कहानी नहीं, असली घटना है, ज़िला सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश की।
एक पंडित जी और एक बाबू साहब (ठाकुर साहब) जिगरी दोस्त थे- दो जिस्म एक जान। बचपन से चालीसवें तक। फिर जाने क्या हुआ कि दुश्मनी हो गई।
अब पूरब गवाह है कि जिगरी दोस्त दुश्मन हो जायें, तो दुश्मनी भी पनाह माँगने लगती है। सो वही हुआ। हर दूसरे दिन गोली चलना- लठैत छोड़िये, दोनों के कई बेटे तक दुश्मनी की आग का ईंधन बन गये, मगर दुश्मनी चलती रही।
खैर, ये होते हवाते बाबू साहब की बेटी की शादी का वक़्त आ गया,, और पूरब इसका भी गवाह है कि दुश्मनी जितनी भी बड़ी हो- बहन बेटियों की शादी ब्याह की बात आये तो बंदूकें ख़ामोश हो जाती हैं। एकदम ख़ामोश। और किसी ने यह परंपरा तोड़ी तो वो ज़िंदगी और पूरब दोनों की नज़र से गिर जाता है।
सो उस गाँव में भी वक्ती सही, सुकून उतर आया था।
और फिर उतरी बारात। ठाकुरों की थी तो गोलियाँ दागती, आतिशबाज़ी करती, तवायफ़ के नाच के साथ...। परंपरा थी तब की।
पंडित जी उस दिन अजब खामोश थे।
और लीजिये- अचानक उनकी नाउन चहकती हुई घर में- (गाँव में सारे संपन्न परिवारों के अपने नाऊ ठाकुर होते थे और नाउन भी- अक्सर एक ही परिवार के हिस्से।)
पंडिताइन को चहकते हुए बताई कि "ए भौजी- बरतिया लौटत बा। कुल हेकड़ई खतम बाबू साहब के।"
पंडिताइन स्तब्ध...🫡 और पंडित जी को तो काटो तो ख़ून नहीं। बहुत मरी आवाज़ में पूछा कि ‘भवा का’?
नाउन ने बताया कि समधी अचानक कार माँग लिहिन- माने दाम। बाबू साहब के लगे ओतना पैसा रहा नाय तो बरात लौटे वाली है।
पंडित जी उठे......- दहाड़ पड़े....निकालो जीप।
मतलब साफ- बाकी बचे बेटे, लठैत सब तैयार।
दस मिनट में पूरा अमला बाबू साहब के दरवाज़े पर-
कम से कम दर्जन भर दुनाली और पचासों लाठियों के साथ।
बाबू साहब को खबर लगी तो वो भागते हुए दुआर पे-
"एतना गिरि गवा पंडित। आजै के दिन मिला रहा।"
पंडित जी ने बस इतना कहा कि "दुश्मनी चलत रही, बहुत हिसाब बाकी है बकिल आज बिटिया के बियाह हा। गलतियो से बीच मा जिन अइहा।"
बाबू साहब चुपचाप हट गये।
पंडित जी पहुँचे समधी के पास- पाँव छुए- बड़ी बात थी, पंडित लोग पाँव छूते नहीं, बोले... "कार दी-"
पीछे खड़े कारिंदे ने सूटकेस थमा दिया।
द्वारचार पूरा हुआ। शादी हुई।
अगले दिन शिष्टाचार/बड़हार।
(पुराने लोग जानते होंगे- मैं शायद उस अंतिम पीढ़ी का हूँ जो शिष्टाचार में शामिल रही है)
अगली सुबह विदाई के पहले अंतिम भोज में बारात खाने बैठी तो पंडित जी ने दूल्हा छोड़ सब की थाली में 101-101 रुपये डलवा दिये- दक्षिणा के। खयाल रहे, परंपरानुसार थाली के नीचे नहीं, थाली में।
अब पूरी बारात सदमे में, क्योंकि थाली में पड़ा कुछ भी जो बच जाये वह जूठा हो गया और जूठा जेब में कैसे रखें।
समधी ने पंडित जी की तरफ़ देखा तो पंडित जी बड़ी शांति से बोले।
बिटिया है हमारी- देवी। पूजते हैं हम लोग। आप लोग बारात वापस ले जाने की बात करके अपमान कर दिये देवी का। इतना दंड तो बनता है। और समधी जी- पलकों पर रही है यहाँ- वहाँ ज़रा सा कष्ट हो गया तो दक्ष प्रजापति और बिटिया सती की कहानी सुने ही होंगे। आप समधी बिटिया की वजह से हैं। और हाँ दूल्हे को दामाद होने के नाते नहीं छोड़ दिये- इसलिये कि ये क्योंकि अपने समाज में उसका हक़ ही कहाँ होता है कोई!
