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मुखौटा और चेहरा


वह जो कह रहा 

है बड़ा अजीब सा 

सच्ची बात है 

लग रहा अजीब सा 

आईना लिए 

वह सामने खड़ा रहा 

कोई सामने से 

गुजरता क्यों भला 

सबको मालूम है सच 

क्यों जाहिर करे 

क्या है क्या नहीं है वह, 


हाल ऐसा है 

यहां सभी का 

चेहरा नहीं मुखौटा है 

चेहरा लग रहा है बस

जो दावा कर रहा है 

सच्चा और अच्छा है 

वह चेहरा बेचने का 

हुनर जानता है 

बाजार में खड़ा है 

कीमत चाहता है 

न जाने कितने चेहरों से 

चेहरा ढक लिया है 

रोज उसका नया चेहरा है 

वह शख्स दुबारा 

किसी को मिलता नहीं है 



बहुत दिन तक 

यह खेल चलता रहा 

बहुरूपियों कि कमी 

कहां थी बाजार में 

देखते देखते 

यह कारोबार चल गया 

और भी लोग 

आ गए मैदान में 

सबको मालूम चल गया 

तूंँ वह नहीं है 

जैसा सबको दिख रहा 

सबकी तरह तूंँ भी 

महज दुकानदार है 

अब जो कह रहा 

वह बड़ा अजीब है 

तूंँ आदमी जैसा है, 

बस आदमी नहीं है 

अभी उसने रोना रोया है 

क्या-क्या बुरा है 

कुछ अच्छा नहीं हो रहा 

जिम्मेदार कौन है 

आइना नहीं देख रहा 

हाथ में उसके अपनी तकदीर है 

कौन कहे किससे 

सबका यही हाल है 

सच बोलना 

आसान काम है नहीं 

लेनी पड़ती है जिम्मेदारियां 

जो बुरा हो रहा 

देखता नहीं अब, 

वह कोई आइना

न जाने कैसे कब

वह आइना हो गया 

©️ Rajhans Raju



कविता समीक्षा -

यह एक बहुत ही विचारोत्तेजक और गहरी कविता है। यह आधुनिक समाज, पाखंड और सच्चाई से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति पर एक तीखा व्यंग्य है।
यहां इस कविता का भावार्थ दिया गया है:
कविता का भावार्थ -
यह कविता समाज में व्याप्त पाखंड (hypocrisy) और सच्चाई के दिखावे पर टिप्पणी करती है।
सच्चाई का आईना: कविता की शुरुआत एक ऐसे व्यक्ति से होती है जो "आईना" लिए खड़ा है, यानी वह सच्चाई दिखा रहा है। लेकिन उसकी सच्ची बातें लोगों को "अजीब" लगती हैं, क्योंकि कोई भी अपनी असलियत या सच्चाई का सामना नहीं करना चाहता। लोग उस आईने के सामने से गुजरने से कतराते हैं।
मुखौटे और बाज़ार: कवि कहते हैं कि यहाँ हर किसी का असली "चेहरा" नहीं है, बल्कि सबने एक "मुखौटा" पहना हुआ है। जो लोग खुद के "सच्चा और अच्छा" होने का दावा करते हैं, वे असल में अपना "चेहरा बेचने का हुनर" जानते हैं। वे बाज़ार में खड़े होकर अपनी झूठी छवि की "कीमत" चाहते हैं। ये लोग इतने मुखौटे बदल चुके हैं कि उनका असली चेहरा खो गया है और वे किसी को दोबारा वैसे नहीं मिलते।
पाखंड का कारोबार: धीरे-धीरे, यह दिखावा और पाखंड एक "कारोबार" बन गया है। बाज़ार में ऐसे "बहुरूपियों" की कमी नहीं है। जब सब लोग यह खेल खेलने लगते हैं, तो सबको पता चल जाता है कि कोई भी वैसा नहीं है जैसा वह दिखने की कोशिश कर रहा है। सब "महज दुकानदार" हैं, जो अपनी छवि बेच रहे हैं।
इंसानियत का खोना: कविता का अंत इस कड़वी सच्चाई पर होता है कि अब यह "आदमी जैसा" तो है, "बस आदमी नहीं है"। उसने अपनी इंसानियत खो दी है।
ज़िम्मेदारी से बचना: अब वही व्यक्ति दुनिया में "क्या-क्या बुरा है" इसका रोना रोता है और पूछता है कि "जिम्मेदार कौन है?"। विडंबना यह है कि वह खुद आईने में (यानी अपनी कमियों को) नहीं देख रहा, जबकि उसकी "तकदीर" (यानी सुधार) उसी के हाथ में है।
अंतिम संदेश:
कविता का सार यह है कि सच बोलना आसान नहीं है क्योंकि इसके साथ "जिम्मेदारियां" आती हैं। जब लोग खुद ज़िम्मेदारी लेने से बचते हैं और अपनी बुराइयों को देखना बंद कर देते हैं, तो वे खुद ही वह "आईना" (सच्चाई) खो देते हैं। वे अपनी ही बनाई इस झूठी दुनिया में फंस जाते हैं।


