आजाद परिंदे यह आसमान में उड़ने वाले आजाद पंछी जिंहे देखकर हर शख़्स में ख्वाहिश जग जाती है आसमान की ऊंचाई तो कुछ भी नहीं है बस पर चाहिए उड़ना आना चाहिए आजादी का मुकम्मल मुकाम कहीं है? जहां हद की भी कोई हद नहीं है उसे ही तो आसमान कहते हैं जिन हदों तक परिंदे जा सकते हैं उसके आगे भी न जाने कितनी हदें हैं आसमान कुछ ऐसे ही बना है और हम भी कुछ इसी तरह की आजादी चाहते हैं जहां कोई हद न हो सिर्फ आसमान हो चिड़ियों को देखकर उसी हद की ख्वाहिश में जीते हैं जो अनहद है यह परिंदे जो आसमान के सैलानी है जिंहे देखकर हर शख़्स उड़ने की चाहत रखता है बदकिस्मती देखिए उन इंसानों की वह परिंदों को पिंजरे में कैद रखना चाहता हैं जबकि किसी भी चिड़िया के लिए यह तो सजा है जिसे एक पंछी बखूबी समझता है तेरी फितरत भी तो उसी परिंदे जैसी है तूँ आसमान में उड़ना चाहता है इसका मतलब तो यही है पिंजरे का मतलब तूँ भी समझता है चलो अब उड़ान का सच कहते हैं चाहे जितनी ऊंचाई तक पहुँच जाएं पर आसमान में कोई ठहर नहीं सकता उसे फिर इसी जमीन पर लौटना पड़ता है सांझ को परिंदे लौट आते है इसी साख पर जहां उसक
सूखा दरख़्त हर किसी के लिए, एक मियाद तय है, जिसके दरमियाँ सब होता है, किसी बाग में, आज एक दरख्त सूख गया, हलांकि अब भी, उस पर चिड़ियों का घोसला है, शायद उसके हरा होने की उम्मीद, अब भी कहीं जिंदा है, मगर इस दुनियादारी से बेवाकिफ, इन आसमानी फरिश्तों को, कौन समझाए? अपनी उम्र पार करने के बाद, भला कौन ठहरता है? किसी बगीचे में, पौधे की कदर तभी तक है, जब तक वह हरा है, उसके सूखते ही, उसको उसकी जगह से, रुखसत करने की, तैयारी होने लगती है ऐसे ही उस पर, कुल्हाड़ियां पड़ने लगी, बेजान सूखा दरख्त, आहिस्ता-आहिस्ता बिखरने लगा, वह किसका दरख्त है, अब यह सवाल कोई नहीं पूछता, क्योंकि सूखी लकड़ियां, किस पेड़ की हैं, इस बात से कोई मतलब नहीं है, बस उन्हें ठीक से जलना चाहिए, जबकि हर दरख़्त की, एक जैसी दास्तान है, वह अपने लिए, कभी कुछ नहीं रखता, देते रहना उसकी फितरत है, सूख जाने के बाद भी वह किसी चूल्हे में जलता है, भूख मिटाने का काम, इस तरह भी होता है, वह अक्सर, किसी घर की रखवाली
दस्तक उसने कई बार दस्तक दी पर दरवाजा नहीं खुला कुछ देर ठहर कर फिर दस्तक दी अब भी दरवाजा नहीं खुला दरअसल उसको आते हुए घर वालों ने देखकर दरवाजा बंद किया था बच्चों को भी सहेज दिया कितना भी दस्तक दे दरवाजा मत खोलना वह थककर डेहरी पर बैठ गयी काफी देर तक बैठी रही फिर घर से चिल्लाने की आवाज आई यह इनका रोज का नाटक है शायद एक छोटा बच्चा दादी के लिए रो रहा था दरवाजा खुला... हाँ! यह इस घर की मालकिन है घर में जो कुछ भी है सब की वजह यही है आज बच्चे जिस मुकाम पर हैं इन्होंने ने ही बनाया है पर उम्र के एक पड़ाव के बाद शरीर और दिमाग थक जाता है पहले जैसा कहाँ कुछ रह जाता है बच्चों की उम्र कम ही थी तभी पिता का साया उठ गया था न जाने कितनी रातें जाग कर बिना कुछ खाए गुजारी थी बच्चों के लिए ही सब कुछ एक मां के लिए अपने लिए कुछ नहीं होता वह खुद को भूल जाती है जब बच्चों के पिता ने दुनिया छोड़ी थी उस वक्त.. उसकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं थी चाहती तो किसी और से ब्याह कर लेती एक दूसरी जिंदगी बड़े आराम से अपना लेती पर बच्चों का मासूम चेहरा उनका हाथ उसके हाथ में था उसने सिर्फ बच्चों को देखा खुद की कोई फिक्र नहीं की दु