खैर बारात बिटिया, मने अपनी बहू लेकर गई-
पंडित जी वापस अपने घर। बाबू साहब हाथ जोड़े तो बोले बस- दम निकरि गय ठाकुर। ऊ बिटिया है, गोद मा खेलाये हन, तू दुश्मन। दुश्मनी चली।
खैर- बावजूद इस बयान के फिर दोनों ख़ानदानों में कभी गोली नहीं चली। पंडित जी और बाबू साहब न सही- दोनों की पत्नियाँ गले मिल कर ख़ूब रोईं, बच्चों का फिर आना जाना शुरू हुआ।
क्या है कि असल हिंदुस्तानी और हिंदू बेटियों को लेकर बहुत भावुक होते हैं, उनकी बहुत इज़्ज़त करते हैं। फिर चाहे बेटी दुश्मन की ही क्यों न हो।
जो नहीं करते वे और चाहे जो हों, न हिंदू हो सकते हैं, न हिंदुस्तानी।
साहित्य हमे जीवन कि अबूझ पहेली को समझने के लिए एक रास्ता दिखाता है इस रास्ते पर चलाने से इसे समझना आसान हो सकता अब मर्जी हमारी है कि हम उधर गुजारें या फिर कहीं और चले जाएं । शुक्रिया
आजाद परिंदे यह आसमान में उड़ने वाले आजाद पंछी जिंहे देखकर हर शख़्स में ख्वाहिश जग जाती है आसमान की ऊंचाई तो कुछ भी नहीं है बस पर चाहिए उड़ना आना चाहिए आजादी का मुकम्मल मुकाम कहीं है? जहां हद की भी कोई हद नहीं है उसे ही तो आसमान कहते हैं जिन हदों तक परिंदे जा सकते हैं उसके आगे भी न जाने कितनी हदें हैं आसमान कुछ ऐसे ही बना है और हम भी कुछ इसी तरह की आजादी चाहते हैं जहां कोई हद न हो सिर्फ आसमान हो चिड़ियों को देखकर उसी हद की ख्वाहिश में जीते हैं जो अनहद है यह परिंदे जो आसमान के सैलानी है जिंहे देखकर हर शख़्स उड़ने की चाहत रखता है बदकिस्मती देखिए उन इंसानों की वह परिंदों को पिंजरे में कैद रखना चाहता हैं जबकि किसी भी चिड़िया के लिए यह तो सजा है जिसे एक पंछी बखूबी समझता है तेरी फितरत भी तो उसी परिंदे जैसी है तूँ आसमान में उड़ना चाहता है इसका मतलब तो यही है पिंजरे का मतलब तूँ भी समझता है चलो अब उड़ान का सच कहते हैं चाहे जितनी ऊंचाई तक पहुँच जाएं पर आसमान में कोई ठहर नहीं सकता उसे फिर इसी जमीन पर लौटना पड़ता है सांझ को परिंदे लौट आते है इसी साख पर जहां उसक
सूखा दरख़्त हर किसी के लिए, एक मियाद तय है, जिसके दरमियाँ सब होता है, किसी बाग में, आज एक दरख्त सूख गया, हलांकि अब भी, उस पर चिड़ियों का घोसला है, शायद उसके हरा होने की उम्मीद, अब भी कहीं जिंदा है, मगर इस दुनियादारी से बेवाकिफ, इन आसमानी फरिश्तों को, कौन समझाए? अपनी उम्र पार करने के बाद, भला कौन ठहरता है? किसी बगीचे में, पौधे की कदर तभी तक है, जब तक वह हरा है, उसके सूखते ही, उसको उसकी जगह से, रुखसत करने की, तैयारी होने लगती है ऐसे ही उस पर, कुल्हाड़ियां पड़ने लगी, बेजान सूखा दरख्त, आहिस्ता-आहिस्ता बिखरने