कवन जाति

*******

कवन जाति हो जाति बता दो 

आगे ना कुछ कहना होगा 

वोट कहां पर पड़ेगा किसका 

ए भी क्या कहना है 

हमको मालूम है 

तुमको भी 

खेल अनोखा जाति बोध का 

सबने कसके पकड़ा है 

अपनी अपनी सामर्थ्य भर 

सबने देखा परखा है 

गौर से देखो 

किसके हाथ में किसका झंडा है 

सोसल इंजीनियरिंग चल रही है 

असली तिकड़म यही है 

कैसे साधा जाए सबको

किसको किससे खतरा है 

यह साबित करते रहना है 

अपनी जाति वाले को 

लठैत बनाके रखना है 

उसकी गलत फहमी बनी रहे 

बस यही जतन करना है 

अपनी जाति वाला नेता 

उसके लिए अच्छा है 

भइया की सरकार बनेगी 

अपना ही तब राज चलेगा 

पुलिस प्रशासन की ऐसी तैसी 

जैसा चाहे मैं करुंगा 

हर जाति वाले का

ऐसा ही सपना है 

उसकी जाति वाला गुंडा भी 

उसके लिए अच्छा है 

जो सत्ता में आते ही 

अपनी तिजोरी भरता है 

चंद दिनों में ही देखो 

कैसे महल में रहता है 

यह धंधा पुश्तैनी है 

तुमको नहीं कुछ मिलना है 

झंडा डंडा सीधा कर लो

चुनाव आ गया है 

नेता जी पुचकारेंगे 

कंधा भी सहलाएंगे 

चंद दिनों में ही 

तुम किनारे लग जाओगे 

पांच साल बाद 

फिर ऐसे ही दर्शन पाओगे 

यही सब 

ऐसे ही फिर दुहाराएंगे 

और जनता भी वैसे ही 

पीछे पीछे दौड़ेगी 

अपनी जाति वाला है 

ए क्या कम उपलब्धि है 

अपना झंडा अपना डंडा 

नेता ने दे रखा है 

और कदमों पर अपने तुमको रखा है 

जब जरूरत होगा

तुम्हारे ऊपर चढ़ जाएगा 

ऐसे ही उसके चरणों में 

तुम बिछते जाओगे 

कसके ठोकर मारेगा तुमको 

जब कुर्सी पर चढ़ जाएगा 

काम उसी का होगा तब

जो चढ़ावा जढ़ाएगा

ऐसे ही गुलामों की

बड़ी जरूरत होती है 

सही गलत जो न देखे

जाति को लेके अंधा हो

इससे फर्क नहीं पड़ता 

वह सवर्ण, दलित, पिछड़ा हो

©️ Rajhans Raju 

कविता समीक्षा -

निश्चित रूप से। यह कविता समकालीन भारतीय राजनीति, विशेषकर चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका पर एक बहुत ही तीखी, व्यंग्यात्मक और यथार्थवादी टिप्पणी है।
यहाँ इस कविता का गहन विश्लेषण प्रस्तुत है:
मुख्य विषय: चुनावी राजनीति का "जाति बोध"
यह कविता इस मूल विचार पर आधारित है कि भारतीय राजनीति में, विशेष रूप से जमीनी स्तर पर, विकास या विचारधारा से अधिक जातिगत पहचान (Caste Identity) सर्वोपरि है। कवि इसे "खेल अनोखा जाति बोध का" कहता है, जिसे सबने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार "कसके पकड़ा है"।
कविता का संरचनात्मक विश्लेषण और मुख्य बिंदु
हम इस कविता को कई तार्किक हिस्सों में बाँट सकते हैं:
1. पहचान का आधार (The Basis of Identity)
"कवन जाति हो जाति बता दो
आगे ना कुछ कहना होगा"