अग्नि परीक्षा *********** ए भी तो सच है, बनवास तो राम को हुआ, पर! बेघर हमेशा सीता हुई, चाहे वह राधा बनी, या फिर मीरा हुई, आग में गुजरना पड़ा, विष का प्याला उसने पिया, आँच राम को न लग जाए कहीं, ए समझकर, हर काल में जलती रही, सदा मर्यादा पुरुषोत्तम रहें वो, सब तजके भी, हर दम, राम-राम कहती रही। पर क्या मिला इसका सिला? अब तो यही लगता है, उस वक्त बात मानकर, तुमने अच्छा नहीं किया, काश! अग्नि परीक्षा से इंकार कर देती, या फिर दोनों भाइयों से कहती, आओ इस आग से तीनों गुजरते हैं, देखते हैं फिर भला? कितने कुंदन निकलते हैं, सवाल जब राम पर नहीं उठा, फिर सीता पर क्यों उठे? जो लांक्षन किसी स्त्री पर लगे, उसीसे भला? कोई पुरुष क्यों बचे? जब! वो भी तो हाड मांस का है, और देह धारण करता हो, फिर जिस्मानी दोष से, कैसे बच सकता है? अच्छा होता कि कह देते, तुम इंसान नहीं हो, और सीता भी कोई आम औरत नहीं है, पर तुमको तो मर्यादा पुरुषोत्तम बनना था, जिसके लिए सब कुछ, सीता को सहना था। वो चुप रहकर सहने वाली सीता, सबको भाती है, घरों में आज भी सबके, तुम्हारे साथ पूजी जाती है। अब भी वही आदर्श मानते हैं, अपनी आवाज में बोल
एक कहानी ********* अलग-अलग जगहों से आए, लोगों ने शहर बसाया, इनमें कुछ भी, एक जैसा नहीं था, सबके घर एक दूसरे से, इतने दूर हैं, वहाँ भी मेरे गाँव जैसा, एक गाँव होगा, ए तो मैंने, बचपन में नहीं सोचा था, ए सच है कि, वैसा ही गांव मेरे दोस्त का भी है, उसने भी वही कहानियां सुनी हैं, वो चांद वाली बुढ़िया, सच में बहुत याद आती है अब मैं उसके बारे में, जब सोचता हूँ, उसकी शक्ल हूबहू, दादी से मिलती है, मुझे माँ फरिश्तों की कहानी, सुनाती थी, जो अपने साथ इसी आसमान में, लोगों को लेकर जाते हैं, मेरा यकीन कि दादी, जरूर चांद पर रहती होंगी, वहीं से हमको देखती होंगी, मैं अक्सर, जब खुले आसमान में, बिखरी चांदनी देखता, चांद बहुत, खूबसूरत नजर आता, दादी के वहाँ होने का यकीन, उसे मेरे बहुत करीब ला देता, पर जबसे, खुद में खोया-खोया सा, रहने लगा हूँ, मेरे ऊपर कोई आसमान है, यह भूलने लगा हूँ, उस चांद को देखे एक अरसा, हो गया है, और वो बुढ़िया, अब मुझे नजर नहीं आती, मैं शायद थोड़ा सा समझदा
स्मृति ******* बहुत दूर तक चला जाता हैं, जब सफर आसान हो जाता हैं, वह अब चलता नहीं, उड़ने लगा है, उसको पहिए नहीं, "पर" लग गए हैं, जी भरकर अपनी कहने, ठहरने-सुस्ताने का चलन, खत्म हो गया है, दरख्त सूखकर, खुद छांव तलाश रहा है, हर कुएं पर, रस्सी-बाल्टी हुआ करती थी, कहीं कोई राहगीर, प्यासा न रह जाए, वहीं पास में कुछ टूटे, पुराने, मिट्टी के बर्तन पड़े रहते, हर आदमी जो पानी भरने आता, थोड़ा बहुत पानी, इनमें भर देता था, चिलचिलाती धूप में, सभी को, पानी मिल जाता था, ऐसे ही यह सिलसिला, पूरे बरस चलता रहता, हर डाल पर चिड़ियों का, बुना हुआ, घोसला हुआ करता, जुगाली करती गाय-भैंसे, मानो पूरी दुपहरिया, मालिकों की चुगली कर रही हों, वहीं एक बुजुर्ग, झोपड़ी में बैठा रहता है, हर आने जाने वाले को, कुछ देर ठहरने को कहता है, खाली पानी, किसी को पीने नहीं देता, हाथ में थोड़ी सी, कोई मीठी चीज रख देता है, उस आदमी की याद में, वह बूढ़ा आदमी और मिठास, किसी के लिए, पूरी उम्र की सौगात बन जाता है। आने वाले समय में, य
परिंदा ********* किसमें उसकी बेहतरी है फैसले का ऐलान कर दिया उसके चारों तरफ हर चीज सुनहरा शानदार कर दिया। वह समझता है, दिलोजान से मरता है, यही कहता रहा, सबसे उसके बारे में। जरूरत की हर चीज, बेशुमार भर दिया, हर कोने में, बस एक शर्त है, इस मुहब्बत में, उसे बोलनी है, कोई और जुबान। शुरू में थोड़ी तकलीफ हुई, पर! वक्त के साथ सीख लिया, कहे हुए को दुहराना बार-बार, सभी खुश होते हैं, सुनकर उसकी आवाज, जबकि उसे मालूम नहीं है, वह क्या कह रहा है, जिसे सुनकर खुश हो रहे हैं, इतना लोग आज, परिंदे से प्यार जताने का, ए नायाब तरीका है उसके लिए छोटा सा, खूबसूरत पिंजरा बनाना है, बस इसकी छोटी सी कीमत है, जो परिंदा चुकाता है, उससे अनंत आकाश, छूट जाता है, और सदा के लिए, पिंजरे का हो जाता है, जहाँ परिंदा होने का एहसास, धीरे-धीरे खत्म हो जाता है पंख की ताकत, उड़ान, हौसला आसमान नाप लेने की, अब उसमें बचती नहीं है, उसकी पूरी कायनात, पिंजरे के इर्द-गिर्द सिमट जाती है, ए एकतरफा मोहब्ब
भटकते हुए कहाँ से काहाँ आ गया
ReplyDeleteकहाँ जाना था अब तो ए याद भी नहीं