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हिन्दी कविता | घरौंदा | hindi poems

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 घर की तलाश  ***************** ससुराल में उम्र की तमाम हदें पार कर लेने के बाद अब भी जब घर का जिक्र होता है उसकी जुबान पर मायके का नाम आता है हलांकि कि उम्र कितनी हो गई यह भी याद नहीं नाती पोतों को कहानी सुनाती है इसी बहाने बचपन में लौट जाती है अपने आंगन में खिलखिलाती है किस जिद पर मुंह फुला के बैठी है अक्सर यह पता नहीं होता  कोई जल्दी से मनाले भूख कसके लगी है आज खाने में कुछ अच्छा बना है जिसे देखो मुस्करा के निकल जाता है जैसे मेरी परवाह ही नहीं है इस उम्र में भी वह अक्सर गुमसुम होकर बैठ जाती है वैसे ही शायद अब भी कोई मना ले कुछ देर बाद उसे याद भी नहीं रहता किस बात पर वह रूठ के बैठी है एक बदमाश नाती उसकी गोद में आ गया जो फरमाइशें लगातार करने लगा बुढ़िया सब भूल गयी अपना बचपन जीने लगी मगर अब भी वह अपने घर जाना चाहती है हलांकि जिनसे मिलना है अब वहाँ पर उनमें से कोई रहता नहीं है  पर क्या करे?  ए घर-आंगन कभी छूटता नहीं उसे अपने घर जाना है आज सुबह से इस जिद पर गुमसुम मुँह फुला के बैठी है ©️Rajhansraju ****************************** (2) ********* एक बहुत बड़े कमरे में छोटे-छोटे बच्चे अपने बिस