हिन्दी साहित्य | Crisis of identity
खिलौने वाला
***********
बहुत दिन बाद लौट कर आया
शहर तो अपना ही है
पर अब बदल गया है
हर तरफ रंगीन मुखौटे नजर आते हैं
सब एक दूसरे से बेहतरीन होने की,
कोशिश कर रहे हैं,
पर यह तय कौन करे
कौन सा मुखौटा
सबसे हसीन है
उसे तो उन चेहरों की तलाश है
जिसे वह बहुत साल पहले,
छोड़ गया था
अब कोई पहचान में क्यों नहीं आता
किसी जगह कोई आईना,
नजर नहीं आता
हर आदमी खरीदने बेचने में लगा है
दुकानदार की तो खूबी यही है
उसे मुखौटा बेचना हैं
इसके लिए जरूरी है
कहीं कोई आईना न हो,
क्योंकि अक्स नजर आते ही
मुखौटे की जरूरत नहीं रह जाएगी
हर शख्स अपने चेहरे से,
खफा नजर आएगा,
मैं भी चेहरों की तलाश में,
कहीं मुखौटा तो नहीं बन गया
आईना देखे एक अरसा हो गया
मेरा चेहरा बचा है कि नहीं
पता नहीं चलता
ऐसे लोग अब भी हंसते हैं
मेरा चेहरा देखकर,
यही कहते हैं इसके जैसा मुखौटा,
कहीं देखा नहीं,
ऐसा कहीं दूसरा कोई बनाता नहीं
यही वाला मुखौटा चाहिए
ऐसे ही परेशान नजर आते हैं
लोग मुझे देखकर
वह जिस बात पर हंसते,
उन्हें सुनकर मैं रोता हूं
वह जिस बात पर रोते हैं
उस पर मुझे हंसी आ जाती है
जरूरी क्या है?
या वह नहीं समझते
या फ़िर मैं नहीं समझता हूँ
हमारे दरमियां कुछ तो है,
कहीं कुछ ऐसा है
जो हमें अलग कर देता है
अभी-अभी किसी ने दस्तक दी
पूछा तुम कौन हो
यह मुखौटा तुम्हें कहां से मिला
कहीं ऐसा तो नहीं है
इसे तुम ही बनाते हो
तुम्हारे चेहरे पर,
कुछ और लगा हो
ऐसा नजर नहीं आता,
ऐसा मुखौटा पहली बार देखा है
मैंने जोर से खुद को चुटकी काटी
अपने चेहरे पर हाथ फेरा
कहीं मेरा चेहरा खो तो नहीं गया
मुखौटे के शहर में आकर
मुखौटा तो नहीं बन गया।
आईने की तलाश में भटकने लगा
पर अजीब शहर है
कहीं कोई आईना नजर नहीं आता
मुखौटे के शहर में यही होता है
पहले आईने खत्म कर दिए जाते हैं
तब मुखौटा बेचा जाता है।
मैं खुद की तलाश में भटकने लगा
मेरा चेहरा कैसा है
सोचने लगा
इस शहर में रोशनी बहुत है
बहुत दिन बाद लौटा हूँ
दिन है कि रात पता नहीं चल रहा
कोई हमसाया भी नजर नहीं आता
हर तरफ से जब रोशनी आती है
कुछ भी ठीक से दिखाई नहीं देता है
मैं अपने शहर में खोया रहा
न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहा
अचानक मुझे
मेरी परछाई नजर आई
यह सुबह की शुरुआत थी
उसी ने मेरा साया बनाया है
बस एक कमी है
इसमें चेहरा नजर नहीं आता
परछाई की यह खूबी है
रोशनी किस तरफ से आ रही है
यही बताती है
दोनों का रिश्ता कुछ इस तरह का है
जिस तरफ रोशनी होती है
उस तरफ परछाई नहीं होती
मैं अपना चेहरा नहीं देख पाता
परछाई के साथ
मैं रोशनी में भटकता हूँ
तभी किसी बरतन से
पानी की बूंद गिरी
लगा मेरी आज की यात्रा
शायद पूरी हो गई
मैंने झांक के देखा
एक सूरत नजर आई
न जाने मौसम क्यों बदल गया
बरसात बे-मौसम होने लगी
लोग ठहरे रहे
कोई कुछ बोल नहीं रहा,
मुखौटे और चेहरे का फर्क,
नजर आने लगा है,
हर शख़्स पानी-पानी होने लगा है
पानी का कोई अपना रंग नहीं है
जो जैसा चाहता है
वह वैसे ही ढल जाता है
मैं जोर से चिल्लाया
मैं मुखौटा नहीं हूँ
तुम समझते क्यों नहीं
मैं कारीगर हूँ
तुम्हें मालूम नहीं है
मैं खिलौना बनाता हूँ
©️Rajhansraju
*******************
(२)
फूंक और भूख
*************
फूंक और भूख
किस तरह जुड़े हैं
यह देखकर,
कुछ अजीब सा लगता है
फूंक तभी चलती है
जब भूख मिटी रहती है
और भूख तभी मिटती है
जब यह फूंक चलती रहती है
दोनों एक दूसरे को
थामे रहते हैं
कुछ भी यहाँ जुदा है
गौर से देखे
तो लगता नहीं है
©️Rajhansraju
******************
(३)
*******
अभी पिछली रात
जब फागुन
जाने की तैयारी कर रहा था
