोग छोड़ दे। छाछ, लस्सी, ठंडा दही, ठंडा फ्रूट ज्यूस आदि का सेवन न करे , इनसे आपके स्वास्थ्य को हानि हो सकती है।
अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) – इस महीने में ठंडी और अधिक गरम वस्तुओ का प्रयोग न करे।
पौष (दिसम्बर-जनवरी) – इस ऋतू में दूध, खोया एवं खोये से बने पदार्थ, गौंद के लाडू, गुड़, तिल, घी, आलू, आंवला आदि का प्रयोग करे, ये पदार्थ आपके शरीर को स्वास्थ्य देंगे। ठन्डे पदार्थ, पुराना अन्न, मोठ, कटु और रुक्ष भोजन का उपयोग न करे।
माघ (जनवरी-फ़रवरी) – इस महीने में भी आप गरम और गरिष्ठ भोजन का इस्तेमाल कर सकते है। घी, नए अन्न, गौंद के लड्डू आदि का प्रयोग कर सकते है।
फाल्गुन (फरवरी-मार्च) – इस महीने में गुड का उपयोग करे। सुबह के समय योग एवं स्नान का नियम बना ले। चने का उपयोग न करे।
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|| उर्वशी-पुरुरवा ||
उर्वशी थक जाती है इंद्र के सामने नाचते—नाचते और प्रार्थना करती है कि कुछ दिन की छुट्टी मिल जाए। मैं पृथ्वी पर जाना चाहती हूं। मैं किसी मिट्टी के बेटे से प्रेम करना चाहती हूं।
देवताओं से प्रेम बहुत सुखद हो भी नहीं सकता। हवा हवा होंगे। मिट्टी तो है नहीं, ठोस तो कुछ है नहीं। ऐसे हाथ घुमा दो देवता के भीतर से, तो कुछ अटकेगा ही नहीं। कोरे खयाल समझो, सपने समझो। कितने ही सुंदर ही सुंदर लगते हों, मगर इंद्रधनुषों जैसे।
स्वभावत: उर्वशी थक गयी होगी। स्त्रियां पार्थिव होती हैं। उन्हें कुछ ठोस चाहिए। नाचते—नाचते इंद्रधनुषों के पास उर्वशी थक गयी होगी, यह मेरी समझ में आता है। उर्वशी ने कहा कि मुझे जाने दो। मुझे कुछ दिन पृथ्वी पर जाने दो। मैं पृथ्वी की सौंधी सुगंध लेना चाहती हूं। मैं पृथ्वी पर खिलनेवाले गुलाब और चंपा के फूलों को देखना चाहती हूं। फिर से एक बार मैं पृथ्वी के किसी बेटे को प्रेम करना चाहती हूं।
चोट तो इंद्र को बहुत लगी, क्योंकि अपमानजनक थी यह बात। लेकिन उसने कहा : ‘ अच्छा जा, लेकिन एक शर्त है। यह राज किसी को पता न चले कि तू अप्सरा है। और जिस दिन यह राज तूने बताया उसी दिन तुझे वापिस आ जाना पड़ेगा।’
उर्वशी उतरी और पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। बड़ी प्यारी कथा है उर्वशी और पुरुरवा की ! पुरुरवा—पृथ्वी का बेटा; धूप आए तो पसीना निकले और सर्दी हो तो ठंड लगे। देवताओं को न ठंड लगे, न पसीना निकले। मुर्दा ही समझो।
मुर्दों को पसीना नहीं आता, कितनी ही गर्मी होती रहे, और न ठंड लगती। तुमने मुर्दों के दांत किटकिटाते देखे? .क्या खाक दांत किटकिटाके ! और मुर्दा दांत किटकिटाए तो तुम ऐसे भागोगे कि फिर लौटकर नहीं देखोगे।
पुरुरवा के प्रेम में पड़ गयी। ऐसी सुंदर थी उर्वशी कि पुरुरवा को स्वभावत: जिज्ञासा होती थी—जिज्ञासा मनुष्य का गुण
है—कि पुरुरवा उससे बार—बार पूछता था : ‘तू कोन है? हे अप्सरा जैसी दिखाई पड़नेवाली उर्वशी, तू कोन है? तू आयी कहां से? ऐसा सौंदर्य, ऐसा अलौकिक सौंदर्य, यहां पृथ्वी पर तो नहीं होता!’