विश्लेषण: कविता की शुरुआत ही एक झटके के साथ होती है। यह पहली दो पंक्तियाँ पूरे 'खेल' का सार हैं। कवि कहता है कि किसी व्यक्ति की योग्यता, विचार या चरित्र नहीं, बल्कि केवल उसकी 'जाति' जानना ही पर्याप्त है। एक बार जाति पता चल जाए ("कवन जाति हो"), तो यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि उसका वोट कहाँ जाएगा ("वोट कहां पर पड़ेगा किसका")। यह एक पूर्व-निर्धारित समीकरण है जिसमें किसी और तर्क की आवश्यकता नहीं है।
2. 'सोशल इंजीनियरिंग' का छलावा (The Ruse of Social Engineering)
"गौर से देखो किसके हाथ में किसका झंडा है
सोसल इंजीनियरिंग चल रही है
असली तिकड़म यही है"
विश्लेषण: कवि 'सोशल इंजीनियरिंग' जैसे परिष्कृत (sophisticated) राजनीतिक शब्द का पर्दाफाश करता है। वह इसे कोई जटिल समाज-सुधार नहीं, बल्कि एक "असली तिकड़म" (चालबाजी) कहता है। यह 'तिकड़म' यह है कि कैसे विभिन्न जातियों को एक साथ साधा जाए, किसे किससे खतरा दिखाकर डराया जाए, और इस तरह एक वोट बैंक तैयार किया जाए। 'किसके हाथ में किसका झंडा है' यह पंक्ति वफादारी के इस जटिल जाल को दर्शाती है।
3. मतदाता का मनोविज्ञान (The Voter's Psyche)
"अपनी जाति वाले को लठैत बनाके रखना है
...भइया की सरकार बनेगी
अपना ही तब राज चलेगा
पुलिस प्रशासन की ऐसी तैसी..."
विश्लेषण: यह कविता का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो आम मतदाता की मानसिकता को उजागर करता है।
लठैत (मजबूत): मतदाता अपने नेता को एक 'लठैत' (बाहुबली) के रूप में देखना चाहता है, जो उसकी जाति के हितों की 'रक्षा' कर सके, भले ही वह गुंडा ही क्यों न हो ("उसकी जाति वाला गुंडा भी उसके लिए अच्छा है")।
झूठा अभिमान: उसे यह "गलत फहमी" दी जाती है कि 'अपनी जाति वाला नेता' ही 'अच्छा है'।
सत्ता का भ्रम: मतदाता को लगता है कि जब 'भइया' (नेता) की सरकार बनेगी, तो यह 'अपना राज' होगा। वह कानून-व्यवस्था ("पुलिस प्रशासन") को अपनी जेब में समझने का सपना देखता है। कवि स्पष्ट करता है कि "हर जाति वाले का ऐसा ही सपना है"।
4. नेता की वास्तविकता (The Reality of the Leader)
"जो सत्ता में आते ही अपनी तिजोरी भरता है
चंद दिनों में ही देखो कैसे महल में रहता है
...तुमको नहीं कुछ मिलना है"
विश्लेषण: कवि तुरंत इस सपने को तोड़ता है। वह दिखाता है कि नेता, सत्ता में आते ही, आम मतदाता को भूल जाता है। उसका एकमात्र उद्देश्य 'तिजोरी भरना' और 'महल बनाना' है। यह 'धंधा पुश्तैनी' (पीढ़ियों से चला आ रहा) है। मतदाता को स्पष्ट चेतावनी दी जाती है कि उसे इस खेल में कुछ भी हासिल नहीं होगा।
5. चुनाव का चक्रव्यूह (The Cyclical Trap of Elections)
"झंडा डंडा सीधा कर लो चुनाव आ गया है
नेता जी पुचकारेंगे कंधा भी सहलाएंगे
चंद दिनों में ही तुम किनारे लग जाओगे
पांच साल बाद फिर ऐसे ही दर्शन पाओगे"