हमने कहा कल चैत
तो आ ही जाएगा
मगर तुम्हारे जाने
उसके आने के बीच
पूरी रात अभी बाकी है
पूरा गांव तुम्हारे साथ है
वह देखो होलिका
प्रज्वलित हो उठी है
जो हमारे गांव की होलिका माई हैं
सब होलिका की राख माथे लगाते हैं
हम तुम्हें ऐसे
जाने नहीं दे सकते
फागुन मुस्कराया
हमारे पास ठहर गया
चैत के पहले दिन
फागुन पूरी रंगत में होता है
होली के रंग में हर चेहरा
रंग जाता है
ऐसे ही पूरे चैत
थोड़ा-थोड़ा फागुन
बचा रहता है
©️Rajhansraju
************************
होली की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं
************
(४)
********
कौन किसका चेहरा है
यकीं से कह नहीं सकता
देखा सुना सा लगता है
चटख रंग में
खिला-खिला सा है
कोई अजनबी नहीं है
दावे और हकीकत में
आइने का फासला है
कौन सी परछाई किसकी है
यह तय करना बड़ा मुश्किल है
ए फागुन के विदा होने का
और वक्त को
लम्हों में सहेज लेता है
©️Rajhansraju
*******************
**************
(५)
*********
ए सिर्फ़ सफर है
और कुछ भी तो नहीं
कब क्या सही है
वही कब गलत
हर शख़्स ने
एक लकीर खींची है
हर बात के दरमिया
ना मालूम
क्या सही है
क्या गलत??
©️Rajhansraju
*****************
(६)
**********
वह सूखी जमीन की
आगोशी में
न कब तक सोया रहा
उसके होने का एहसास
धीरे-धीरे जाता रहा
एक दिन मौसम ने करवट लिया
बरसात की बूंद से मिलना हुआ
हाँ यह वही जगह है
जहाँ आज..
एक पूरा दरख़्त
रहता है
©️Rajhansraju
*********************
(७)
हमारे ही शहर की बात है
उसका नाम प्रयागराज है
बहुत से लोगों को
ए क्या हुआ था
अब तक एहसास नहीं है
यह बात दिलों में
कहाँ तक पहुँची
कह नहीं सकता
बस सबकी आँख नम थी
मेरे मुहल्ले वाली अम्मा
जिनके हाथ में
बड़ी सी झाडू रहती है
अब भी जब
इस बात की चर्चा होती है
उनके आँसू निकल पड़ते हैं
©️Rajhansraju
******************
********************
(8)
******
(अकेलापन किसी को कहाँ तक ले जा सकता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसी अकेलेपन असुरक्षा से जूझते एक पूरे परिवार के बारे में लगातार खबरों का आना और उसे मनोरंजक बनाने की नाकाम कोशिश की जा रही थी और बहुत जल्द सबकुछ की तरह इन्हें भी भुला दिया गया)
******
Anxiety and loneliness
************
तकरीबन दस साल तक,
तीन लोग पूरे समाज से कटे रहे,
उनकी किसी ने खबर नहीं ली,
हलांकि उनमें दो भाई एक बहन है
उन पर पिता का साया अब भी है
पर माँ की रुखसती
बहुत भारी पड़ी
बहुत रोये
एक दूसरे को संभालने की,
कोशिश करते रहे
माँ की तलाश आस-पास करने लगे
घर के दरो दिवार में
हर तरफ माँ नजर आती
उसी ने हर तिनके को संवारा है
यह बात धीरे-धीरे
इस तरह घर कर गई
वह वक्त के
किसी लम्हे में ठहर गए
अपने घर की दीवार को
पूरी दुनिया समझने लगे
उनके बीच माँ अब भी जिंदा है
उन्हें यकीन होने लगा
यह बात इतनी बढ़ गई
पागलपन के हद तक पहुँच गई
लोग एक तय वक्त तक ही
इस दुनिया में रहते हैं
इसी तरह हमसाया
आहिस्ता से साथ छोड़ जाता है
सुबह होती है
जिंदगी थोड़ी भारी
कंपकंपाती सी लगती है
सामने धूप बहुत है
कुछ अदकते
संभलते हुए
वह आगे बढ़ जाता है
ढेरों परछाई हर तरफ नजर आती है
वह जब हाथ बढ़ाता है
कई हाथ उसकी तरफ बढ़ जाते हैं
यूँ अनजाने कोई
हमसफर बन जाता है
जिंदगी बस चल पड़ती है
हर खाली जगह
धीरे-धीरे कम खाली रह जाती है
बस जरूरी है
दरवाजा खुला हो
रुक-रुककर ही सही
हवा आती हो
पर इनके साथ
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
एक डर समाया रहा
धूप और साया से डरने लगे,
अपने जेहन में जो नहीं है
वही सब गढ़ने लगे
दस बरस कैसे कब गुजर गये