और कुछ चीजों से वह चिंतित भी होता था। उर्वशी को धूप पड़े तो पसीना न आए। उर्वशी वायवीय थी, हल्की—फुल्की थी, ठोस नहीं थी। प्रीतिकर थी, मगर गुड़िया जैसी, खिलौने जैसी। न नाराज हो, न लड़े—झगड़े। जिज्ञासाएं उठनी शुरू हो गयीं पुरुरवा को।
आखिर एक दिन पुरुरवा जिद ही कर बैठा। रात दोनों बिस्तर पर सोए हैं, पुरुरवा ने कहा कि आज तो मैं जानकर ही रहूंगा कि तू है कौन? तू आयी कहां से? नहीं तू हमारे बीच से मालूम होती। अजनबी है, अपरिचित है। नहीं तू बताएगी तो यह प्रेम समाप्त हुआ। यह तो धमकी थी, मगर उर्वशी घबड़ा गई और उसने कहा कि फिर एक बात समझ लो। मैं बताती तो हूं, लेकिन बता देते ही मैं तिरोहित हो जाऊंगी। क्योंकि यह शर्त है।
पुरुरवा ने कहा : ‘कुछ भी शर्त हो…।’ उसने समझा कि यह सब चालबाजी है। औरतों की चालबाजिया ! क्या—क्या बातें निकाल रही है ! तिरोहित कहां हो जाएगी ! तो उसने बता दिया कि मैं उर्वशी हूं _ थक गयी थी देवताओं से। पृथ्वी की सौंधी सुगंध बुलाने लगी थी। चाहती थी वर्षा की बूंदों की टपटप छप्पर पर, सूरज की किरणें, चांद का निकलना, रात तारों से भर जाना, किसी ठोस हड्डी—मांस—मज्जा के मनुष्य की छाती से लगकर आलिंगन। लेकिन अब रुक न सकूंगी।
पुरुरवा उस रात सोया, लेकिन उर्वशी की साड़ी को पकड़े रहा रात नींद में भी। सुबह जब उठा तो साड़ी ही हाथ में थी, उर्वशी जा चुकी थी।
तब से कहते हैं _ पुरुरवा घूमता रहता है, भटकता रहता है, पूछता फिरता है : ‘उर्वशी कहां है?’ खोज रहा है। शायद यह हम सब मनुष्यों की कथा है। प्रत्येक आदमी उर्वशी को खोज रहा है। कभी—कभी किसी स्त्री में धोखा होता है कि यह रही उर्वशी, फिर जल्दी ही धोखा टूट जाता है।
"उर्वशी" शब्द भी बड़ा प्यारा है— हृदय में बसी, उर्वशी। कहीं कोई हृदय में एक प्रतिमा छिपी हुई है, जिसकी तलाश चल रही है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं : ‘प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री की एक प्रतिमा है, प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की एक प्रतिमा है, जिसको वह तलाश रहा है, तलाश रही है। मिलती नहीं है प्रतिमा कहीं। कभी—कभी झलक मिलती है कि हां यह स्त्री लगती है उस प्रतिमा जैसी; बस लेकिन जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। कभी कोई पुरुष लगता है उस जैसा; फिर जल्दी ही पता चल जाता है कि बहुत फासला है। और तभी दूरियां शुरू हो जाती हैं। पास आते, आते, आते, सब दूर हो जाता है
ओशो,
मेरा स्वर्णिम भारत
विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था। संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण मैं मील दो मील का चक्कर लगाकर उस मोहल्ले से बचकर घर पहुँचता था। उस मोहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न था ।यह उस वेश्याओं के मोहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए - कि वेश्या के मोहल्ले से जानकर गुजरें। जानकर, बचकर गुजरें, तो भी वही है ;फर्क नहीं है।
विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। जयपुर के पास एक छोटी सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक स्वागत समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत समारोह कर सकता था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बुला ली - विवेकानंद के स्वागत समारोह के लिए। राजा का स्वागत समारोह था ;उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा।
ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। वे अपने तम्बू में ही बैठ गये और उन्होंने कहा, 'मैं नहीं जाऊंगा।' वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि 'एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है ;एक लोहे का टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि दोनों को ही सोना कर दे। अगर पारस का पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूं और कसाई के घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस नकली है। वह पारस असली नहीं है।