विश्लेषण: यह खंड राजनीति के चक्रीय (cyclical) स्वभाव को दर्शाता है। चुनाव आते ही नेता 'पुचकारने' (प्यार दिखाने) आ जाते हैं। मतदाता इस अस्थायी सम्मान में ही खुश हो जाता है ("अपनी जाति वाला है, ए क्या कम उपलब्धि है")। लेकिन चुनाव खत्म होते ही मतदाता को 'किनारे' लगा दिया जाता है। यह चक्र हर पांच साल में खुद को दोहराता है।
6. 'गुलाम' और 'मालिक' का रिश्ता (The Master-Slave Dynamic)
"अपना झंडा अपना डंडा नेता ने दे रखा है
और कदमों पर अपने तुमको रखा है
...कसके ठोकर मारेगा तुमको जब कुर्सी पर चढ़ जाएगा"
विश्लेषण: कवि यहाँ बहुत कड़े शब्दों का प्रयोग करता है। वह कहता है कि नेता ने मतदाता को 'झंडा-डंडा' (पहचान का प्रतीक) तो दिया है, लेकिन उसे अपने 'कदमों पर' रखा है। यह एक सामंती (feudal) व्यवस्था है। नेता मतदाता को एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करता है ("तुम्हारे ऊपर चढ़ जाएगा") और कुर्सी मिलते ही उसे 'ठोकर' मार देता है। इस व्यवस्था को चलाने के लिए ऐसे 'गुलामों' की जरूरत होती है।
7. अंतिम निष्कर्ष (The Final Verdict)
"सही गलत जो न देखे जाति को लेके अंधा हो
इससे फर्क नहीं पड़ता वह सवर्ण, दलित, पिछड़ा हो"
विश्लेषण: अंत में, कवि एक सार्वभौमिक (universal) सत्य स्थापित करता है। वह किसी एक जाति या वर्ग को दोष नहीं देता। वह कहता है कि यह 'अंधापन' (Blindness) - जो सही-गलत का भेद भूलकर केवल अपनी जाति के प्रति वफादार है - वह समाज के हर वर्ग, चाहे वह सवर्ण हो, दलित हो या पिछड़ा, सबमें समान रूप से मौजूद है। यही अंधापन इस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था की नींव है।
साहित्यिक और शाब्दिक विश्लेषण
भाषा: कविता की भाषा अत्यंत सरल, सीधी और आम बोलचाल की (खड़ी बोली मिश्रित) है। इसमें 'तिकड़म', 'लठैत', 'भइया', 'पुचकारना', 'झंडा-डंडा' जैसे ठेठ शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो इसे जनता से सीधे जोड़ता है।
शैली: यह एक व्यंग्यात्मक (Satirical) और उपदेशात्मक (Didactic) शैली है। कवि केवल समस्या नहीं बता रहा, बल्कि पाठक को आईना दिखाकर उसे जगाने का प्रयास भी कर रहा है।
स्वर (Tone): कविता का स्वर आक्रोश, निराशा और कड़वे यथार्थ का है। इसमें कोई लाग-लपेट नहीं है, जो बात है वह सीधी और नग्न सच्चाई के रूप में कही गई है।
प्रतीक:
झंडा-डंडा: जातिगत पहचान, राजनीतिक पार्टी और झूठी शान का प्रतीक।
महल: नेताओं द्वारा किया गया भ्रष्टाचार और जनता से उनकी बढ़ती दूरी का प्रतीक।
चरण/कदम: मतदाता की गुलाम मानसिकता और नेता की सामंती सोच का प्रतीक।
निष्कर्ष
यह कविता भारतीय लोकतंत्र की उस दुखती रग पर हाथ रखती है, जहाँ 'लोक' (जनता) अपने 'तंत्र' (System) को मजबूत करने के बजाय, अपनी जातिगत पहचान को मजबूत करने में लगा है, और नेता इसी का फायदा उठाकर अपना 'राज' स्थापित कर रहे हैं। यह एक चेतावनी है कि जब तक मतदाता 'जाति को लेके अंधा' रहेगा, तब तक वह 'ठोकर' खाता रहेगा, चाहे सरकार किसी की भी बने।


