Safar

मेरा सफर

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परछाई का पीछा करता रहा हूँ,
न जाने किसकी आरजू में,
भटकता रहा हूँ,
ए आइने में कौन है?
जो मुझसे हर वक्त,
कुछ कहता रहता है,
मै बहुत पहले गाँव में,
वो अपनी छोटी सी,
मीठी नदी छोड़ आया,
जहाँ आम के बाग थे,
और इमली का पेड़ था,
यकीन मानिए,
उसकी पत्तियाँ भी खट्टी होती है,
वक्त की किसे परवाह थी,
वह तो हम सबकी मुठ्ठी में था,
अभी आँख खुली तो देखा,
मै किसी घने जंगल में,
एक दम अकेला हूँ,
जहाँ सब कंक्रीट और लोहे का है,
न कोई कुछ सुनता है,
न कहता है,
और वो बूढ़ा दरख्त,
आसपास नजर नहीं आता,
जिसके छांव में वक्त भी,
ठहर जाया करता था,
खैर! मैंने आँख बंद की,
उसी दुनिया में,
लौट जाने की नाकाम,
कोशिश करता रहा,
कम्बख्त ए नींद,
न जाने अब कब आए,
वैसे मैने जो चाहा था,
तूँने वही तो दिया,
जिसकी शर्त यही थी,
इस सफर में वापसी नहीं होगी,
वक्त का पहिया चलता रहा,
अब मेरे चारों तरफ,
अथाह पानी है,
पर! उसका एक कतरा,
मैं पी नहीं सकता,
तूँने तो पूरा समुंदर दे दिया,
बस जीने का हक मुझसे
मेरा छीन लिया।
मैं इसी उदासी में डूबा,
खामोशी से,
अपनी गलतियों के लिए भी,
तुझे कोसता हुआ,
समुंदर की अनंत सीमाओं को,
देख रहा था,
इसका,
क्या कोई किनारा होगा,
अगर होगा तो उस पार क्या होगा,
वो मीठी नदी,
हरे-भरे बाग और गीत गाते पंछियों का,
अहर्निस राग,
क्या अब भी गूँज रहा होगा,
ऐसे ही कल्पना में खोया हुआ,
मै अपने रचे समंदर में,
बहे जा रहा था,
खारे पानी की अनुभूति,
मुझसे सारी मिठास खींचती जा रही थी,
मै अनमना सा,
अपनी कश्ती में दुबका,
सिमटता जा रहा था,
धीरे-धीरे,
इसे ही पूरी दुनिया समझने लगा,
तभी एक गुनगुनाहट सुनी,
यह आहट थी,
मेरे गाँव के पगडंडी की,
उन शरारती बच्चों की,
जब हम मुठ्ठी में वक्त बांध लेते थे,
और उसके साथ,
किसी पेड़ की घनी छांव में,
छिप जाते थे,
मै इसी उधेड़ बुन में,
एक ही पल में,
बचपन के सफर पर निकल गया,
और तभी चौककर देखा,
एक छोटा सा बच्चा,
बगैर किसी नाव के,
खिलखिलाता हुआ,
मुठ्ठी बांधे चला जा रहा है,
मै चौका?
ए क्या?
मैं सो रहा हूँ कि जग रहा हूँ?
मै किस बात पर यकीन करूँ,
मै इस वक्त कहाँ हूँ,
मै तो एक लम्बी यात्रा पर निकला था,
पर यह क्या,
मै तो अब भी उसी गांव में हूँ,
वही मिट्टी है,
और मैं हूँ।
Rajhans Raju
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(२)

सफर

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बहुत दिनों से, 
कहीं चलने का जिक्र हो रहा था,
पर ए आदत बड़ी अजीब है,
कदम कहीं और पड़ते ही नहीं,
बस उन्हीं जाने पहचाने,
रास्ते और लोगों के बीच,
कैसे भी करके पहुँच जाते हैं,
वहीं पैरों का थम जाना,
तमाम चलने वालों को,
गौर से देखा,
तो यही पता चलता है,
सबने अपनी ठहरने की,
एक जगह बना रखी है,
यहाँ से वह कहीं भी जाए,
मगर लौटकर यहीं आता है,
ऐसे ही उसे,
हर एक चीज भाने लगी है,
जिससे उसका कोई ताल्लुक नहीं है,
वह उसे भी ढूँढता है,
जिसे नापसंद करता है,
उसी की कमी क्यों खटकती है?
वो जानता है,
यह उसके लिए अच्छा नहीं है,
बेचारा! क्या करे?
आदत से लाचार है,
तभी उसने देखा,
वो गली में पड़ा बेकार पत्थर,
आज नजर नहीं आ रहा,
कौन ले गया?
कहीं किसी की,
जागीर तो नहीं बन गया,
हालाँकि!
उससे सिर्फ ठोकर लगती थी,
पर! क्या करे?
आदमी है,
जो बड़ा अजीब है,
इसकी भी,
आदत पड़ गयी।
अच्छा चलो कोशिश करते हैं,
एक नयी चप्पल,
और एकदम अलग तरह का,
जूता लेते हैं,
जिसे पुराने रास्ते का अंदाजा न हो,
जिसको घिसने,  ठोकर खाने का,
तजुर्बा भी न हो,
निकलने का वक्त,
रोज जैसा न हो,
फिर देखते हैं,
अपनी फितरत,
हम कुछ बदलते हैं कि नहीं,
ए सोचकर,
किसी और गली,
किसी और शहर चलते हैं,
तभी कुछ नए लोग,
मेरे आसपास नजर आए,
जो नए लिबास में थे,
मैं खुद पर हँस पड़ा,
और अपनी पुरानी
जगह जाकर बैठ गया।
rajhansraju
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(३)

