sahi aur galat
सही और गलत
कल तक था जो सही
अब उसकी जरूरत नहीं रही
फिर कहने को कहते हो
पर क्या कहना है
पहले से तय रखते हो
ऐसे में कोई कहे भला क्या
अपना-अपना सबका सच है
जबकि सच पास ही कोने में बैठा है
पर नजर भला डाले कौन
आईने में शक्ल निहारे कौन??
©️Rajhansraju
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सफर
आज इस जगह
जो हम
इस तरह मिले हैं
कुछ चाहा सा
अनचाहे हो गया है
एक पुराना बरगद
अल्पविराम सा
राह में आ गया है
हम सदा से अधूरे
तुम भी कहां मुकम्मल थे......
आज इस जगह
जो हम इस तरह मिले हैं
यह सफर दर सफर
मुसाफिरत आदत हो गई है
कहीं एक जगह ठहरने की
रवायत खो गई है
छांव के मायने बरगद
गुनगुना रहा है
एक बुजुर्ग थककर
रोने लगा है
बरगद में चिड़ियों का
अब भी घोसला है
आसमान में उड़ने वालों का
घर यही है.......
आज इस जगह
जो हम इस तरह मिले हैं
मुद्दतो बाद खुलकर हंसे हैं
चलो अब चांद पर चलते हैं
हाथ बढ़ाया तो हंसने लगा
रोते-रोते कहने लगा
बड़ी मुश्किल से
अभी कल ही वहां से लौटे हैं
चांद की अजब आदत हो गई थी
वह मिलता नहीं किसी को
मगर सबका लगता है
मुझे लगा एकदम करीब हूँ
पा लिया उसको
तभी वह एकदम दूर हो गया
और जहां से चला था
वहीं रह गया
इस कोशिश में
आदमी वह नहीं रहता
जो कहीं से कहीं के लिए चला था
कितना मुश्किल है
उस आदमी का लौट आना
जो घर से निकला था
उसी का आना .....
न जाने कैसे
ए ऐसा हुआ
आज इस जगह
हमारा इस तरह मिलना हुआ
किसी ने मुझे
नाम से पुकारा है
बरगद की छांव में
हमने खुद को पाया है
वह बूढ़ा आदमी हंसने लगा है
उसके सिवा
वहाँ कोई नहीं है
आज हमारा
जो इस तरह मिलना हुआ है
©️Rajhansraju
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बंजारा
बंजारे ने बांध लिया
खुद को जंजीरों में
नाम दिया घर बार उसे
हुआ मस्त मलंग रे
यही कहता फिर रहा
सब मेरे अपने हैं
रिश्ते नातों की डोर बंधी है रे
एक दूजे से
उम्मीदों की जो बढ़ी लड़ी
उतना ही कमजोर हुआ रे
बंजारे ने बांध लिया
खुद को जंजीरों में.. मुसाफिर ठहर गया
न गया कहीं तब से
एक छप्पर डाली
खाट बिछाई है उसने जब से
झूमता गाता
कहता है
यह घर उसका है रे...
यही उसकी मंजिल है...
जिसे ढूंढ रहा था वो
बंजारे ने बांध लिया
खुद को जंजीरों में....
जिनको अपना कहता है
वह भी तो मुसाफिर है
एक दस्तक से ठहर गए हैं
साथ तेरे रह गए हैं
देखो अब भी चल रहे हैं
जंजीरों से लड़ रहे हैं,
उतने ही दिन के रिश्ते नाते
जितनी देर ठौर यहां रे
बंजारे ने बांध लिया खुद को जंजीरों में....
तूँ भी अपनी गठरी बांधे
हरदम रह तैयार रे
तूँ बंजारा भूल गया बंजारा है रे
जंजीरों को छोड़के
पल में हल्का होले
बंजारा तूँ बिन गठरी के
बैरागी हो ले
चलना तेरा काम है
उठ अब चल दे बंजारे
छोड़के जंजीरो को
हुआ मलंग अब ऐसे ही
बिन गठरी के
छोड़ दिया सब जंजीरें
तोड़के बंधन को...