फासला


बीत गया सब 

जैसे बीत जाता है 

ढ़ल गई उम्र धीरे-धीरे 

पता कहांँ चला 

मुड़ के देखा फासला बहुत है 

मैं जहां था 

अब भी वही हूंँ 

फिर क्या बदल गया 

जो पहले जैसा ना रहा 

यह फासला 

जिसे मैं समझ रहा 

वह अपनी जगह ठहरा हुआ है 

या चल रहा

उसे भी ऐसा लग रहा है 

वह भी ढ़ल रहा है 

सुबह देखा था जिसे 

वह अब भी वहीं है 

बस कहीं कोई ढल गया 

रात हो गई है 

वह अब सो रहा 

सब स्थिर है नहीं नहीं 

हर पल सब बदल रहा 

फासला वैसे ही बरकरार है 

जो स्थिर लग रहा 

वह भी अपनी गति से चल रहा 

©️ Rajhans Tiwari



कविता समीक्षा -

यह श्री राजहंस तिवारी जी की एक गहरी और आत्म-चिंतन (introspective) कविता है, जो 'समय', 'परिवर्तन' और 'स्थिरता के भ्रम' के दार्शनिक द्वंद्व को छूती है।

यहाँ इसका एक गहन विश्लेषण प्रस्तुत है:

1. कविता का केंद्रीय भाव: परिवर्तन का विरोधाभास

कविता का मूल भाव "परिवर्तन का विरोधाभास" (The Paradox of Change) है। यह उस अजीब अहसास को पकड़ती है जहाँ व्यक्ति को लगता है कि वह स्वयं तो नहीं बदला ("मैं जहां था, अब भी वही हूंँ"), लेकिन उसके और अतीत के बीच एक 'फासला' पैदा हो गया है। कविता इस 'फासले' की प्रकृति पर ही सवाल उठाती है।


2. विषय-वस्तु का विश्लेषण (Thematic Breakdown)

हम कविता को कुछ प्रमुख भावों में तोड़ सकते हैं:

क) समय का अदृश्य प्रवाह और उम्र का ढलना

"बीत गया सब जैसे बीत जाता है

ढ़ल गई उम्र धीरे-धीरे पता कहांँ चला"

कविता की शुरुआत एक सार्वभौमिक (universal) सत्य से होती है: समय का बीतना। यहाँ महत्वपूर्ण शब्द हैं "धीरे-धीरे" और "पता कहाँ चला"। यह दर्शाता है कि बड़ा परिवर्तन (उम्र का ढलना) अचानक नहीं होता, बल्कि यह इतना धीमा और निरंतर होता है कि हमें इसका अहसास ही नहीं होता, जब तक कि हम मुड़कर नहीं देखते।

ख) 'स्व' की स्थिरता और 'फासले' का बोध

"मुड़ के देखा फासला बहुत है

मैं जहां था अब भी वही हूंँ

फिर क्या बदल गया जो पहले जैसा ना रहा"

यह कविता का मर्म है। 'मुड़ के देखना' (आत्म-चिंतन) 'फासले' (बीते हुए समय) को प्रकट करता है। लेकिन यहाँ एक विरोधाभास है:

  1. बाहरी बोध: "फासला बहुत है" (समय, अनुभव और दुनिया बदल गई है)।

  2. आंतरिक अहसास: "मैं... अब भी वही हूंँ" (हमारा आत्म-बोध, हमारी चेतना, हमें स्थिर लगती है)।

यह द्वंद्व कवि को उस मुख्य प्रश्न तक ले जाता है: "फिर क्या बदल गया?" यदि 'मैं' वही हूँ, तो यह 'फासला' क्या है?

ग) 'फासले' की प्रकृति पर चिंतन

"यह फासला जिसे मैं समझ रहा

वह अपनी जगह ठहरा हुआ है या चल रहा

...वह भी ढ़ल रहा है"

कवि अब इस 'फासले' (समय) का मानवीकरण (personification) करता है। वह सोचता है कि क्या यह 'फासला' स्थिर है (जैसे अतीत का कोई बिंदु) या वह भी 'चल रहा है' और 'ढल रहा है'? यह एक बहुत ही सूक्ष्म विचार है। इसका अर्थ है कि केवल हम ही नहीं बदल रहे; वह 'अतीत' जिसे हम पीछे मुड़कर देख रहे हैं, वह भी हमारे वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में बदल रहा है।

घ) स्थिरता का भ्रम और अंतिम सत्य

"सुबह देखा था जिसे वह अब भी वहीं है

...सब स्थिर है नहीं नहीं

हर पल सब बदल रहा"