पता

उसका नहीं कोई पता,
कैसा है? कौन है?
क्या कहूँ? ढूँढू कहाँ?
कौन सी उसकी गली?
किस दरवाजे पर दस्तक दूँ?
हर जगह टँगी है,
किसी नाम की तख्ती,
सबके रंग हैं अपने, 
ना जाने दस्तूर हैं कितने,
मै भीतर गया तो देखता हूँ,
सब खोखले, बेज़ान हैं, एक सी हसरते हैं,
खुद के लिए गढ़ रहे, ऊँचे मचान बन रहे,
सत्ता के पैरोकार है, ए भी दुकानदार हैं,
एक से दिखते हैं सभी, न मज़हब है, न ईमान है।
कुछ लोग हैं, जिनके पास कुछ भी नहीं,
इन मकानों का फर्क भी, ठीक से मालूम नहीं,
कहीं से कुछ मिल गया,
जीवन एक और दिन, आगे बढ़ गया,
शायद वह इन्ही के साथ रहता है,
कहीं धूप में बैठा है, सिसकियाँ लेता है,
खाली पेट सोता है,
वहाँ चोट से उसमें जो रिस रहा है,
वह कतरा-कतरा बह रहा है,
उस फूस के घर में जब आग लगी थी,
वह पूरी तरह जल गया था, वहाँ उसे ढूँढते रहे,
अफसोस! कुछ नहीं मिला था,
खाली है जहाँ कुछ भी नहीं,
जैसे बिखर गया हो,
यहीं अभी,
अब जाना कहाँ?
फिर भी लगता है,
वह आस पास कहीं रहता है,
जैसे यहीं-कहीं छुप के बैठा है,
शायद किसी किसी लंगर में वो,
चुपचाप देखता हो मुझे,
दूर से, कभी पास से,
वह बिना आँख के,
यहीं से गुज़रा अभी,
वह फकीर था, या कोई और,
मौन था, कहाँ कुछ सुन सका,
उसकी तलाश है,
या खुद कि,
इसका फर्क कैसे करूँ?
मेरी पहुँच, मेरी समझ,
रुक जाती है,  
कुछ हदों तक ही जा पाती है,
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लगता है बहुत दूर से आ रहे हो 
तनिक ठहरो आराम कर लो, 
रुको-रुको पानी ऐसे मत पीना 
ए लो "कुछ मीठा हो जाए"
🙏🙏🙏🙏
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(४)

मुसाफिर

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वह सिर्फ थोड़ी देर ठहरता है,
वक्त की राह में मुसाफिर है,
पलटकर बहुत दूर जब देखता है,
हर मोड़ पर उसी का एक चेहरा रखा है,
पर! इस वक्त की राह पर चलने की,
एक शर्त है,
कोई पुराने मोड़ पर लौट नहीं सकता,
उसे अपना अक्श़ सदा के लिए,
वहीं छोड़ना पड़ता है,
हर मुकाम पर,
न जाने कितने चेहरे मिलते हैं,
सब ऐसे ही जैसे,
बेमतलब रखे हैं?
वो इसलिए हैं कि उनको,
इस मोड़ पर होना था,
इन चेहरों को भी,
कोई दूर से देखता है,
फिर मेरी तरह ही,
वक्त की राह में,
सब यूँ ही,
चलते रहते हैं
©️rajhansraju
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(५)

घर चलते हैं

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कोई उसको,
कहाँ रोक पाता है
वक्त के साथ,
मुकम्मल हो जाता है।
सफर तो एक सिलसिला है,
जो ठहरा नजर आता है,
वह भी कहाँ रुका है?
आज सूरज फिर ढ़ल गया,
कल "सुबह" लेकर आना है,
गेहूँ की बालियाँ पक चुकी है,
घर जाने की तैयारी है
©️rajhansraju
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(६)

