Mahakumbh Prayagraj

 महाकुंभ तीर्थ यात्रा


व्यापार, अध्यात्म, खोज
या कुछ और
सिर्फ स्नान भीड़ श्रद्धालु
मल्लाह पुजारी पंडा चोर दलाल
भिखारी दाता ग्राही सब कुछ
जो सोच सकते हैं जो ढूंढ रहे हैं
पा सकते हैं यहां पर
निर्भर करता है
आपकी दृष्टि कैसी है
क्या दर्शन करना चाहते हैं
या फिर क्या देखना चाहते हैं
कितने गहरे हैं कितने उथले हैं
उसी हिसाब से
आपको सब कुछ मिल जाएगा
दूर तमिलनाडु के किसी गांव से
कुछ लोग चले आ रहे हैं
कुछ भी तो
यहां के लोगों से नहीं मिलता
न भाषा न पहनावा
चेहरा भी कितना भिन्न है
मगर एक भाव है
जो अभिन्न है
हम हैं
उत्तर में भी हमीं है
दक्षिण में भी हमीं है
पूर्व में भी हमीं है
पश्चिम में भी हमीं है
यहां हम होने का भाव है
उसी का नाम महाकुंभ है
लोगों ने कहा बहुत पैदल चलना पड़ता है
बहुत दूर है एक यात्रा पूरी होने के बाद
जहां ठहर जाना होता है
उसके बाद भी महाकुंभ नगरी
मां गंगा के दर्शन करने के लिए
काफी पैदल चलना पड़ता है
पर यह पूरब पश्चिम
उत्तर दक्षिण से आए लोग
जो पहली बार प्रयागराज आए हैं
उन्हें यही लगता है कि
अब यह अवसर 12 साल बाद आएगा
फिर इस पावन धरती पर महाकुंभ लगेगा
उस वक्त मन और शरीर की स्थिति
पता नहीं कैसी रहेगी
चल पाएंगे कि नहीं
आ पाएंगे कि नहीं
न जाने उसे क्या मंजूर होगा
अब यहां तक आ गए हैं
तो कितना दूर है
कितना चलना है
यह सवाल
कोई मायने नहीं रखता
बस जाना किधर है
रास्ता किधर से है
सिर्फ इतना ही
बस चल पड़े
और फिर वही
व्यापारी और ठग
रास्ते में मिलते रहे
जैसा कि हर जगह होता है
लोगों के पास अच्छा अवसर है
पैसे कमाने का
हर शख्स अपने तरीके से लगा है
जिसमें जितनी क्षमता है
जितना जो कर सकता है
कर रहा है
उसके लिए भी महाकुंभ है
और जो देने और लुटने के लिए आए हैं
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
बस यहां पहुंचना ही महत्वपूर्ण था
कितने किलोमीटर कहां से कहां तक चले
यह तो कुछ मायने ही नहीं रखता
फिर तीर्थ यात्रा के लिए निकले हैं
जिसमें यात्रा शब्द लगा हुआ है
किसी तीर्थ में जाइए
और वहां यात्रा न हो
दूरी न तय करनी पड़े
पैदल न चलना पड़े
और जिसे आप कष्ट कहते हैं
वह तो साधना और तपस्या है
पैदल ही चला जाए तो बेहतर होगा
अपने लोगों से मिलना है
अपना चेहरा
पूरब पश्चिम की तरफ वालों से
मिलाना है
उत्तर वालों से कुछ बात करनी है
फिर पूर्व वाले ऐसे क्यों हैं
अगर अलग है तो
यहां क्या कर रहे हैं
वह कौन सी धागे की गांठ है
जो एक साथ बांध देती है
धागा तो एकदम कच्चा है
जो जब चाहे उससे अलग हो सकता है
मगर फिर भी एक हैं
कोई एक वजह तो होगी
जो सबको एक कच्चे धागे में बांध देती है
और एक गांठ में बंध जाते हैं
वह कौन सा ऐसा पुण्य होगा
जो सिर्फ गंगा स्नान से मिल जाएगा
जो घर के स्नान में नहीं मिलता है
क्या मेरे आस-पास नदियों की कमी है
तालाब पोखरे भी पर्याप्त है
फिर यहां आने की क्या जरूरत है
जो इतने करोड़ लोग यहां चले आ रहे हैं
शादियों से आते रहे हैं
यह सदा से है यही सनातन है
यह शून्य है यह अनंत है
आप आस्तिक है नास्तिक हैं
तर्क करना चाहते हैं बुद्धिमान है सही है
आइए जन आस्था के समुद्र को देखिए