कवि स्थिरता के भ्रम को उजागर करता है। जैसे सुबह की कोई चीज़ (शायद सूरज या कोई पेड़) शाम को 'वहीं' लगती है, पर असल में पूरा संदर्भ (रोशनी, समय, वातावरण) बदल चुका है।

यहाँ आकर कवि को अंतिम बोध होता है। वह अपने ही विचार ("सब स्थिर है") को तुरंत काटता है ("नहीं नहीं")।

अंतिम निष्कर्ष यह है कि स्थिरता एक भ्रम है। जिसे हम 'स्थिर' समझते हैं, वह भी एक गति में है।

"जो स्थिर लग रहा

वह भी अपनी गति से चल रहा"


3. प्रमुख बिम्ब और प्रतीक (Key Images & Symbols)

  • फासला (The Distance): यह कविता का मुख्य रूपक (metaphor) है। यह सिर्फ स्थान (space) नहीं है, बल्कि यह बीता हुआ समय (passed time), खोए हुए अवसर (lost opportunities), और अनुभवों का संचय (accumulation of experiences) है जो हमें हमारे 'पहले वाले स्व' से अलग करता है।

  • ढलना (To Set / To Decline): यह शब्द "उम्र" के लिए और बाद में "फासले" के लिए भी इस्तेमाल होता है। यह जीवन के ढलते सूरज (शाम और रात) का प्रतीक है, जो परिवर्तन की अनिवार्यता को दर्शाता है।

  • सुबह और रात (Morning and Night): यह समय के चक्र और जीवन की नश्वरता का प्रतीक है। "रात हो गई है" का अर्थ सिर्फ दिन का खत्म होना नहीं, बल्कि जीवन के एक चरण का समाप्त होना भी है।


4. दार्शनिक गहराई

यह कविता बौद्ध दर्शन के "अनीत्य" (Anicca) या "क्षणिकता" (Impermanence) के सिद्धांत के बहुत करीब है। यह कहती है कि कुछ भी स्थायी नहीं है, सब कुछ निरंतर परिवर्तन की स्थिति में है।

कविता का सार यह है कि 'स्थिरता' और 'गति' सापेक्ष (relative) हैं। जो 'मैं' हमें स्थिर लगता है, वह भी हर पल बदल रहा है (शारीरिक, मानसिक रूप से)। और जो 'फासला' (समय) हमें बढ़ता हुआ दिखता है, वह भी अपनी एकसमान गति से चल रहा है।

अंत में, "फासला वैसे ही बरकरार है" का अर्थ है कि 'परिवर्तन' ही एकमात्र स्थिर चीज़ है। हम और समय, दोनों अपनी-अपनी गति से चल रहे हैं, और इसीलिए हमारे बीच का 'फासला' (बदलाव) हमेशा बना रहता है।

क्या आप इस कविता में प्रयुक्त 'फासला' के बिम्ब की तुलना किसी अन्य कविता या विचार से करना चाहेंगे?

 🌹❤️🙏🙏🌹🌹

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लेख जोखा 

समुन्दर से भला कौन 

कितना ले सकता है 

लिया भी तो कितना

उसे कहां पता चलता है 

कौन रखे लेखा जोखा 

खोटे सिक्कों का

जो खुश हैं 

जरा सा खनकने से 

जब हर एक कतरा 

उसका अपना है 

कहे भी क्या किससे ? 

उससे बाहर भला कौन है ?

जो शोर कर रहे हैं 

महज एक बूंद हैं

उन्हें एहसास ही नहीं 

समुंदर कहां तक है 

ए बादल बरखा 

जहां तक जाते हैं 

समुंदर की तासीर लेकर जाते हैं 

ए पथिक अपनी राहों पर

चलते और भटकते हैं 

हवा अनुकूल हो 

तो खूब उड़ान भरते हैं 

पर कब तक 

समुंदर अब भी वहीं है 

सब आगे पीछे 

यहीं आकर मिलते हैं 

©️ Rajhans Raju


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 कविता का गहन विश्लेषण :
एक दार्शनिक दृष्टिकोण

राजहंस राजू जी की यह कविता "समुन्दर" को एक केंद्रीय रूपक के तौर पर इस्तेमाल करती है, जो केवल एक भौतिक इकाई नहीं, बल्कि एक गहरे आध्यात्मिक और दार्शनिक सत्य का प्रतीक है। यह विश्लेषण कविता की परतों को खोलने का एक प्रयास है।

