Alfaz

सच्चाई 

(1)
तेरी आवाज से लगा, 
तुझमें सच्चाई है, 
पर! 
तूँ जब करीब आया, 
तेरे हाथ में, 
किसी का.. 
झंडा था..
सिर्फ लब हिल रहे थे,
उसमें आवाज नहीं थी,
तूँ तो एक बुत निकला,
जिसमें जान नहीं है,
जो डोर से बंधा है,
सारी हरकतें,
किसी और की,
महज एक उंगली,
से होती है,
अच्छा हुआ,
तुझे,
करीब से देख लिया,
तूँ जिंदा नहीं है,
ए पता चल गया।
©️Rajhansraju
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(2)

सबर

हम कैसे हैं?
ए हमको,
और उनको भी,
तब पता चलता है,
जब थोड़ा सा,
वक्त बुरा होता है,
हलांकि हमको,
शिकायत बहुत है,
और उनको भी,
पर इस वक्त,
एक दूसरे का सहारा बनना है
थोड़ा सब्र कर
पूरी उम्र हमें लड़ना है
इसके लिए भी
हमें साथ-साथ रहना है
©️rajhansraju
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(3)

वहाँ कौन है 

सुना है, 
वो हर जगह रहता है
उसे मिट्टी-सोने से
कोई फर्क नहीं पड़ता है
पूरी कुदरत वही रचता है
फिर इन शानदार इमारतों में
भला कौन रहता है?
वैसे इन दरवाजों पर
दस्तक भी जरूरी है
लोगों के आने-जाने से,
न जाने कितनों की,
रोजी-रोटी चलती है।
पत्थर तो हर जगह,
बिखरे हैं।
मगर!
कारीगरी का हुनर,
बगैर पैसे के नहीं दिखता।
चलो माना,
खुदा हर जगह है,
मगर जिंदा रहने के लिए,
रोटी कमानी पड़ती है।
©️rajhansraju
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(४)

हार-जीत

उनका क्या दोष है,
जो सिर्फ माँ-बाप है,
हर बार उनके हारने की,
रश्म चल पडी है
पिछली बार भी,
जो जनाज़ा निकला था,
वह उन्ही के बेटे का था,
और इस बार भी,
न जाने यह दौर,
कितना और लम्बा चलेगा,
फिर मरने वाले का,
कोई मज़हब तो रहेगा ही,
लोग ऐसे ही,
उसका तमाशा बना देंगे,
अगली लाश,
कहीं किसी और की होगी,
कोई फौज़ी होगा,
कोई काफिर होगा,
कैसा भी होगा,
इसी मिट्टी का बना होगा,
वही गम होगा,
वही आँसू होंगें,
वैसा ही घर सूना होगा,
फिर कौन?
किसका इंतज़ार करेगा,
इन हारे माँ-बाप को,
भला कौन?
याद रखेगा.
©️Rajhansraju
************************ (5)

मैं कहाँ हूँ

मैं याद कर रहा हूँ 
पिछली बार,
 कब सूरज की लाली देखी? 
कब चिड़ियों का चहचहाना सुना?
कब घास पर नंगे पाँव चला? 
कब बहता पानी  हाथ से छुआ?
मै उन दरख्तों को भी याद करता हूँ, 
जिनके छांव में दिन गुज़र जाते थे.
मुझे रात का आसमान देखे, 
एक अरसा हो गया.
 एक बेरंग सी छत में,
चाँद सितारे ढूँढता हूँ. 
मै इस शहर में,
 न जाने कब खो गया,
अपनी यादों में,
खुद को हर पल ढूंढता हूँ.. 
©️Rajhansraju
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(6)

अल्फाज़ 

*********
जो स्वाभाविक है
उसे ही तो होना है
ए खुद का अल्फाज बनकर,
किसी कागज पर बिखर जाना,
कुछ ऐसा ही है।
जहाँ अलग से कोई प्रयास नहीं होता,
ए जो,
कुछ खाली खाली सा है
उसी में खुद को
भर देता है।
किसी के वक्त का,
एक कतरा नहीं लेता,
वह तो सिर्फ खाली लम्हों को,
खामोशी से,
न जाने कौन सी,
जुबान दे जाता है।
जो उसके परतों की ही खोलते हैं,
सब कुछ बयाॅ करके भी,
न जाने कैसे?
उन परतो को भी बनाए रखते हैं।
ए कुछ सुबह की नींद जैसी है,
जब वह जाग कर भी,
बिस्तर नहीं छोड़ पाता,
सुबह को इंकार करने की चाहत तो है,
मगर ए सूरज बहुत हठी है,
भोर होते ही,
सबसे आँख मिलाता है,
जो काले शब्द पूरी रात,
हमने गढे,
हर एक का मतलब,
बताता है।
ए शब्दों का अजब खेल है,
इसे चुपचाप खेलना है,
पर! सूरज ने उंगली पकड़ कर
जो समझाया,
वो किसी से नहीं कहना है,
और शब्दों को यूँ ही मजे से,
गढ़ते रहना, 
यह तो नशा-ए-लुत्फ है
जिसको पाने के लिए,
न तो कुछ देना है,
और कहीं जाना भी नहीं,
बस दौर-ए-जिंदिगानी की तमाम,
परीक्षाओं को हँसकर बिता देना है,
जो महज,
आगे बढ़ने का फलसफा है,
ए तो चंद शब्दों में,
खुद को दर्ज करने का तरीका है,
जो कभी किसी के आड़े
आते नहीं,
बस सूरज को मजबूर कर देते है,
खुद से पहले जगने को,
पढ़ना पड़ता है,
उसे मेरे सारे काले अक्षरों को,
फिर सिरहने बैठकर,
सही मतलब बताता है वो,
ऐसे ही बार-बार,
मेरे शब्द,
दुहराता है वो।
©️rajhansraju
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Comments

  1. बूढ़े बाप ने
    आहिस्ता से देखा
    हमेशा की तरह कुछ कहता नहीं है
    मेरे बच्चे तूँ आसमान को
    बस देख लिया कर
    मैं उसी का हिस्सा हूँ
    इस अनंत विस्तार का ही
    बहुत छोटा सा किस्सा हूँ
    ©️Rajhansraju

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