बंजारे ने ठान लिया बंजारा रहना है
ठहर गये हैं
जो कहीं
उनको ले चलना है
बंजारे ने छोड़ दिया
सब जंजीरों को
हुआ मलंग बिन जंजीरों के
बंजारे ने छोड़ दिया सब जंजीरों को
बंजारे ने तोड़ दिया सब जंजीरों को
©️Rajhansraju
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पहचान
बिना पहचान के रहने में कोई हर्ज नहीं है
वह पता नहीं कौन सी परिस्थिति थी
जिसके कारण वह अपनों को छोड़ आया
अब गुमशुदा, बेनाम है,
उसे अपना नाम याद नहीं
क्योंकि इसकी अब जरूरत ही नहीं पड़ती
उसे कोई आवाज नहीं देता
फिर नाम की भला जरूरत कहां रही
जब बहुत दिनों तक
किसी ने उसके नाम से उसे
बुलाया नहीं
वह धीरे-धीरे उस नाम और शब्द से
अजनबी हो गया
कोई कुछ भी कहे
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता
बस यूं ही कहीं चुपचाप बैठा रहता है
न जाने क्या देखता रहता है
फिर एक दिन दुनिया से विदा हो जाता है
और गलती से जब उसकी पहचान हो जाती है
या किसी भी वजह से
वह पहचान लिया जाता है
और उसकी सूचना
उसके घर वालों तक पहुंच जाती है
जिन्हें शायद इस बात की उम्मीद रहती है
वह कहीं भी होगा,
जिंदा होगा, सुरक्षित होगा,
शायद कुछ कर रहा होगा
एक उम्मीद घर के हर सदस्य में बनी रहती है
वह एक दिन लौट कर आएगा
क्योंकि घर के हर सदस्य का
उससे एक रिश्ता है
और उस रिश्ते का एक नाम है
जैसे ही यह खबर मिलती है
अब वह नहीं रहा,
सारे रिश्ते और एक भी उम्मीद
वहीं पर खत्म हो जाती है
ऐसे में गुमशुदा लोगों की पहचान हो
यह जरूरी तो नहीं है..
©️Rajhansraju
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घर वापसी
जब गति निरंतर हो
तब सब कुछ स्थिर लगने लगता है
न जाने कितने पिंड
अपने सूरज की
अहर्निश वेग से परिक्रमा कर रहे हैं
और सूरज
उनके अस्तित्व से बेखबर
अपनी आग में जले जा रहा है
उसमें भी वही निरंतरता है
उसे आग होने, अलग होने का
कोई एहसास नहीं है
उसकी तपिश में ही
जिंदगी जन्म लेती है
बस एक सही दूरी होनी चाहिए
गंगा का प्रवाह
उसी निरंतरता का साक्षी है
जो वक्त के हर लमहे में
नई हो जाती है
मैं ठहरा हुआ नजर आता हूँ
जो हर पल बदल जाता है
अब क्या कहूँ
मैं आग हूँ सूरज की
मैं ही गंगा हूँ
संगम पर कुछ मिलेगा
यह उम्मीद है सबको
पर क्या है, कौन है, कैसा है?
अब ऐसा सवाल भी नहीं है
मैं हूँ, नहीं हूँ, कौन हूँ, मौन हूँ?
चलो लौट चलें
यह एक ठहराव है तीर्थ यात्रियों का,
अनंत का एहसास है
दीवारों से निकलने का
रात ने भी दबे पांव
अपने होने की आहट करा दी है
घर वापसी की यात्रा
शुरू हो गई है
©️Rajhansraju
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पर्यावरण
हालांकि आसमान एक है और अनंत है
ऐसा शून्य जिसमें सबकुछ समाया है
और धरती की पोशाक
जब साफ होती है
अरे मतलब पर्यावरण
तब वह एकदम
साफ सुथरा नजर आता है
अब देखने के लिए
ज्यादा कुछ नहीं करना है
बस देखना है
और जो करना है
वह बहुत आसान है
बस धरती को माँ मानना है
और उसके कपड़े साफ रखना है
अरे मतलब हवा, पानी, मिट्टी
फिर देखिएगा
एकदम चमकता
नीला और खूबसूरत रंगों से भरा
आसमान दिखाई देगा
©️Rajhansraju
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the tree
कितने लोगों की
जिंदगी बन जाता है
और उसमें
खूबसूरत आशियाने बन जाते हैं
पर हर चीज की मियाद है
और उससे आगे जाना
बहुत मुश्किल है
उसकी कितनी उम्र है
इसका इससे कोई वास्ता नहीं है
बस कुछ लोग चाह कर भी
साथ छोड़ नहीं पाते
©️Rajhansraju
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नदी
तूँ रहे यही मेरे आस-पास
मैं जैसा चाहता हूँ
बस इतना ही
मैंने जो दायरे तक कर रखे हैं
तेरे लिए उतने में ही बहे
पर नदी को भला कौन रोक सकता है
एक दिन दायरो से तंग आ गई
खुलकर खिलखिला कर हंसने लगी
हर तरफ अपना आंचल फैला दिया
कुछ ने कहा बौरा गई
बाकियों ने समझा
बाढ़ आ गई
पर नदी ने तो सिर्फ इतना बताया
देखो मैं ऐसी हूँ
कहां तक हूँ
मेरे रास्ते कौन से हैं
मेरा घर कितना बड़ा है
जिसे तुम अपना कह रहे हो
सब मेरा है
अच्छा अब लौट रही हूँ
गौर से देख लो
मैंने अपने निशान बना दिए हैं
फिर लौट कर आऊंगी
©️Rajhansraju
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ऐसे ही खूबसूरत पन्ने बनाते रहिए
ReplyDeleteआइए मिलकर इसे और आगे बढ़ाते हैं
ReplyDeletewah bahut acche
ReplyDeleteआइए अपने शब्दों को आकार दें
ReplyDeleteआप भी इसी blogg पर चाहें तो अपनी कविता, कहानी प्रकाशित करा सकते हैं..