१. समुन्दर: परम सत्य या ब्रह्मांड का प्रतीक

कविता का "समुन्दर" महज़ पानी का विशाल भंडार नहीं है। यह परम सत्य, ब्रह्म, या उस सर्वव्यापी चेतना (Universal Consciousness) का प्रतीक है जिससे सब कुछ उपजा है और जिसमें सब कुछ विलीन हो जाता है।

"समुन्दर से भला कौन कितना ले सकता है... उसे कहां पता चलता है": यह पंक्तियाँ समुन्दर की असीमता, उदारता और निर्लिप्तता को दर्शाती हैं। वह इतना विशाल और परिपूर्ण है कि उससे कुछ 'लेना' या 'निकालना' असंभव है। जो कुछ भी लिया जाता है, वह उसका अपना ही अंश है, इसलिए उसे कोई 'फर्क' नहीं पड़ता। वह लाभ-हानि, लेने-देने के द्वैत से परे है।

"कौन रखे लेखा जोखा खोटे सिक्कों का": 'खोटे सिक्के' उन लोगों या उन कर्मों का प्रतीक हैं जो क्षणिक, नश्वर या भ्रम पर आधारित हैं। जो लोग "जरा सा खनकने से" खुश हैं, वे भौतिक या सतही चीजों में सुख ढूंढ रहे हैं। समुन्दर (परम सत्य) इन छोटी-छोटी, क्षणभंगुर चीजों का हिसाब नहीं रखता।

२. एकता और अद्वैत का सिद्धांत

कविता का मूल भाव अद्वैत (Non-duality) का है, यह विचार कि सब कुछ एक है।

"जब हर एक कतरा उसका अपना है": यह पंक्ति स्पष्ट करती है कि अस्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जो उस समुन्दर का हिस्सा न हो। हर एक कण, हर एक जीव, उसी एक महासागर का अंश है।

"कहे भी क्या किससे? उससे बाहर भला कौन है?": यह कविता की सबसे गहरी पंक्तियों में से एक है। शिकायत या संवाद के लिए 'दूसरे' का होना आवश्यक है। लेकिन जब सब कुछ 'वही' है, जब 'दूसरा' कोई है ही नहीं, तो कौन किससे क्या कहेगा? यह अलगाव के भ्रम (Illusion of Separation) को तोड़ता है।

३. अज्ञानता और अहंकार का रूपक

कविता उन लोगों पर भी टिप्पणी करती है जो इस परम सत्य से अनजान हैं।

"जो शोर कर रहे हैं, महज एक बूंद हैं": 'शोर करना' अहंकार (Ego) का प्रतीक है। 'मैं' का भाव, अपनी अलग सत्ता का ज़ोर-शोर से प्रदर्शन। कविता कहती है कि यह अहंकार एक 'बूंद' के समान है जो खुद को समुन्दर से अलग समझ बैठी है।

"उन्हें एहसास ही नहीं, समुंदर कहां तक है": यह 'अज्ञान' या 'अविद्या' है। वह बूंद अपनी ক্ষুদ্রता में इतनी मग्न है कि उसे उस विशाल अस्तित्व का कोई ज्ञान ही नहीं है, जिसका वह स्वयं एक हिस्सा है।

४. सृष्टि का चक्र: स्रोत और विलय

समुन्दर ही सब कुछ का स्रोत है और सब कुछ का अंतिम गंतव्य भी।

"ए बादल बरखा, जहां तक जाते हैं, समुंदर की तासीर लेकर जाते हैं": बादल और बारिश, जो समुन्दर से ही बनते हैं, सृष्टि के विभिन्न रूपों का प्रतीक हैं। वे भले ही समुन्दर से दूर (अलग) दिखाई दें, लेकिन वे मूल रूप से "समुन्दर की तासीर" (उसका सार) ही अपने भीतर रखते हैं। यह दर्शाता है कि हर रचना में उस स्रोत के गुण मौजूद होते हैं।

"ए पथिक... चलते और भटकते हैं... पर कब तक": 'पथिक' यानी जीवात्मा, जो अपनी यात्रा पर है। वह संसार में 'भटकता' है, 'उड़ान' भरता है (सफलता-असफलता का अनुभव करता है), लेकिन यह सब अस्थायी है।