पता नहीं चला
एक बीमार बाप जो
बाहर की दुनिया को
बच्चों से जोड़ता था
बच्चे बस जिंदा रहें
यही बहुत मानता था
किसी काली साया का,
सारा खेल है
यही कहता था
जल्द ही निपट लेगा
किसी तंत्र के प्रभाव से
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
बिमारी बढ़ती रही
न जाने कब कैसे गुजर गए
पूरे दस साल
फिर एक दिन कोई जागा
दरवाजे पर दस्तक दी
दूसरे दिन अखबार में,
यह बात खबर बनी,
ऐसी खबरें बेहद तकलीफ़ देती हैं
शहर, अकेलापन, ऊपर से
न जाने किस -किस तरह के पागलपन,
हम खुद को संभाल नहीं पा रहे,
हमने अपनों और,
अपने पास-पड़ोस की,
फिक्र करनी छोड़ ही दी है
हम इस तरह हो गए हैं
सिर्फ़ खुद को देखना चाहते हैं
इसकी एक शर्त है
कमबख्त यहाँ भी नजर चाहिए
ज्यादातर लोग अंधे हो गए हैं
कुछ के आंख में उम्मीद बची है
मगर वह दीवर में कैद हैं
जबकि रोशनी बाहर है
बहरे इस कदर हैं
दस्तक सुनाई देता नहीं
©️Rajhansraju
*******************
Depression&Loneliness
*************
************
(९)
******
आज की ताजा खबर
*****
रोज की खबरों में,
ऐसी खबर भी होती हैं
जो न जाने कहां-कहां तक
दस्तक दे जाती है
हम स्तब्ध रह जाते हैं
ऐसा भी हो सकता है?
क्या कोई इतना मजबूर हो सकता है
जो इतने बड़े समझौते कर लेता है
जिसकी कल्पना कर पाना
आसान नहीं होता
पर यह कल की ही तो बात है
जो आज के अखबार में छपी है
यह घटना नहीं हुई हो
ऐसा तो सोचा ही नहीं जा सकता
क्योंकि खबर जो हो चुका है
उसके बारे में है
अब किसी अनुमान और संभावना की
गुंजाइश खत्म हो गई है
चलिए हम इसे
एक कहानी की तरह ही लेते हैं
और आपको भी सुना देते हैं
क्या पता आप ने इसे
एक खबर की तरह ही पड़ा हो
क्योंकि खबरें इतनी ज्यादा आने लगी है,
किसी खबर पर टिक पाना,
हमारे लिए भी संभव नहीं हो पाता
इसमें किसी की गलती नहीं है
यह वक्त वक्त की बात है
या यूं कहें जब कोई घटना
हमारे पास से गुजरती थी
खबर के रूप में,
तब हम उस में खुद को ढूंढने लग जाते थे
उस वक्त खबरें कम हुआ करती थी
और वह घटना
हर आदमी के पास पहुंच जाती थी,
प्रत्येक व्यक्ति उससे
खुद को जोड़ने लग जाता था,
सही गलत की व्याख्या शुरू हो जाती,
मगर अब ऐसा नहीं होता
खबरों का बहुत तेजी से आना
उनके प्रति हमें संवेदनहीन बनाता जा रहा है
हम बहुत जल्द सब भूल जाते हैं
ऐसे ही लोग हमें भी,
खैर क्या कहें
एक कहानी करते हैं
शायद यह कुछ दिन याद रहे।
©️Rajhansraju
*************
🌹🌹🌹❤️❤️❤️❤️🙏🙏🙏🌹❤️❤️🌹🌹
***********************
to visit other pages
***********
**********************************************************
*********************************
my You Tube channels
**********************
👇👇👇
**************************
my Bloggs
************************
👇👇👇👇👇
*******************************************
**********************
You're here on page No
👉(61)
*********************
************
🌹🌹🌹❤️❤️❤️❤️🙏🙏🙏🌹❤️❤️🌹🌹
ये गुनहगार भी बहुत खुब है
अपने गुनाह को भी
बड़ी मासूमियत से ढक लेता है
हाथ में हर वक्त
गुनाह का कबूलनामा है
और अपनों से ही
सजा की मांग करता रहता है
जब कि वो तो एक अर्से से
उसके दिदार में बैठे हैं
अपने घर में,
परिंदा देखकर,
खुश होते हैं,
उसकी आवाज में,
आवाज मिला देते हैं,
ए भी अच्छा है,
जबान नहीं समझते,
वो दिन-रात अपने घर,
आसमान की बातें करता है,
तुमसे मोहब्बत नहीं है,
ए भी कहता रहता है,
हर बार उसके कहने का,
कुछ और मतलब गढ़ लेते हो,
जबकि उसकी ख्वाहिश,
सिर्फ़ इतनी है,
वह....
इस पिंजरे से आजाद,
होना चाहता है..
©️Rajhansraju
ऐसे ही सब चलता रहता है
ReplyDelete