उस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया - 'प्रभुजी, मेरे अवगुण चित्त न धरो।' विवेकानंद के प्राण कंप गए। जब सुना कि पारस पत्थर की खूबी तो यही है कि 'वेश्या' को भी स्पर्श करे, तो सोना हो जाए। भागे ;तम्बू से निकले और पहुंच गए वहां, जहां वेश्या गीत गा रही थी। उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने वेश्या को देखा, और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई विकर्षण। उस दिन मैंने जाना की संन्यास का जन्म हुआ है।
विकर्षण भी हो तो वह आकर्षण का ही रूप है ;विपरीत है। वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है-कहीं अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से डरता है।
विवेकानंद ने कहा, 'उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे माँ ही दिखाई पड़ सकी। कोई विकर्षण न था।
ओशो
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हो गया,
दीक्षा के दूसरे ही दिन किसी श्राविका के घर उसे भिक्षा लेने बुद्ध ने भेज दिया। वह वहां गया। रास्ते में दो - तीन घटनाएं एसी घटीं लौटते में, उनसे वह बहुत परेशान हो गया।
रास्ते में उसके मन में खयाल आया कि मुझे जो भोजन प्रिय हैं, वे तो अब नहीं मिलेंगे। लेकिन श्राविका के घर जाकर पाया कि वही भोजन थाली हैं जो उसे बहुत प्रीतिकर हैं। वह बहुत हैरान हुआ। फिर सोचा संयोग होगा, जो मुझे पसंद है वही आज बना होगा।
️वह भोजन करता है तभी उसे खयाल आया कि रोज तो भोजन के बाद में विश्राम करता था दो घड़ी, आज तो फिर धूप में वापस लौटना है। लेकिन तभी उस श्राविका ने कहा कि भिक्षु बड़ी अनुकंपा होगी अगर भोजन के बाद दो घड़ी विश्राम करो। बहुत हैरान हुआ। जब वह सोचता था यह तभी उसने यह कहा था, फिर भी सोचा संयोग कि ही बात होगी कि मेरे मन भी बात आई और उसके मन में भी सहज बात आई कि भोजन के बाद भिक्षु विश्राम कर ले।
चटाई बिछा दी गई, वह लेट गया, लेटते ही उसे खयाल आया कि आज न तो अपना कोई साया है, न कोई छप्पर है अपना, न अपना कोई बिछौना है, अब तो आकाश छप्पर है, जमीन बिछौना है।
यह सोचता था, वह श्राविका लौटती थी, उसने पीछे से कहा: भंते! ऐसा क्यों सोचते हैं? न तो किसी की शय्या है, न किसी का साया है।
अब संयोग मानना कठिन था, अब तो बात स्पष्ट थी। वह उठ कर बैठ गया और उसने कहा कि मैं बड़ी हैरानी में हूं, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरा अंत:करण तुम पढ़ लेती हो? उस श्राविका ने कहा: निश्चित ही।
पहले तो, सबसे पहले स्वयं के विचारों का निरीक्षण शुरू किया था, अब तो हालत उलटी हो गई, स्वयं के विचार तो निरीक्षण करते-करते क्षीण हो गए और विलीन हो गए, मन हो गया निर्विचार, अब तो जो निकट होता है उसके विचार भी निरीक्षण में आ जाते हैं। वह भिक्षु घबड़ा कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं जाऊं, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। उस श्राविका ने कहा: इतने घबड़ाते क्यों हैं? इसमें घबड़ाने की क्या बात है?
लेकिन भिक्षु फिर रुका नहीं। वह वापस लौटा, उसने बुद्ध से कहा: क्षमा करें, उस द्वार पर दुबारा भिक्षा मांगने मैं न जा सकूंगा।
बुद्ध ने कहा: कुछ गलती हुई? वहां कोई भूल हुई?
उस भिक्षु ने कहा: न तो भूल हुई, न कोई गलती, बहुत आदर-सम्मान और जो भोजन मुझे प्रिय था वह मिला, लेकिन वह श्राविका, वह युवती दूसरे के मन के विचारों को पढ़ लेती है, यह तो बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो कामवासना भी उठी, विकार भी उठा था, वह भी पढ़ लिया गया होगा? अब मैं कैसे वहां जाऊं? कैसे उसके सामने खड़ा होऊंगा? मैं नहीं जा सकूंगा, मुझे क्षमा करें!