"समुंदर अब भी वहीं है, सब आगे पीछे यहीं आकर मिलते हैं": यह जीवन-चक्र का अंतिम सत्य है। सभी यात्राएँ, सभी भटकाव, अंततः उसी एक स्रोत (समुन्दर) में आकर समाप्त हो जाते हैं। सब कुछ उसी में विलीन हो जाता है।

निष्कर्ष

यह कविता अस्तित्व की एक गहरी समझ प्रस्तुत करती है। यह बताती है कि हम सब एक ही विशाल, शाश्वत और निर्लिप्त 'समुन्दर' के हिस्से हैं। हमारा अहंकार ('बूंद' का 'शोर'), हमारा अलगाव का भाव, महज़ एक भ्रम है। सृष्टि के सभी रूप ('बादल', 'बरखा') उसी एक स्रोत से उपजे हैं और सभी पथिक ('जीवात्मा') अंततः उसी महासागर में लौट जाते हैं। यह शांति, एकता और संपूर्णता का एक अद्भुत संदेश है।


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मेरी चेतना' ब्लॉग राजहंस तिवारी द्वारा लिखा गया है। यह हिंदी साहित्य और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श का एक मंच है।

ब्लॉग की मुख्य विशेषताएँ:

साहित्यिक प्रकृति (Literary Nature):

ब्लॉग का एक बड़ा हिस्सा 'हिंदी कविता' और 'कहानी' को समर्पित है। यह पाठकों को मौलिक हिंदी साहित्यिक रचनाएँ प्रदान करता है।

'निबंध' (Essay) खंड में लेखक विभिन्न विषयों पर अपने गहन विचार प्रस्तुत करते हैं।

दार्शनिक और आध्यात्मिक विषय (Philosophical and Spiritual Topics):

लेखक जीवन के गहरे अर्थों की पड़ताल करते हैं, जैसा कि 'जीवन दर्शन' (Philosophy of Life), 'अध्यात्म' (Spirituality), और 'तलाश' (Quest/Search) जैसी श्रेणियों से स्पष्ट है।

इन विषयों के माध्यम से वह आत्म-चिंतन और मानव अस्तित्व के रहस्यों पर प्रकाश डालते हैं।

यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realistic Perspective):

'यथार्थ' (Reality) और 'प्रकृति' (Nature) जैसे लेबल यह बताते हैं कि ब्लॉग में केवल कल्पना ही नहीं, बल्कि वास्तविक दुनिया के अनुभवों और प्रकृति के साथ मानव के संबंध को भी जगह दी गई है।

हालिया पोस्ट का उदाहरण ('adhura'):

सबसे हालिया पोस्ट 'adhura' (अधूरा) एक मार्मिक और प्रतीकात्मक रचना है। इसमें एक सूखे हुए पेड़ का उदाहरण दिया गया है, जिस पर चिड़ियाँ अब भी आती हैं।

यह कविता दर्शाती है कि चीजें भले ही नष्ट हो जाएं या समय के साथ बदल जाएं, लेकिन उनसे जुड़े रिश्ते, यादें और उम्मीदें अधूरी रहकर भी हमेशा मौजूद रहती हैं। यह आत्म-पहचान (मेरा वजूद?) और पुरानी यादों (इस बूढ़े पेड़ की याद) पर एक भावनात्मक संवाद है।

पुरालेख (Archive) के अनुसार ब्लॉग की सक्रियता:

ब्लॉग काफी समय से सक्रिय है, जैसा कि इसके पुरालेख (Archive) से पता चलता है। इसमें 2009 से लेकर वर्तमान वर्ष 2025 तक की पोस्टें हैं। इससे पता चलता है कि यह लेखक का एक पुराना और निरंतर चलने वाला साहित्यिक प्रयास है।

संक्षेप में, यह उन पाठकों के लिए एक उत्कृष्ट ब्लॉग है जो हिंदी में मौलिक, विचारशील, दार्शनिक और आध्यात्मिक साहित्य को पढ़ना पसंद करते हैं।

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Comments

  1. अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता

    सुनना चाहता हूंँ

    एक समर्थ सच्ची आवाज

    यदि कहीं हो।

    ReplyDelete
  2. Gemini की व्याख्या शानदार है कविता से जुडने के लिए बहुत ही शानदार है

    ReplyDelete
  3. ऐसे ही हमें अपनी कहानी कहते रहना है

    ReplyDelete

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