लगा, वह किसका दरख्त है, अब यह सवाल कोई नहीं पूछता, क्योंकि सूखी लकड़ियां, किस पेड़ की हैं, इस बात से कोई मतलब नहीं है, बस उन्हें ठीक से जलना चाहिए, जबकि हर दरख़्त की, एक जैसी दास्तान है, वह अपने लिए, कभी कुछ नहीं रखता, देते रहना उसकी फितरत है, सूख जाने के बाद भी वह किसी चूल्हे में जलता है, भूख मिटाने का काम, इस तरह भी होता है, वह अक्सर, किसी घर की रखवाली
अग्नि परीक्षा *********** ए भी तो सच है, बनवास तो राम को हुआ, पर! बेघर हमेशा सीता हुई, चाहे वह राधा बनी, या फिर मीरा हुई, आग में गुजरना पड़ा, विष का प्याला उसने पिया, आँच राम को न लग जाए कहीं, ए समझकर, हर काल में जलती रही, सदा मर्यादा पुरुषोत्तम रहें वो, सब तजके भी, हर दम, राम-राम कहती रही। पर क्या मिला इसका सिला? अब तो यही लगता है, उस वक्त बात मानकर, तुमने अच्छा नहीं किया, काश! अग्नि परीक्षा से इंकार कर देती, या फिर दोनों भाइयों से कहती, आओ इस आग से तीनों गुजरते हैं, देखते हैं फिर भला? कितने कुंदन निकलते हैं, सवाल जब राम पर नहीं उठा, फिर सीता पर क्यों उठे? जो लांक्षन किसी स्त्री पर लगे, उसीसे भला? कोई पुरुष क्यों बचे? जब! वो भी तो हाड मांस का है, और देह धारण करता हो, फिर जिस्मानी दोष से, कैसे बच सकता है? अच्छा होता कि कह देते, तुम इंसान नहीं हो, और सीता भी कोई आम औरत नहीं है, पर तुमको तो मर्यादा पुरुषोत्तम बनना था, जिसके लिए सब कुछ, सीता को सहना था। वो चुप रहकर सहने वाली सीता, सबको भाती है, घरों में आज भी सबके, तुम्हारे साथ पूजी जाती है। अब भी वही आदर्श मानते हैं, अपनी आवाज में बोल
गंगा-यमुना का संगम ****************** कुछ पल, ठहर कर देखा, वह अब भी वैसे ही, बाँह फैलाए, अपने दामन में भरने को, धीरे-धीरे बढ़ रही, मै मूरख भागा डरके, समझ न पाया, उसके मन को, ऐसे ही भाग रहा, न जाने कब से? जबकि उसकी बाँहे, तो गंगा-यमुना हैं, जो निरंतर बाँध रही, हम सबको। rajhansraju *************************** तूँ नदी है *************** बस यही करना है, जो कुछ? अच्छा या बुरा हुआ, उसे भुला कर, कत्ल न तो करना है, और न होना है। फिर जो दरिया है, वो भला क्या डूबेगा? कभी कुछ वक्त के लिए, नदी भी समुन्दर बन जाती है, तो वह सिर्फ, पानी की ताकत बताती है, ऐसे में कुछ नहीं करना है, बस किनारों को, थामकर रखना है, ए दोनों तेरे अपने हैं, इन्हीं के बीच रहना है, अभी बरसात का मौसम है, ए भी गुजर जाएगा, तूँ फिर वही नदी हो जाएगा, जो सबकी प्यास बुझाती है। फिर क्यों इतना परेशान है? जो अपनी प्यास बुझाने को, इधर उधर भटकता है, जबकि तूँ... खुद नदी है, पानी से बना है लबालब भरा है। जिसे दर बदर ढूँढता फिर रहा है,