सड़कों पर कैसे लोग
बस चले आ रहे हैं
जैसे ही महाकुंभ क्षेत्र के दर्शन होते हैं
मां गंगा दिखाई पड़ती है
हर हर गंगे के उद्घोष से
सारा क्षेत्र गूंजायमान हो जाता है
और सब की थकान दूर हो जाती है
एक ऊर्जा से भर गये
सब लोगों ने गंगा स्नान किया
और वहीं मां के आंचल में
कुछ देर के लिए ठहर गये
अब यात्रा पूरी हुई
यहां से कहीं के लिए भी
प्रस्थान हो सकता है
कोई दिक्कत नहीं
जीवन वैसे भी यात्रा के सिवा
कुछ है भी तो नहीं
कितना कुछ पाने खोने का
जो खेल चलता रहता है
आखिर बचता क्या है
और पाया क्या खोया क्या
इसका भी गणित कैसे लगाया जाए
जब कुछ पास रहता ही नहीं
तो खोया क्या
क्योंकि यह तो पहले से ही मालूम है
कुछ पास नहीं रहेगा
अगर रह सकता हो
वह खो जाए तब खोने का कोई अर्थ है
जब वह पहले से ही मालूम है
कि कुछ पास रहना ही नहीं है
तो फिर खोने का बोध कैसा है
और पाने की प्रसन्नता कैसी
बस ऐसे ही चल रहा है
महाकुंभ वैभव की पराकाष्ठा का प्रतीक है
जहां ज्ञान अज्ञान
सब कुछ एक साथ समाहित हो जाता है
संतोष या फिर शब्दों का खेल
जो भी कह ले
जैसे भी समझ ले
अर्थ बहुत मायने नहीं रखते हैं
भाव महत्वपूर्ण हो जाते हैं
उसी भाव से विभोर होकर
यात्री को यात्रा करना है
आ रहे हैं जा रहे हैं ठहर गए हैं
कुछ तो है जो निरंतर घट रहा है
इसी घटित होने का नाम
महाकुंभ हो गया है
जो गति की परिभाषा है
उसमें भी तो कुछ होता ही होगा
और फिर परिभाषा से परे
कुछ समझने लायक
कुछ शब्द के साथ चलना पड़ता है
इस संसार में ऐसा बहुत कुछ है
जिस पर सवाल जवाब करने की
बहुत आवश्यकता नहीं रह जाती है
बस महसूस करिए शांत हो जाइए
कोई बात नहीं कुछ अंदर है
कुछ बाहर है
अब कहां क्या देखना चाहते हैं
क्या सुनना चाहते हैं
क्या कहना चाहते हैं
कितना ढेर सारा
इन सबके बगैर भी है
जिसे कहने सुनने की
कोई आवश्यकता ही नहीं है
इस चेतना को
महाकुंभ में महसूस कर सकते हैं
सहमत असहमत है
अपने रोजी रोजगार की भी चिंता है
एक बड़े व्यापार को होते हुए भी देखिए
कितना बड़ा टर्नओवर हो रहा है
फिर अपने सामर्थ्य का आकलन कर लीजिए
आप बूंद के हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं
आप क्या है
आइए महाकुंभ के तीर्थ यात्रा में
हम भी शामिल हो जाते हैं
अपलक खुद को चलते हुए देखते हैं
यह हम ही है
जो पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण से
चले आ रहे हैं
और गंगा स्नान करके
गंगा बन जाते हैं
पवित्र हो जाते हैं
सारा खेल भाव का है
जब भाव आ जाता है
तब अभाव
अपने आप नष्ट हो जाता है
मैं कौन हूंँ
यह सवाल
अब नहीं रह जाता है
©️ RajhansRaju
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Comments

  1. दुनिया में घटित होने वाली सबसे अलौकिक घटना है

    ReplyDelete
  2. जय गंगा मईया

    ReplyDelete
  3. अफवाहों से बचिए धैर्य रखिए
    ए महाकुम्भ है अर्थ समझिए
    यहांँ जन आस्था का महासमुद्र है
    कुछ भी सामान्य नहीं है
    सबकी परीक्षा है
    आस्था भक्ति
    पुलिस प्रशासन
    आम खास
    हम सबके
    कर्तव्य की

    ReplyDelete

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