बुद्ध ने कहा: वहीं जाना पड़ेगा। अगर ऐसी क्षमा मांगनी थी तो भिक्षु नहीं होना था। जान कर वहां भेजा है। और जब तक मैं न रोकूंगा, तब तक वहीं जाना पड़ेगा, महीने दो महीने, वर्ष दो वर्ष, निरंतर यही तुम्हारी साधना होगी। लेकिन होशपूर्वक जाना, भीतर जागे हुए जाना और देखते हुए जाना कि कौनसे विचार उठते हैं, कौन सी वासनाएं उठती हैं, और कुछ भी मत करना, लड़ना मत जागे हुए जाना, देखते हुए जाना भीतर कि क्या उठता है, क्या नहीं उठता।
वह दूसरे दिन भी वहीं गया। सोच लें उसकी जगह आप ही जा रहे हैं, और वह श्राविका आपका मन पढ़ लेती है, और वह बहुत सुंदर है, बहुत आकर्षक है, बहुत सम्मोहक है, और वह मन पढ़ लेती है आपका। हां, मन न पढ़ती होती, यह आपको पता न होता, तो फिर मन में आप कुछ भी करते, आज क्या करेंगे? आज आप ही जा रहे हैं उसकी जगह भिक्षा मांगने, रास्ते पर आप हैं। वह भिक्षु बहुत खतरे में है, अपने मन को देख रहा है, जागा हुआ है, आज पहली दफा जिंदगी में वह जागा हुआ चल रहा है सड़क पर, जैसे-जैसे उस श्राविका का घर करीब आने लगा, उसका होश बढ़ने लगा, भीतर जैसे एक दीया जलने लगा और चीजें साफ दिखाई पड़ने लगीं और विचार घूमते हुए मालूम होने लगे। जैसे उसकी सीढ़ियां चढ़ा, एक सन्नाटा छा गया भीतर, होश परिपूर्ण जग गया। अपना पैर भी उठाता है तो उसे मालूम पड़ रहा है, श्वास भी आती-जाती है तो उसके बोध में है। जरा सा भी कंपन विचार का भीतर होता है, लहर उठती है कोई वासना की, वह उसको दिखाई पड़ रही है। वह घर के भीतर प्रविष्ट हुआ, मन में और भी गहरा शांत हो गया, वह बिलकुल जागा हुआ है। जैसे किसी घर में दीया जल रहा हो और एक-एक चीज, कोना-कोना प्रकाशित हो रहा हो।
वह भोजन को बैठा, उसने भोजन किया, वह उठा, वह वापस लौटा, वह उस दिन नाचता हुआ वापस लौटा। बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा: अदभुत हुई बात। जैसे-जैसे मैं उसके निकट पहुंचा और जैसे-जैसे मैं जागा हुआ हो गया, वैसे-वैसे मैंने पाया कि विचार तो विलीन हो गए, कामनाएं तो क्षीण हो गईं, और मैं जब उसके घर में गया तो मेरे भीतर पूर्ण सन्नाटा था, वहां कोई विचार नहीं था, कोई वासना नहीं थी, वहां कुछ भी नहीं था, मन बिलकुल शांत और निर्मल दर्पण की भांति था।
बुद्ध ने कहा: इसी बात के लिए वहां भेजा था, कल से वहां जाने की जरूरत नहीं। अब जीवन में इसी भांति जीओ, जैसे तुम्हारे विचार सारे लोग पढ़ रहे हों। अब जीवन में इसी भांति चलो, जैसे जो भी तुम्हारे सामने है, वह जानता है, तुम्हारे भीतर देख रहा है। इस भांति भीतर चलो और भीतर जागे रहो। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे विचार, वासनाएं क्षीण होती चली जाएंगी। जिस दिन जागरण पूर्ण होगा उस दिन तुम्हारे जीवन में कोई कालिमा, कोई कलुष रह जाने वाला नहीं है। उस दिन एक आत्म-क्रांति हो जाती है। इस स्थिति के जागने को, इस चैतन्य के जागने को मैं कह रहा हूं--विवेक का जागरण ।
ओशो
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इस कारस्तानी में
ReplyDeleteभूल भंयकर होती है
निकला था
जिस दुनिया को ठगने
वह ठगों कि दुनिया है
ठहर कर देखा खुद को
हाथ नहीं था कुछ भी
दामन उसका खाली है
©️ RajhansRaju
🌹🌹🌹🌹
वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा?
ReplyDeleteयह आवाज तेरी है
ReplyDeleteजो तुझ तक आना चाहती है
वही गूंज रही है
बस थोड़ा सा ठहर
यहीं किसी किनारे बैठ जा
धीरे-धीरे
एकदम साफ सुनाई देगी
फिर दोनों बैठेंगे ऐसे ही
दुनिया
पागल समझेगी
©️Rajhansraju
यह खारापन ही
ReplyDeleteउसे समुंदर बनाता है
जो उसके साथ रहता है
वह कुछ भी कर ले
उसमें
नमक का स्वाद
रह जाता है
©️Rajhansraju
यह आवाज तेरी है
ReplyDeleteजो तुझ तक आना चाहती है
वही गूंज रही है
बस थोड़ा सा ठहर
यहीं किसी किनारे बैठ जा
धीरे-धीरे
एकदम साफ सुनाई देगी
फिर दोनों बैठेंगे ऐसे ही
दुनिया
पागल समझेगी
©️Rajhansraju
शुक्रिया
ReplyDeleteजब शब्द
ReplyDeleteअपनी सीमा तय कर लेते हैं
तब सिर्फ
मौन रह जाता है