एक कहानी ********* अलग-अलग जगहों से आए, लोगों ने शहर बसाया, इनमें कुछ भी, एक जैसा नहीं था, सबके घर एक दूसरे से, इतने दूर हैं, वहाँ भी मेरे गाँव जैसा, एक गाँव होगा, ए तो मैंने, बचपन में नहीं सोचा था, ए सच है कि, वैसा ही गांव मेरे दोस्त का भी है, उसने भी वही कहानियां सुनी हैं, वो चांद वाली बुढ़िया, सच में बहुत याद आती है अब मैं उसके बारे में, जब सोचता हूँ, उसकी शक्ल हूबहू, दादी से मिलती है, मुझे माँ फरिश्तों की कहानी, सुनाती थी, जो अपने साथ इसी आसमान में, लोगों को लेकर जाते हैं, मेरा यकीन कि दादी, जरूर चांद पर रहती होंगी, वहीं से हमको देखती होंगी, मैं अक्सर, जब खुले आसमान में, बिखरी चांदनी देखता, चांद बहुत, खूबसूरत नजर आता, दादी के वहाँ होने का यकीन, उसे मेरे बहुत करीब ला देता, पर जबसे, खुद में खोया-खोया सा, रहने लगा हूँ, मेरे ऊपर कोई आसमान है, यह भूलने लगा हूँ, उस चांद को देखे एक अरसा, हो गया है, और वो बुढ़िया, अब मुझे नजर नहीं आती, मैं शायद थोड़ा सा समझदा
परिंदा ********* किसमें उसकी बेहतरी है फैसले का ऐलान कर दिया उसके चारों तरफ हर चीज सुनहरा शानदार कर दिया। वह समझता है, दिलोजान से मरता है, यही कहता रहा, सबसे उसके बारे में। जरूरत की हर चीज, बेशुमार भर दिया, हर कोने में, बस एक शर्त है, इस मुहब्बत में, उसे बोलनी है, कोई और जुबान। शुरू में थोड़ी तकलीफ हुई, पर! वक्त के साथ सीख लिया, कहे हुए को दुहराना बार-बार, सभी खुश होते हैं, सुनकर उसकी आवाज, जबकि उसे मालूम नहीं है, वह क्या कह रहा है, जिसे सुनकर खुश हो रहे हैं, इतना लोग आज, परिंदे से प्यार जताने का, ए नायाब तरीका है उसके लिए छोटा सा, खूबसूरत पिंजरा बनाना है, बस इसकी छोटी सी कीमत है, जो परिंदा चुकाता है, उससे अनंत आकाश, छूट जाता है, और सदा के लिए, पिंजरे का हो जाता है, जहाँ परिंदा होने का एहसास, धीरे-धीरे खत्म हो जाता है पंख की ताकत, उड़ान, हौसला आसमान नाप लेने की, अब उसमें बचती नहीं है, उसकी पूरी कायनात, पिंजरे के इर्द-गिर्द सिमट जाती है, ए एकतरफा मोहब्ब
साहित्य हमे जीवन कि अबूझ पहेली को समझने के लिए एक रास्ता दिखाता है इस रास्ते पर चलाने से इसे समझना आसान हो सकता अब मर्जी हमारी है कि हम उधर गुजारें या फिर कहीं और चले जाएं । शुक्रिया
ReplyDeleteअंतहीन यात्रा और अंतहीन परिक्रमा
ReplyDeleteबूढ़े बाप ने
ReplyDeleteआहिस्ता से देखा
हमेशा की तरह कुछ कहता नहीं है
मेरे बच्चे तूँ आसमान को
बस देख लिया कर
मैं उसी का हिस्सा हूँ
इस अनंत विस्तार का ही
बहुत छोटा सा किस्सा हूँ
©️Rajhansraju