हिन्दी साहित्य | Crisis of identity
खिलौने वाला *********** बहुत दिन बाद लौट कर आया शहर तो अपना ही है पर अब बदल गया है हर तरफ रंगीन मुखौटे नजर आते हैं सब एक दूसरे से बेहतरीन होने की, कोशिश कर रहे हैं, पर यह तय कौन करे कौन सा मुखौटा सबसे हसीन है उसे तो उन चेहरों की तलाश है जिसे वह बहुत साल पहले, छोड़ गया था अब कोई पहचान में क्यों नहीं आता किसी जगह कोई आईना, नजर नहीं आता हर आदमी खरीदने बेचने में लगा है दुकानदार की तो खूबी यही है उसे मुखौटा बेचना हैं इसके लिए जरूरी है कहीं कोई आईना न हो, क्योंकि अक्स नजर आते ही मुखौटे की जरूरत नहीं रह जाएगी हर शख्स अपने चेहरे से, खफा नजर आएगा, मैं भी चेहरों की तलाश में, कहीं मुखौटा तो नहीं बन गया आईना देखे एक अरसा हो गया मेरा चेहरा बचा है कि नहीं पता नहीं चलता ऐसे लोग अब भी हंसते हैं मेरा चेहरा देखकर, यही कहते हैं इसके जैसा मुखौटा, कहीं देखा नहीं, ऐसा कहीं दूसरा कोई बनाता नहीं यही वा...