यात्री

न कोई ठहरता है,
न मुड़ कर देखता है,
तूँ कौन है,
कैसा है?
किसी को फर्क, 
कहाँ पड़ता है? 
सब अच्छे से चल रहा,
और हम भी चल रहे,
रास्तों और मंजिलों को,
किसी की परवाह नहीं है,
वो सबके लिए एक जैसा हैं,
अब देखते हैं कौन?
किन रास्तों से होकर,
मंजिल तक पहुँचता है,
या फिर,
जिसे मंजिल समझता है,
वह सिर्फ पड़ाव है,
और वह अंतहीन,
रास्तों का,
मुसाफिर है 
©️rajhansraju
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(७)

तन्हाई

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सुनने की  पहली शर्त यही है,
थोड़ी देर ठहरना पड़ता है
इस शोर में,
जब अपनी आवाज,
अनसुनी सी लगती है,
तेज दौड़ने की,
हम सबने ठानी है,
और सबको शिकायत भी है,
इस जमाने से,
कोई ढंग से,
बात करता नहीं है
©️rajhansraju
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(८)

एक कप चाय

फुर्सत के लम्हों में, 
चाय की चुस्की का 
अपना ही मजा है।
इसी थोड़े से वक्त में 
दोस्तों के साथ,
किसी बात पर
 बेमतलब खिलखिला उठना,
सारी थकान का 
पल में खत्म हो जाना,
फिर अपने काम में, 
बिना शिकायत 
हँसते हुए लग जाना ....
©️rajhansraju
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(९)

मुसाफिर

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अरे मुसाफिर ए बता, 
क्या तूँ उसी शहर में है?
जहाँ के लिए निकला था,
सफर कैसा रहा?
राह कैसी थी?
कितने शहर गुजरे,
क्या वो तेरे शहर जैसे थे,
या कुछ और थे?
अजनबी को देखकर चौके,
या फिर हँसते रहे,
क्या दूसरे शहर का हाल पूँछा,
या अपने में  खोए रहे,
खैर अपना खयाल रखना,
सुना है वो शहर बड़ा,
शानदार है,
लोग उसकी चमक में खो जाते हैं,
फिर कभी,
अपने शहर,
लौटकर नहीं आते हैं।
©️rajhansraju
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(१०)

A journey 

जिंदगी किसे, 
किस मोड़ पर लाएगी ,
कब कहाँ छोड़ जाएगी .
 बरसाती नदी जैसे ,
कभी ए उफनाएगी .
पतवार नहीं, किनारा नहीं ,
किसी मांझी की, ए नाव नहीं .
जीवन की सरिता कैसी,
 हरदम ए बहती रहती .
चाहे हम, या ना चाहें ,
अपनी राह ए चलती रहती .
 नदी नाव का मांझी कौन ,
किनारों से है रिश्ता क्या ?
जीवन पथ पर चलने वाले, 
 बिना रुके ही चलते जाते ,
कहीं राही ,कहीं किनारा ,
पतवारों की बातें क्या ?
नदी जब उफनाती है, 
पतवारों से नाता क्या ?
जीवन की बातें कैसी ? 
नदी-नाव का रिश्ता कैसा ?
सूरज -चाँद की बातें होती ,
नदिया हरदम बहती रहती . 
जीवन की किस बेला में ,
धूप-छावं कब आएगा ?
न जाने राही यह,
 कदम बढाता जाए वह . 
जीवन की अबूझ पहेली ,
मांझी ने तो हरदम खेली .
चप्पू, नाव, नदी का रिश्ता ,
 बिना इसके सभी अधूरा .
बीच नदी में आते ही  ,
सारे रिश्ते जुड़ जाते हैं .
मांझी कौन ? नाव कहाँ ?
 नदिया में है धार कहाँ ?
 चप्पू, नाव ,नदी की बातें ,
साँसों तक ही रिश्ते नाते ....
©️rajhansraju 
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(११)

मैं नहीं डरता 

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वैसे,
कहता तो यही हूँ,
मै डरता नहीं हूँ,
ए सच है कि झूठ,
मैं क्यों कहूँ,
रहने देते हैं,
एक पर्दा,
हमारे दरमिया,
सच-झूठ का फैसला,
छोड़ देते हैं,
इस जिद से,
पता नहीं कौन?
रुसवा हो,
यही सोचकर,
फिर कह रहा हूँ,
मै डरता ....
©️rajhansraju
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⬅️(41) Samundar
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➡️(39) The Boat
बहुत इठलाता हुआ फिरता है 
जबकि "नाव पानी की है"
 बहुत दूर जाना है
❤️❤️🌹🌹🥀🥀
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👉(40)
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Comments

  1. कहते हैं कब्र में सुकून की नींद आती है
    अब मजे की बात ए है की ए बात भी
    जिंदा लोगों ने काही है

    ReplyDelete
  2. औरत ने जनम दिया मर्दों को,
    मर्दों ने उसे बाजार दिया ,
    जब जी चाहा मचला कुचला ,
    जब जी चाहा दुत्कार दिया,
    ©️साहिर लुधियानवी

    ReplyDelete

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